शनिवार, 2 जुलाई 2016

पुस्तक समीक्षा: साहित्यिक अंदाज़ में प्यार की सिनेमाई कहानी

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

शर्तिया इश्क 
अगर आपको अस्सी-नब्बे के दशक की हिंदी सिनेमा जिसमे अलग-अलग रोमांचक प्रेम कहानियों वाली तमाम फ़िल्में आई थीं,  पसंद है तो आपको शकील शमर का उपन्यास 'शर्तिया इश्क' भी शर्तिया तौर पर पसंद आएगा। ऐसा इसलिए कह रहे क्योंकि शकील के इस उपन्यास में कहानी का ट्रीटमेंट भी कुछ-कुछ सिनेमाई ही है। ये तीन लोगों की  कहानी है। दो लड़के एक लड़की। लेकिन रुकिए! आप अपने दिमाग में प्रेम के सीधे-साधे त्रिकोण की कल्पना मत कीजिये। कहानी इतनी भी सीधी नहीं है।  कबीर सिन्हा, एक बड़े बिजनेसमैन का बेटा जो अपने पिता से इस कदर असंतुष्ट और नाराज है कि उनका घरबार छोड़कर इधर-उधर समय काट रहा है। हालांकि उसका जीवन खर्च पिता के पैसे से ही चल रहा है। वाणी, अपनी माँ द्वारा अनाथालय के दरवाजे पर छोड़ दी गई एक अनाथ लड़की जिसको जीवन के दुखों और संघर्षों ने सिखाया है कि कामयाबी ही सबकुछ होती है। डांस स्टार बनने का सपना ही उसके लिए सबकुछ है। अभिषेक गौतम, एक गरीब पृष्ठभूमि का लड़का उसने भी जीवन के संघर्षों से यही सिखा है कि पैसा और कामयाबी ही सबकुछ होती है। वो कामयाबी के लिए कुछ भी कर सकता है। अब दिमाग पर जरा-सा जोर डालें तो ऐसे चरित्र हम आज से दशकों पूर्व हिंदी की तमाम फिल्मों में देख चुके हैं।  कहानी पर आएं तो वाणी और अभिषेक अच्छे दोस्त हैं। वाणी कभी अभिषेक को अन्दर-अन्दर प्यार करती रही थी, पर  प्रतिक्रिया न मिलने के कारण फिलहाल उससे बाहर आ चुकी है। कबीर और वाणी में पहले तकरार होती है और फिर जब दोनों एक दूसरे की हकीकत जानते हैं तो ये तकरार  धीरे से प्यार में बदल जाती है।  दोनों का प्यार चलने लगता है। कुछ समय तक दोनों का रोमांस चलता है। किस-विस होते हैं। फिर एक रोज वाणी को उसके डांस के दौरान में कम कपड़े में देखकर हिंदी सिनेमा के आदर्शवादी और स्वाभिमानी नायक की तरह कबीर बिगड़ जाता है। फिर एक सिनेमाई ड्रामा होता है और अपने इस डांस को उचित सिद्ध करने के लिए वाणी कबीर को अबतक चर्चा से गायब रहे अनाथालय से रूबरू करवाती है और बताती है कि इस डांस का पैसा अनाथालय को जाता है। कबीर की नज़रों में वाणी का सम्मान बढ़ जाता है। फिर कबीर अनाथालय के लिए बड़ा कुछ करने का वाणी से वादा करता है और इसके लिए वाणी का एक स्टेडियम में डांस शो करवाता है। यहीं से कहानी में क्लाइमेक्स  आता है, जब डांस शो के पैसों में से एक बड़ी रकम का अभिषेक द्वारा घपला कर लिया जाता है। इस बात कबीर और अभिषेक में में कहा-सुनी होती है, जिसमे बड़े ही नाटकीय ढंग से वाणी अभिषेक का साथ देती है। यहाँ से अभिषेक का रूप खलनायक का हो जाता है जो वाणी और कबीर में दूरियां लाने की ठान लेता है। और आखिर जल्द ही उसे कामयाबी भी मिलती है, जब कबीर वाणी से शादी के लिए कहता है तो वो शर्त रखती है कि कबीर अपने घर वापस लौट जाए तो ही वो उससे शादी करेगी। कबीर इससे इनकार कर देता है और अंततः वाणी अभिषेक के साथ शादी करने का निर्णय ले लेती है। ये सब हिंदी सिनेमा की ही किसी एक फिल्म का घटनाक्रम लगता है। लेकिन, कबीर के घर न लौटने की वजह जानने के बाद  भी जब वाणी उससे शादी करने से इनकार कर देती है तो यहाँ कहानी अस्सी-नब्बे के दशक की सिनेमा से कुछ बाहर आती दिखती है और लगता है कि अब कुछ अलग होगा। मगर इसके आगे कहानी में शायद लेखक खुद ही उलझ गए हैं। शायद वे तय नहीं कर पाए हैं कि कहानी को किस और ले चलें। और कई एक जगहों पर इस उलझन में कहानी भटकी सी लगने लगती है। जैसे कि अभिषेक के कहने पर वाणी का थोड़ी ना-नुकुर के बाद उसके व्यापारिक साझीदार के साथ हमबिस्तरी के लिए तैयार हो जाना और इसके बाद भी अभिषेक को बेहतर आदमी मानना बेहद अजीब लगता है। वाणी जैसी मजबूत इरादों और जिंदगी को अपने तौर-तरीकों से जीने वाली लड़की में अचानक पैदा ये समझौतावाद किसी भी पाठक को अटपटा लग सकता है।  तिसपर कबीर के बच्चे की माँ बनने की वाणी की सनक भी बिलकुल अतार्किक और अबूझ प्रतीत होती है। ये सब सनाकीपना करते समय वाणी का वो व्यावहारिक दृष्टिकोण कहाँ चला जाता है, जिसके कारण वो कबीर के प्यार को ठुकरा देती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सब प्रसंग कहानी को सिनेमाई प्रभाव से बाहर लाकर एक नया  रूप देने की लेखक की कोशिश के क्रम में आई उलझन के परिणामस्वरूप  पैदा हुए हैं। सोनालिका का प्रसंग भी कुछ ऐसा ही है। उसी प्रसंग से कहानी शुरू होती है तो लगता है कि ये कहानी का बहुत महत्वपूर्ण भाग है, मगर इसका अंत जितने साधारण ढंग से किया गया है, वो निराश करता है। वैसे तो पूरी कहानी का ही अंत बहुत बेहतर नहीं हुआ है। अंत में कथा के कई सूत्र भटके और अनसुलझे ही रह जाते हैं। कबीर की याददाश्त के वापस आने या न आने का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता तथा अभिषेक की मनोवृतियों में आया बदलाव भी सिर्फ संकेतों में ही अभिव्यक्त हुआ है। ये अंत कहानी के लिए अनुकूल हो सकता था, क्योंकि उसमे अधिक विस्तार की संभावना नहीं होती। परन्तु उपन्यास में तो विस्तार की पूरी स्वतंत्रता होती है, फिर लेखक अंत में इतनी जल्दबाजी क्यों कर गए ? ये समझ से परे है। 
कथानक की उपर्युक्त विभिन्न कमियों के बावजूद अगर कोई इसे पढना शुरू करे तो उसे ऊब नहीं होगी तो सिर्फ इसलिए कि इसकी भाषा एक अलग ही ताजगी लिए हुए है। सहज, सरल और नई-पुरानी  पीढ़ी सबके लिए इसकी भाषा एकदम सुग्राह्य है। शकील की भाषा बहती नदी की तरह है, जिसमे कहीं कोई अटकाव-भटकाव नहीं महसूस होता।  बड़ी-बड़ी और जटिल  बातों को वे झट से एक छोटे से वाक्य में बड़ी ही सुगमता से कह जाते हैं। ऐसी भाषा की झांकी हम हिंदी के उन उपन्यासों में पाते हैं, जिन्हें लोकप्रिय या लुगदी कहकर स्वघोषित गंभीर साहित्य वालों द्वारा हिंदी साहित्य की मुख्यधारा बाहर रखा गया है। लेकिन, मुख्यधारा की हर कृति से अधिक बिकने और पढ़े जाने वाले उपन्यास वही हैं। खैर! शकील की ये भाषा उनकी ताकत है। साथ ही, कहानी के संयोजन में भी उनकी दक्षता दिखती है। अगर इन चीजों को एक मजबूत और ठोस कहानी का आश्रय लेकर प्रयोग किया जाय तो निश्चित तौर पर शकील की कलम से बेहतरीन कृतियाँ निकल सकती हैं।       

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