- पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण |
टी एस सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०१६ पर सुझाव देने के लिए गठित आयोग ने जबसे अपनी रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपी है, तबसे देश में नई शिक्षा नीति के सम्बन्ध में चर्चा शुरू हो गई है । आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कई सिफारिशें की हैं, जिनमे कुछ सिफारिशें जैसे कि शिक्षा की गुणवत्ता, कोचिंग के बढ़ते चलन और आधारभूत संरचना पर ध्यान केन्द्रित करने तथा पांचवी तक बच्चों को फेल नहीं करने की नीति की समीक्षा करने आदि प्रावधान तो अत्यंत अध्ययनपूर्ण और धरातल पर मौजूद शैक्षिक समस्याओं को प्रतिसूचित करने वाले हैं । आयोग की विशेष दृष्टि प्राथमिक शिक्षा पर रही है और होनी भी चाहिए । क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नीव होती है । अब यदि नीव मजबूत होगी तभी तो उसपर ज्ञान की मजबूत इमारत बनेगी । इस बात को अगर भारत के सम्बन्ध में देखें तो भारत की
प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं । आयोग ने अपनी सिफारिशों में उनमे से तमाम खामियों पर ध्यान आकर्षित करने बेहतरीन कोशिश भी की है । इसमे तो कोई
दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के
लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के
बावजूद यूनिसेफ की इस वर्ष आई एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के ७.४ करोड़ बच्चों में से २ करोड़ बच्चे अब भी स्कूली शिक्षा से वंचित हैं । अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि
सरकार द्वारा तमाम प्रयास किए जाने के बाद भी भारत की प्राथमिक शिक्षा की ये
दुर्दशा हो रही है ? इस सवाल का जवाब सिर्फ यही है कि अबतक केंद्र व राज्य
सरकारों की अधिकाधिक योजनाओं की ही तरह शिक्षा संबंधी योजनाएं भी बस कागज़ तक
सिमटकर रहती आई हैं, यथार्थ के धरातल पर उनका कोई विशेष
अस्तित्व नही दीखता है । क्योंकि, सरकार
योजनाएं बनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है और उसे इससे कोई मतलब नही रह
जाता कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन कैसे हो रहा है ? इसलिए सरकार की बेहतरीन
योजनाएं भी सम्बंधित अधिकारियों व मंत्रियों के बीच धन उगाही का एक माध्यम मात्र
बनकर रह जाती हैं और जनता तक उनका लाभ नही पहुँच पाता । यहाँ
भी यही स्थिति है । नजीर के तौर पर देखें तो विगत संप्रग सरकार द्वारा अधिकाधिक बच्चों को स्कूलों से
जोड़ने के लिए सन २००९ में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक क़ानून लागू किया गया, जिसके तहत
६ से १४ साल तक के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की
गई है । साथ ही, निजी स्कूलों को भी अपने यहाँ ६ से १४
साल तक के कमजोर और गरीब तबकों के २५ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना
अनिवार्य कर दिया गया । पर आज इस क़ानून के लागू होने के लगभग ७ साल बाद अगर हम इसके क्रियान्वयन पर एक नजर डाले
तो देखते हैं कि इसके नियमों का कोई
समुचित क्रियान्वयन होता कहीं नहीं दीखता है । पिछले सालों में इस क़ानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध
में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र व
सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब माँगा गया था । दायर याचिका में कहा गया था कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों
और १२ लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण ‘शिक्षा के अधिकार’ क़ानून का समुचित क्रियान्वयन
नहीं हो पा रहा है । आलम ये है कि आज देश
के अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थान ढांचागत व बुनियादी सुविधाओं से लेकर शैक्षिक
गुणवत्ता के स्तर पर तक हर तरह से विफल नज़र आते हैं । परिणामतः अभिभावक बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में भेज रहे
हैं और इस कारण उन्हें कहीं न कहीं निजी
शिक्षण संस्थानों की मनमानी का शिकार भी होना पड़ रहा है । अगर सरकारी शिक्षण
संस्थानों की बुनियादी सुविधाओं व शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार आए तो संदेह नहीं कि अभिभावकों की पहली पसंद अब भी
वही होंगे ।
इसी सन्दर्भ में अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा की
गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ
एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा
दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं । ये
रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने
लाने के लिए पर्याप्त है । विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी
शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं –
श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम
पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं । हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल
निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता । कहने का मतलब ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और
मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है । ये
समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है । अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे
बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता है, उसे
किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता । कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार
पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है । उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़ा आदि सीखने की
है, उनके लिए जोड़-घटाव सीखाने वाला
पाठ्यक्रम तैयार किया गया है । अब ऐसे जरूरत से ज्यादा कठिन पाठ्यक्रम के फलस्वरूप गली-गली ट्यूशन की संस्कृति का सूत्रपात हुआ है, जिसकी शिक्षा पद्धति अधिकांशतः तोता रटंत जैसी ही है । कहना गलत नही होगा कि ये
पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के
कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है । ऐसे पाठ्यक्रम से ये
उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम
के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे । ऐसा
पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर
बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक
ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना । चूंकि, बच्चों के इस
भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी किताबें
अभिभावकों को स्कूल से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा
सकता कि इसके पीछे निजी शिक्षण संस्थानों और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के
नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा । उचित
होता कि सरकार इस संबंध में स्वतः संज्ञान लेती तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को
निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती । साथ ही, इस समस्या का स्थायी और आदर्श समाधान यह होगा कि नई शिक्षा नीति के तहत सभी बच्चों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाय, जो उनकी बौद्धिक क्षमता
के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी हो । अगर ये किया जाता है, तो ही हम सही मायने में अपने
देश के नौनिहालों का भविष्य सुरक्षित करने की तरफ अग्रसर होंगे और भारत को एक सुन्दर
बौद्धिक भविष्य दे पाएंगे । सरकार को इन बातों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ये बातें भारत की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी
हैं और अगर यहीं खामी रही तो आप लाख विश्वविद्यालय स्थापित कर लें, उनका कोई विशेष
अर्थ नही होगा !
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