बुधवार, 21 मई 2014

क्षेत्रीय दलों के लिए आत्ममंथन का दौर [दैनिक जागरण राष्ट्रीय और डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लोकतांत्रिक महापर्व यानी लोकसभा चुनावों का समापन हो चुका है । इस लोकसभा चुनाव जहाँ न सिर्फ एनडीए को, बल्कि खुद भाजपा को भी पूर्ण बहुमत मिला है, वहीँ देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली कांग्रेस को विपक्ष में बैठने लायक सीटें भी हासिल नहीं हो सकी हैं । बेहद चौंकाने वाले ढंग से कांग्रेस मात्र ४४ सीटों पर सिमटकर रह गई है, जो कि विपक्ष में बैठने के लिए आवश्यक ५५ सीटों से काफी कम है । पर कांग्रेस के इस पतन से भी अधिक चौंकाने वाली बात यह रही है कि इस चुनाव में जया ललिता और ममता बनर्जी जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश क्षेत्रीय दलों का जनाधार भी सिमटता नज़र आया है । यूपी, बिहार, महाराष्ट्र समेत और भी कई राज्यों के वो क्षेत्रीय दल जिनका वर्चस्व अपने-अपने राज्य में हुआ करता था, इस लोकसभा चुनाव में एक-एक सीट के लिए संघर्ष करते नज़र आए हैं । यूपी में मुलायम, मायावती से लेकर नीतीश, लालू तथा शरद पवार, आदि सभी के दलों के प्रदर्शन का स्तर पहले की तुलना में अत्यंत नीचे आया है । यूपी की अस्सी लोकसभा सीटों में से इस चुनाव में जहाँ मुलायम सपा को मात्र पाँच सीटें मिलीं, वहीँ मायावती की बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका । कुछ यही हालत बिहार में भी देखने को मिली । यहाँ की ४० सीटों में से लालू की राजद को जहाँ मात्र ४ सीटों से संतोष करना पड़ा, वहीँ सुशासन बाबू के नाम से मशहूर नीतीश की जेडीयू के हाथ मात्र दो ही सीटें आईं आई । हालांकि भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के कारण रामबिलास पासवान की लोजपा ने बिहार  में छः सीटें जरूर हासिल की, लेकिन इसे उनका नहीं मोदी लहर का प्रभाव ही कहा जाएगा । महाराष्ट्र में भी एनसीपी, मनसे आदि क्षेत्रीय दलों की लालू-मुलायम जैसी ही हालत  हुई है, लेकिन भाजपा के साथ चुनाव लड़ने के कारण शिवसेना ने १८ सीटों पर जीत हासिल कर ली है । जाहिर है कि इसमें भी मोदी इफेक्ट ने ही काम किया, वरना शिवसेना का इतनी बड़ी जीत हासिल करना कहीं से मुमकिन नहीं था । इन सभी बातों से जो एक निष्कर्ष निकल कर आता है, वो ये कि इस लोकसभा चुनाव जनता ने जाति-धर्म-क्षेत्र आदि से ऊपर उठकर मुद्दों पर मतदान किया है । बस यही कारण है कि जाति-धर्म आदि की राजनीति के सहारे वोट पाने वाले इन तमाम क्षेत्रीय दलों का अपने ही गढ़ में सूपड़ा साफ़ हो गया है । कहना गलत नहीं होगा कि यही वो समय है जब इन क्षेत्रीय दलों को इस बात पर आत्ममंथन करना चाहिए और ये समझना चाहिए कि अब जाति-धर्म-क्षेत्र आदि के सहारे वोट नहीं पाया जा सकता । अब जनता अधिकाधिक रूप से जागरूक हो रही है और वो महंगाई, भ्रष्टाचार जैसी चीजों से पीड़ित है, इसलिए वो उसे ही वोट करेगी जो इन चीजों के समाधान की बात करे, न कि कि जाति-धर्म की राजनीति में ही उलझा रहे ।
डीएनए 
 दरअसल, भारतीय राजनीति में खंडित जनादेश मिलने और गठबंधन सरकार के उद्भव के बाद से क्षेत्रीय दलों के शीर्ष नेताओं की तरफ से ब्लैकमेलिंग की राजनीति की शुरूआत की गई ब्लैकमेलिंग की राजनीति का मतलब है कि जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा आदि की राजनीति के द्वारा अपने क्षेत्र में कुछ सीटें निकाल लो और फिर केन्द्र में बनने वाली सरकार को समर्थन देने के बदले अपने लिए केन्द्र सरकार में कोई मलाईदार मंत्रालय या केन्द्र सरकार से अन्य किसी तरह का कोई लाभ ले लो । मुलायम सिंह यादव का देश का रक्षा मंत्री बनना हो या लालू-ममता का रेल मंत्री या अन्य कई छोटे-बड़े क्षेत्रीय नेताओं का केन्द्र में कोई बड़ा मंत्री बनना आदि तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जो कि क्षेत्रीय दलों की ब्लैकमेलिंग की इस राजनीति को उजागर करते हैं । हालांकि ब्लैकमेलिंग की ये राजनीति केवल क्षेत्रीय दलों तक ही सीमित नहीं रही, बीती यूपीए सरकार के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा भी सीबीआई के भय के जरिए क्षेत्रीय दलों के नेताओं को समर्थन देने के लिए ब्लैकमेल किया जाने लगा । बीती यूपीए सरकार को लाख भला-बुरा कहने के बावजूद माया-मुलायम का इसे बाहर से समर्थन दिए रहना, इस ब्लैकमेलिंग की राजनीति का ही एक लक्षण था । माया-मुलायम दोनों पर ही सीबीआई की तलवार लटक रही थी, जो कि केन्द्र सरकार के हाथों में है । ऐसे में समर्थन देने के बदले इनको सीबीआई जांच से राहत दी गई थी । कुल मिलाकर ब्लैकमेलिंग की इस राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का बहुत नुकसान किया है । इस राजनीति के चलते जन और तंत्र के बीच अविश्वास की एक खाई तो पैदा हुई ही है, अनावश्यक असहमतियों के कारण तमाम आर्थिक निर्णयों में भी समय दर समय अवरोध उत्पन्न हुआ है, जिस कारण आज देश की अर्थव्यवस्था डावाडोल हो रही है । बहरहाल, संभवतः उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए ही इस लोकसभा चुनाव में जनता ने न सिर्फ क्षेत्रीय दलों को सिरे नकार दिया, बल्कि स्थिर सरकार के लिए एक दल अर्थात भाजपा को अकेले पूर्ण बहुमत भी दे दिया । अब तो क्षेत्रीय दलों को ये स्वीकारना चाहिए कि अब कहीं भी, किसी भी दल का, कोई भी अपना मतदाता नहीं रह गया है, बल्कि अब हर मतदाता देश का है और उसका मत देश की प्रगति और सुरक्षा को समर्पित है । लिहाजा क्षेत्रीय दलों को अगर अपनी ये खिसकती जमीन बचानी है तो वे जाति-धर्म और ब्लैकमेलिंग की राजनीति से ऊपर उठें और विकास के लिए काम करें, अन्यथा उनके बचने का अब कोई उपाय नहीं है ।

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