रविवार, 19 फ़रवरी 2017

पुस्तक समीक्षा : हिंदी साहित्य की विभूतियों की महकती यादें [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
बाल-साहित्य में प्रमुख हस्तक्षेप रखने वाले वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश का संस्मरण संग्रह ‘यादें महकी जब’ कई मायनों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। न केवल कथ्य बल्कि शिल्प के स्तर पर भी इस पुस्तक के संस्मरण बड़े ही नवीन हैं। संस्मरण तो अपने आप ही एक ऐसी विधा है, जिसके कथ्य में प्रायः नवीनता ही रहती है, क्योंकि यह लेखक के अतीत से सम्बद्ध किन्हीं व्यक्तिगत अनुभवों का लिप्यांकन होता है। लेकिन, ‘यादें महकी जब’  के कई संस्मरण इस मामले और भी अनूठे हैं कि इनमें हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षरों से सम्बंधित अपने अनुभवों को लेखक ने बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। साथ ही, इसमें दक्षिण कोरिया संस्मरण भी हैं। ये संस्मरण भी पठनीय, कोरियाई संस्कृति को समझने में सहायक और रोचक बन गए हैं। इसके अलावा कश्मीर, सिक्किम, पुणे आदि भारत के विविध स्थलों की अपनी यात्राओं से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्यों को भी लेखक ने संस्मरणात्मक शिल्प में ढालकर व्यक्त करने का सफल प्रयत्न किया है। 
 
दैनिक जागरण
दक्षिण कोरिया से लेकर इन भारतीय क्षेत्रों तक के इन संस्मरणों का लेखक ने कुछ इस ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है कि साधारण बातें भी रोचकता के तत्व से संपुष्ट हो गयी हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो पुस्तक का दक्षिण कोरिया की धरती से जुड़ा तीसरा संस्मरण ‘खोलो राज़ वरना पिटों बंधू: छुनछुन की रुनझुन’ अपने शीर्षक के साथ ही जिज्ञासापूर्ण रोचकता का सृजन करता है। यह रोचकता इस संस्मरण के वर्णन में काफी आगे तक बनी रहती है। इसी ढंग से अन्य तमाम संस्मरणों का भी रोचकतापूर्ण प्रस्तुतिकरण किया गया है। दक्षिण कोरिया और भारत की धरती से जुड़े इन संस्मरणों में हिंदी पाठकों को स्वाभाविक रूप से कोरिया के संस्मरण अधिक आकर्षित कर सकते हैं, क्योंकि उनमें प्रस्तुति-शिल्प की नवीनता के साथ-साथ हिंदी पाठकों के लिए कथ्य की भी ताज़गी का समावेश है। लेकिन, बावजूद इन सबके इस संस्मरण संग्रह का हासिल तो हिंदी साहित्य-जगत की महान विभूतियों से जुड़े संस्मरण ही हैं, जिनमें हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन, भीष्म साहनी आदि कई रचनाकारों से सम्बंधित अपने अनुभवों को लेखक ने बड़े ही रोचक ढंग से वर्णित किया है।
 
डॉ हरिवंश राय बच्चन से जुड़े अपने संस्मरण ‘जब बच्चन जी मेरे घर से मिलने आये’ में लेखक ने शीर्षक से ही रोचकता का पुट ला दिया है। इस संस्मरण में हम डॉ बच्चन के आचारों-विचारों के कई पहलुओं से परिचित होते हैं। लेखक को डॉ बच्चन द्वारा भेजे गए प्रथम पत्र की भाषा पाठकों को डॉ बच्चन में मौजूद विनम्रता और सादगी से परिचित करवाती है, तो वहीँ डॉ बच्चन का अनायास ही लेखक के घर पर आकर ये कहना कि ‘चला आया तुम्हारे घर से मिलने’ उनके व्यक्तित्व में निहित सहजता और पारिवारिक आत्मीयता को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। इसी तरह अपने एक और संस्मरण ‘महादेवी जी का कुत्ता’ में जब लेखक यह किस्सा बताते हैं कि कैसे महादेवी वर्मा ने अपने कुत्ते के गम होने पर अखबार में इश्तिहार देकर इनाम की घोषणा कर दी थी, तो छायावाद की उन महान स्तम्भ कवयित्री के व्यक्तित्व के स्नेहपूर्ण पहलू की एक जीवंत झांकी ही पाठकों के समक्ष उद्घाटित होती है। ऐसे ही भीष्म साहनी, डॉ नागेन्द्र, केदारनाथ सिंह आदि हिंदी के कई श्रेष्ठ साहित्यकारों से सम्बंधित अपने अनुभवों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को लेखक ने अपने संस्मरणों में उद्घाटित करने का सफल प्रयत्न किया है।

इस प्रकार कहना गलत नहीं होगा कि इस संस्मरण संग्रह के संस्मरण कथ्य के स्तर पर तो निर्विवाद रूप से हिंदी को समृद्धि प्रदान करने वाले हैं ही; प्रस्तुतिकरण की रोचकतापूर्ण शैली ने इन्हें और सुन्दर बना दिया है।

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