सोमवार, 27 जून 2016

एनएसजी प्रकरण के आईने में [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित}

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
आख़िरकार भारत की परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी की सदस्यता को लेकर लंबे समय से चल रही तमाम चर्चाओं और अटकलों का भारत को एनएसजी सदस्यता न मिलने के साथ ही दुखद अंत हुआ। हालाकि इससे भी अधिक दुखद तो ये है कि एक तरफ सियोल से भारत को एनएसजी सदस्यता न मिलने की खबर आई और दूसरी तरफ इस देश के विपक्षी राजनीतिक दलों समेत एक विशेष किस्म के वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इसपर प्रधानमंत्री मोदी पर तरह-तरह से निशाना साधा जाने लगा। कहाँ तक इस समय में सबके स्वर देश के समर्थन में और इस वैश्विक पक्षपात के विरुद्ध होने चाहिए थे, वहीँ वे अपने संकीर्ण हितों से प्रेरित मोदी विरोध के एजेंडे को अंजाम देते हुए प्रधानमंत्री मोदी को कोसने में अपनी सारी ऊर्जा लगा दिए। ये विरोध सियोल के विरोध से कई गुना अधिक चिंताजनक, भयानक और कष्टकारी है।  
एनएसजी सदस्य देशों की सियोल में हुई बैठक में जहाँ चीन ने भारत की एनएसजी सदस्यता का प्रत्यक्ष रूप से विरोध किया तो वहीँ अन्य नौ सदस्य देशों ने भी प्रक्रिया आदि पर सवाल उठाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपना विरोध जताया। विरोध जताने वाले देशों में चीन के अतिरिक्त तुर्की, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड, न्यूजीलैंड आदि देश रहे, जिनके विरोध के फलस्वरूप भारत की सदस्यता का मामला अधर में ही लटका रह गया। ख़बरों के अनुसार, आयरलैंड, आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, ब्राजील आदि ज्यादातर देशों ने भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर न किए जाने के कारण उसे एनएसजी की सदस्यता के लिए अयोग्य माना तो चीन अंत समय तक भारत के विरोध पर ही अडिग रहा। स्विजरलैंड ने भारत का समर्थन तो किया, मगर एनएसजी की सदस्यता के नियमों पर सवाल उठाकर अपने समर्थन को हल्का कर दिया। तुर्की भी चीन के ही रास्ते पर चला। कुल मिलाकर  समझना मुश्किल नहीं है कि भारत का विरोध करने वाले इन देशों में से ज्यादातर के विरोध का कारण एनपीटी पर हस्ताक्षर कम, निजी कूटनीति अधिक है। वास्तव में एनपीटी जिसको पक्षपातपूर्ण मानते हुए भारत द्वारा अस्वीकार किया जाता रहा है, के बहाने जहाँ कई देशों ने भारत को वैश्विक स्तर पर बढ़ने न देने की अपनी प्रतिस्पर्धात्मक कूटनीति को साधने का प्रयास किया है तो वहीँ तुर्की आदि कुछेक देश ऐसे भी हैं, जिनका भारत विरोध चीन के प्रभावस्वरूप उपजा है। चीन का भारत-वैर तो खैर इतिहास प्रसिद्ध ही है और फ़िलहाल जब भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख और शक्ति निरंतर रूप से बढ़ रही है तो ये चीन को कैसे बर्दाश्त हो सकता है ? चूंकि, भारत का वैश्विक उभार एशिया में चीन के वर्चस्व को कम करने की क्षमता रखता है, बस यही चीन द्वारा भारत के प्रति भय और असुरक्षा महसूस करने का कारण है। इसलिए निश्चित तौर पर जहां तक संभव होगा, उसके द्वारा भारत की वैश्विक सफलताओं और प्रगतियों को कुंठित करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग किया ही जाएगा। संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर पर प्रतिबन्ध के भारतीय प्रस्ताव का विरोध और अब भारत की एनएसजी सदस्यता में रोड़ा, ये सब चीन की उक्त भारत-विरोध की नीति का ही हिस्सा है। २००८ में भी भारत की एनएसजी सदस्यता की बात आने पर चीन का यही रुख रहा था जो आज है। कहना गलत नहीं होगा कि एनपीटी तो केवल एक बहाना है, अन्यथा एनएसजी की सियोल बैठक में हुए भारत विरोध के मूल में तो भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ने न देने की चिर-परिचित भारत-विरोधी चीनी नीति का ही प्रभाव रहा है। 
बात को थोड़ा और बेहतर ढंग से समझने के लिए अगर एनएसजी और उसकी सदस्यता प्रक्रिया पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालें तो सन १९७४ में जब भारत द्वारा स्माइलिंग बुद्धा नामक अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया गया तो इसने दुनिया की महाशक्तियों को हैरान-परेशान कर दिया। इस परीक्षण से सशंकित महाशक्ति देशों द्वारा तुरंत ही एक बैठक कर परमाणु ऊर्जा को सीमित करने के उद्देश्य से परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की स्थापना की गई। प्रारंभ में सात सदस्यीय एनएसजी के सदस्यों का समयानुसार विस्तार होता गया और आज ४८ देश इसके सदस्य हैं। इसके नियमानुसार परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जिसका तथाकथित उद्देश्य परमाणु अस्त्रों के विकास और प्रसार  को नियंत्रित करना है, पर हस्ताक्षर करने वाले देश ही इसकी सदस्यता के लिए योग्य होते हैं। इसपर हस्ताक्षर करने वाला देश भविष्य में परमाणु अस्त्र विकसित नहीं कर सकता। अभी १९० देश इसपर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इसे अन्यायपूर्ण मानते हुए इसका विरोध करता रहा है। भारत का विरोध उचित भी है। विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले  अमेरिका, रूस, फ़्रांस, आदि महाशक्ति देशों ने खुद तो पहले से ही परमाणु हथियारों का जखीरा तैयार कर रखा है और अब भारत जैसे नए उभरते देशों के ऊपर निशस्त्रीकरण की आड़ लेकर इस संधि के रूप में प्रतिबन्ध थोपने का अनुचित और कुटिल प्रयास कर रहे हैं। यह वैसे ही है जैसे कि कोई खुद तो भरपेट भोजन कर ले और फिर दूसरों को भोजन की हानियाँ बताते हुए भोजन न करने के लिए बाध्य करे। अगर महाशक्तियां वाकई में दुनिया को परमाणु अस्त्रों से मुक्त देखना चाहती हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने पास संग्रहित हजारों की संख्या में परमाणु अस्त्रों को नष्ट कर देना चाहिए। ज्ञात आंकड़ों के अनुसार, अकेले अमेरिका और रूस के ही पास दुनिया के आधे से अधिक परमाणु अस्त्र मौजूद हैं जो कि इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप उपजे हैं। अन्य देशों ने तो सिर्फ अपनी सुरक्षात्मक चिंताओं के मद्देनज़र परमाणु हथियार विकसित किए हैं। भारत भी उनमे से ही एक है। इस बात को इस तथ्य के जरिये ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं कि भारत के बाद में परमाणु हथियार की क्षमता अर्जित करने वाले पाकिस्तान के पास आज भारत से अधिक परमाणु हथियार होने की बात जब-तब अमेरिकी संस्थाओं की ही रिपोर्ट्स में सामने आती रही है। ऐसे में समझना आसान है कि वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों के मद्देनज़र भारत ने परमाणु हथियार सिर्फ अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता और सुरक्षा के लिए विकसित किए हैं न कि महाशक्ति देशों की तरह उसमे हथियारों की होड़ जैसा कोई भाव है। अतः अगर महाशक्ति देश वाकई में निशस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें भारत को एनपीटी जैसी अन्यायपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर न करने के कारण संदेह की दृष्टि से देखने की बजाय पहले अपने परमाणु जखीरे को समाप्त कर खुद इसकी पहल करनी चाहिए।  मगर वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि, निशस्त्रीकरण तो सिर्फ बहाना है, उनकी वास्तविक मंशा तो परमाणु हथियारों पर एकाधिकार के बलबूते अपने अप्रत्यक्ष वैश्विक वर्चस्व को बरकरार रखने की है। इन परिस्थितियों को देखने के बाद भारत का एनपीटी पर हस्ताक्षर न करने का निर्णय एकदम सही प्रतीत होता है। और आगे भी बेशक भारत को एनएसजी की सदस्यता न मिले, मगर उसे एनपीटी पर अपने मौजूदा पक्ष के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध ही रहना चाहिए।
बहरहाल, ताज़ा मामले पर आएं तो यह ठीक है कि अभी भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिल सकी, लेकिन इस दौरान उसे ४८ सदस्यीय एनएसजी के 38 सदस्य देशों का समर्थन मिलने से एकबार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति अब बेहद मजबूत हो चुकी है। यह उम्मीद भी प्रबल हुई है कि अभी बेशक भारत को विशेष रूप से चीन के कूटनीतिक दुष्प्रयासों और विरोध के कारण एनएसजी की सदस्यता से वंचित रहना पड़ा हो, लेकिन भारत के लिए बढ़ते वैश्विक समर्थन के मद्देनज़र अब अधिक समय तक चीन के लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा। भारत की वैश्विक स्वीकृति जैसे-जैसे बढ़ेगी चीन पर दबाव बढ़ता जाएगा और अंततः उसे भारत को स्वीकारना ही पड़ेगा। अतः फ़िलहाल जो हुआ वो भले बहुत अच्छा न हो, मगर इसमें भी आशा ही दिखती है। निराश होने का कोई कारण नहीं दिखता।

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