गुरुवार, 16 जून 2016

कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की गुत्थी [हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

हरिभूमि 
गत वर्ष २०१४ में जब भाजपा की सरकार पहले केंद्र तथा उसके बाद जम्मू-कश्मीर चुनावोपरांत राज्य सरकार में भी सहयोगी भूमिका में आई तो लगभग ढाई दशक से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के मन में उम्मीद जगी कि संभवतः अब उनका  पुनर्वास हो जाएगा। उन्हें लगा कि अब वे अपने उन पैतृक आवासों को पुनः प्राप्त कर सकेंगे जहाँ से उन्हें आज से ढाई दशक पहले समुदाय विशेष के तथाकथित झंडाबरदारों द्वारा  अपने मजहब की जाने किस हिफाजत के लिए आतंकित और प्रताड़ित करके खदेड़ दिया गया था। तबसे अपने पुनर्वास की आस में जी रहे इन कश्मीरी पंडितों के माँ खीरी भवानी दर्शन को जा रहे  एक काफिले पर विगत दिनों जिस तरह से ईंट-पत्थरों द्वारा हमला किया गया, उसने देश को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि वे कितनी क्रूर मानसिकता के मजहबी लोग हैं, जिन्हें इन हिन्दू पंडितों को वर्षों पहले विस्थापित और बर्बाद करने के बावजूद भी अबतक चैन नहीं मिला है ? इस संदर्भ में अगर  कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो आज से लगभग २६ वर्ष पहले सन १९९० में कश्मीर के मुसलमानों के साथ एकता और प्रेम से रहने वाले इन कश्मीरी पंडितों यानी हिन्दुओं पर समुदाय विशेष के रहनुमाओं का ऐसा कहर बरपा कि उन्होंने अपने मजहब की हिफाजत के नाम पर पाकिस्तान से प्रेरित होकर हिन्दू पंडितों को उनके ठिकानों से खदेड़ना आरम्भ कर दिया। इन पंडितों को चुन-चुनकर मारा गया। यहाँ तक कि कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक लसा कौल, राजनीतिक कार्यकर्त्ता टीकालाल टप्लू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, बाल कृष्ण गंजू आदि दर्जनों बेकसूर पंडितों को भी तथाकथित इस्लामिक रहनुमाओं द्वारा बेरहमी से मौत के घाट उतार देने का मामला भी सामने आया। बताया जाता है कि उस समय कश्मीर की मस्जिदों की गुम्बदों पर लगे माइकों से अजान की बजाय हिन्दुओं के लिए  धमकी भरे संदेश प्रसारित होते रहते थे। उनके घरों की दीवारों पर सूचना चिपकाई जाती कि अपनी पत्नियों को छोड़कर यहाँ से भाग जाएं, अन्यथा मारे जाएंगे। उनके सामने ही उनकी पत्नियों से सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया जाता और उनके बच्चों की निर्ममता से हत्या कर दी जाती। समझा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में बेचारे शांतिप्रिय कश्मीरी पंडितों की क्या दशा हुई होगी और कितनी विवशता में उन्हें अपनी जान की सलामती के लिए अपनी जन्मभूमि को छोड़कर पलायन करना पड़ा होगा। एक आंकड़े के मुताबिक़ उस दौर में हजारों की संख्या में कश्मीरी पंडितों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और लगभग 3.5 लाख पंडित पलायन करने को विवश हुए। जब यह फसाद शुरू हुआ उस समय केंद्र में जनता दल की सरकार थी और राज्य में फारुक अब्दुल्ला सरकार के जाने के बाद राष्ट्रपति शासन लग गया था। जून १९९१ में जनता दल की सरकार चली गई और केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई तथा नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। अब भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन यानी अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र का शासन ही था। लेकिन, कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और उक्त किसी भी दौर की सरकार ने जाने किस कारण उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ नहीं किया। ये असंवेदनशीलता सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं थी बल्कि आज कहीं किसी दादरी की झड़प में एक समुदाय विशेष के आदमी के मारे जाने पर अपने पुरस्कार वापस कर असहिष्णुता का विलाप करने वाले इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के कानों में भी तब हजारों-लाखों कश्मीरी पंडितों के चीत्कार के स्वर नहीं पड़े। ये बुद्धिजीवी वर्ग भी धरती का स्वर्ग कहीं जाने वाली घाटी के उस खुनी खेल पर पूरी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए मूकदर्शक बना बैठा रहा। निष्कर्षतः देश की धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले सत्ता से लेकर समाज तक सबने तब उन कश्मीरी पंडितों पर मजहबी उन्माद के कारण हो रहे भीषण अत्याचार की तरफ से ऐसे आँखें मूँद ली थी, जैसे जम्मू-कश्मीर इस देश का अंग ही न हो। भारतीय सेना भी आदेश के अभाव में कुछ नहीं कर सकी। ऐसे में, उन हिन्दू पंडितों की बेबसी के आलम का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। पंडितों पर सन नब्बे में शुरू हुआ ये जुल्म अगले कई वर्षों तक चला और धीरे-धीरे घाटी इन कश्मीरी पंडितों से खाली हो गई। इनमे से तमाम पंडित वर्षों से सरकार की राहत शिविरों में इसी उम्मीद के साथ अपने दिन काट रहे हैं  कि कभी न कभी उन्हें अपने पैतृक आवास में लौटने का सुअवसर मिलेगा। हालांकि अबतक उन्हें केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक से वादों और दिलासों के अलावा और कुछ नहीं मिला है। ऐसे में, अब सवाल यह उठता है कि केंद्र की भाजपा सरकार जिसने अपने एजेंडे में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की बात कही है और इस सम्बन्ध में पैकेज का ऐलान भी कर चुकी है, के पास  कश्मीर के मौजूदा जमीनी हालात के मद्देनज़र अपने वादे को पूरा करने के लिए क्या योजना है ? 
हालांकि कश्मीरी पंडितों के मंदिर जा रहे काफिले पर हुए ताज़ा हमले के बाद जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने न केवल माँ खीरी भवानी मंदिर में जाकर पूजा की है, बल्कि यह सकारात्मक बयान भी दिया है कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है और उनके पुनर्वास के लिए पूरा प्रयास किया जा रहा है। अब महबूबा मुफ़्ती जैसी कट्टर इस्लामिक और अलगाववादी प्रेमी दल की नेता का ये धर्मनिरपेक्ष रवैया और बयान पहले पहल चौंकाता भले हो, लेकिन इसमे निहित राजनीतिक मजबूरी को समझने पर यह सब सामान्य ही लगता है। दरअसल कश्मीरी पंडितों के प्रति महबूबा मुफ़्ती की ये मधुर भाषा सिर्फ और सिर्फ इसलिए है कि उनकी सरकार  हिन्दुत्ववादी विचारधारा वाली भाजपा के दम पर चल रही है। बस इसी राजनीतिक मजबूरी से ये बयान उपजा है और अगर इस सम्बन्ध में महबूबा सरकार कुछ काम करेगी तो वो भी इस राजनीतिक मजबूरी के कारण ही होगा जिसका पूरा श्रेय भाजपा को ही जाएगा। ये भाजपा की बड़ी सफलता भी होगी। यह देखते हुए समझा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर चुनाव के बाद आखिर क्यों भाजपा ने सभी विरोधों और आरोपों को नज़रन्दाज कर पीडीपी संग न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार बनाने का निर्णय लिया था। मौजूदा राजनीतिक हालात भाजपा के उस निर्णय को सही साबित करते ही दिख रहे हैं। अगर भाजपा उसवक्त यह नहीं करती तो संभव था कि पुनः चुनाव की स्थिति में पीडीपी को पूर्ण बहुमत मिल जाता और फिर भाजपा के पास राज्य में कुछ शेष नहीं रह जाता। लेकिन, अभी वो राज्य सरकार के साथ सहयोगी भूमिका में है और उसकी इच्छा के विरुद्ध महबूबा मुफ़्ती कोई निर्णय नहीं ले सकती। तिसपर केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। ऐसे में, कहना गलत नहीं होगा कि गठबंधन में भाजपा की स्थिति अधिक मजबूत है और इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम की सरकार में अगर भाजपा अपने एजेंडे से दो कदम पीछे हटेगी तो महबूबा मुफ़्ती को चार कदम पीछे हटना पड़ेगा। ये स्थिति कश्मीरी पंडितों के लिए अच्छा संकेत तो है, लेकिन फिर भी उनका पुनर्वास अभी दूर की कौड़ी ही नज़र आता है। क्योंकि केंद्र सरकार पैकेजों के जरिये उन्हें भौतिक रूप से तो पुनर्वासित कर सकती है, लेकिन ठोस योजना और सुरक्षा सुनिश्चित किए बगैर कश्मीर के मौजूदा सामाजिक हालात में उनका ये पुनर्वास पुनः उन्हें आफत में डालने जैसा ही होगा। निश्चित ही सरकार का ध्यान इन पहलुओं पर भी होना चाहिए और होगा भी। सरकार इन सब गुत्थियों को सुलझाए बिना कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर आगे नहीं ही बढ़ेगी।

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