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डीएनए |
इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि
यहाँ हर छोटी-बड़ी बात पर राजनीति हावी हो जाती है । हमारे सियासी हुक्मरान हर उस बात जिसमें उन्हें
चंद वोटों का लाभ होने व विपक्षियों को घेरने की संभावना दिखती है, को तुरंत
राजनीतिक रंग में रंग देते हैं । ताज़ा मामला उग्रवादी संगठनों द्वारा असम में की
गई हिंसा का है । दरअसल हुआ यों कि असम के कोकराझार व बकसा में लोकसभा चुनावों में
कथित तौर पर बोडो उम्मीदवार को वोट न देने के कारण प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन ‘एनडीबीएफ’
द्वारा बांग्लादेशी मुस्लिमों को मौत के घाट उतरा जाने लगा, जिसमे कि अबतक तकरीबन
३२ लोगों के जान गंवाने की बात सामने आयी है । आश्चर्य नहीं कि आगे यह संख्या और
बढ़े । हालांकि अब सेना व सीआरपीएफ आदि के जवानों के पहुँच जाने के कारण स्थिति पर
काफी हद तक नियंत्रण स्थापित हो चुका है । अब सेना आदि ने तो हिंसा को रोक स्थिति
को नियंत्रित कर अपना दायित्व बखूबी निभाया है । लेकिन दुर्भाग्य कि हमारे सियासी आका अपने दायित्व से
अलग इस हिंसा का राजनीतिक लाभ लेने की जुगत भिड़ाने में लगे हैं । इस हिंसा में मरे
लोगों के परिवारों की खैर-खबर लेने व सहायता देने, हिंसा के मूल कारणों को समझने व उनका कुछ ठोस निवारण तलाशने के
लिए मिल-बैठकर चर्चा करने से अलग हमारे सियासी हुक्मरानों द्वारा इस हिंसा पर भी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर
शुरू किया जा चुका है । हालांकि इस आरोप-प्रत्यारोप के खेल में मुख्य विपक्षी दल भाजपा
का उतना दोष नहीं है, जितना कि सत्तारुढ़ दल कांग्रेस का है । अब चूंकि, कांग्रेस असम
के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता में भी है, इसलिए इस हिंसा के प्रति सर्वाधिक जवाबदेही
उसीकी बनती है । लेकिन, वो तो जवाब देने की बजाय बड़े ही निराधार तरीके से विपक्षी
दल भाजपा व उसके पीएम दावेदार नरेंद्र मोदी को इस हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराने
में लगी है । कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने इस हिंसा के लिए भाजपा के पीएम पद के दावेदार
नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मोदी के चुनाव में आने के कारण देश
का माहौल साम्प्रदायिक हो गया है और ये हिंसा इसीका परिणाम है । इसके अलावा
केन्द्र में कांग्रेस की सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि असम में हिंसा
हुई, क्योंकि वहाँ नरेंद्र मोदी ने भाषण दिया था और लोगों को मुस्लिमों के खिलाफ
भड़काया था । अब इतने आरोप के बाद आखिर भाजपा को भी हिंसा पर हो रही इस राजनीति में
उतरते हुए पलटवार करना पड़ा । भाजपा की तरफ से रविशंकर प्रसाद ने असम में हुई हिंसा
की निंदा करते हुए कहा कि कांग्रेस इस हिंसा पर वोटों की राजनीति कर रही है । इन
सभी बयानों पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि कांग्रेस समेत उसके घटक दलों द्वारा
असम में हुई इस हिंसा की जवाबदेही से बचने के लिए सारा ठीकरा भाजपा पर फोड़ा जा रहा
है, जबकि भाजपा का इसमें कहीं से कोई रोल नहीं है । अब जो भी हो, पर इतना तो तय है
कि इन आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच असम हिंसा के कारण व उसके निवारण आदि पर चर्चा एकबार
फिर गौण सी हो गई है ।
वैसे ये कोई पहली बार
नहीं है जब हमारे सियासी हलके में हिंसा पर राजनीति हो रही हो, बल्कि ये तो इस देश
की राजनीति के लिए एक तरह से आम सी बात हो गई है । हमारे सियासी आकाओं अक्सर किसी
दंगे, हमले आदि में होने वाली मौतों के जाति-धर्म को आधार बनाकर राजनीति की जाती
रही है । इस राजनीति का उद्देश्य समुदाय विशेष के वोटों का अपनी ओर ध्रुवीकरण करना
होता है । नजीर के तौर पर देखें तो अभी पिछले साल ही यूपी के मुज़फ्फरनगर में हुए
दंगों में भी सियासत ने खूब जोर पकड़ा था । फिर चाहें वो सूबे की सत्तारूढ़ पार्टी
सपा हो या बसपा या भाजपा या फिर कांग्रेस, हर दल द्वारा इस दंगे के लिए एक दूसरे
को जिम्मेदार ठहराते हुए इसका राजनीतिक लाभ लेने की भरपूर कोशिश की गई । कांग्रेस
आदि तमाम राजनीतिक दलों के नेता इस दंगे के पीड़ितों से जाकर मिले और विपक्षियों को
कोसे । लेकिन, इन तमाम सियासी हो-हल्लों के बीच इस दंगे के लोगों की हालत अत्यंत
दयनीय बनी रही और काफी हद तक अब भी है । इसके अलावा आजादी के बाद से अबतक और भी
तमाम ऐसे दंगों से इतिहास भरा पड़ा है, जिनपर हमारे सियासी आकाओं द्वारा अपने सियासत
की रोटियां सेंकी गई और पीड़ितों को उनकी हालत में छोड़ दिया गया ।
दरअसल, हमारे सियासी
आकाओं द्वारा भारतीय राजनीति में ये समस्या पैदा कर दी गई है कि जब कहीं, कोई
हिंसा होती है, तो उसके पीड़ित, उत्पीड़क, कारण व निवारण की बजाय सियासी खींचतान
चर्चा का विषय बन जाती है । इस प्रकार पीड़ित हाशिए पर चले जाते हैं, उत्पीड़क क़ानून
के फंदे से आजाद रह जाता है, कारण गौण रह जाते हैं और निवारण निकल नहीं पाता । असम
हिंसा पर हो रही सियासत भारतीय राजनीति की इसी समस्या का एक ताज़ा उदाहरण है । हालांकि
अब जनता में जागरूकता आ रही है, जिससे लोग नेताओं के इन दाँव-पेंचों को समझने लगे
हैं । इस आम चुनाव में मतदान प्रतिशत में हुई बढ़ोत्तरी जनता में आ रही इसी
जागरूकता को दर्शाती है । उम्मीद की जा सकती है कि जैसे-जैसे ये जागरूकता बढ़ेगी,
नेताओं की इस मनमर्जी पर नियंत्रण लगेगा ।
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