गुरुवार, 8 मई 2014

भ्रष्टाचार पर न्यायालय का एक और वार [अमर उजाला कॉम्पैक्ट और आईनेक्स्ट इंदौर में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने एक ऐतिहासिक फैसले में वरिष्ठ नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के पूर्व सरकार से अनुमति लेने संबंधी ‘दिल्ली पुलिस इस्टेबलिशमेंट’ क़ानून की धारा ६-ए को असंवैधानिक व भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाली प्रवृत्ति से प्रेरित बताते हुए खारिज कर दिया गया । सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि भ्रष्टाचार निवारण क़ानून के तहत अपराध की जांच के मकसद से अधिकारियों को कत्तई वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, छोटा-बड़ा कोई भी अधिकारी हो, सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए । इसलिए हम धारा ६-ए को अवैध और संविधान के अनुच्छेद १४ का हनन करने वाली घोषित करते हैं । न्यायालय ने ये भी कहा कि धारा ६-ए के तहत जांच से पहले अनुमति लेना अप्रत्यक्ष तौर पर जांच में बाधा डालने जैसा है । सन २००३ में न्यायालय द्वारा धारा ६-ए को एकबार पहले भी खत्म किया गया था, लेकिन एक संशोधन के जरिए सरकार इसे पुनः ले आयी । इस संदर्भ में अगर इस धारा पर सरकार के पक्ष को जानने का प्रयास करें तो सरकार की तरफ से अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल के वी विश्वनाथ का तर्क है कि सरकार किसी भी भ्रष्ट नौकरशाह को कत्तई संरक्षण नहीं देना चाहती और ये प्रावधान (धारा ६-ए) सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वरिष्ठ नौकरशाहों से बगैर किसी समुचित सुरक्षा के पूछताछ नहीं की जा सके, क्योंकि वे नीति निर्धारण की प्रक्रिया में शामिल होते हैं । दरअसल, वरिष्ठ नौकरशाहों की जांच से पूर्व अनुमति लेने का ये मामला तकरीबन १७ साल पहले न्यायालय के संज्ञान में आया था । इस संबंध में पहली याचिका सन १९९७ में सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर की गई थी । इसके बाद सन २००४ में पुनः सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की तरफ से एक याचिका दायर की गई ।
अमर उजाला
   बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद अब नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की जांच में सीबीआई को काफी मदद मिलेगी । इससे पहले उसे किसी भी उच्च नौकरशाह की जांच के लिए सरकार से अनुमति मांगनी पड़ती थी । ऐसे में ये सरकार के विवेक पर निर्भर था कि वो किस मामले में जांच की अनुमति दे और किस मामले में नहीं दे । लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के धारा ६-ए को खारिज करने संबंधी इस निर्णय के बाद अब सीबीआई न सिर्फ वरिष्ठ नौकरशाहों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके जांच कर सकती है, बल्कि चार्जशीट दायर करने से लेकर आवश्यक होने पर उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है । कहने का अर्थ है कि इस निर्णय से सीबीआई की शक्तियों में काफी इजाफा हुआ है । दुसरे शब्दों में इसे सीबीआई की स्वायत्ता के संबंध में एक छोटा, किन्तु अच्छा कदम भी कह सकते हैं ।
  वैसे, अगर दिमाग पर जोर डालें तो स्पष्ट होता है कि ये कोई पहली दफा नहीं है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार पर चोट करने वाला कोई निर्णय लिया हो । अब से पहले भी कई दफे सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से भ्रष्टाचार की रोकथाम व व्यवस्था पारदर्शिता लाने से सम्बंधित तमाम निर्णय लिए जाते रहे हैं । फिर चाहें वो अभी हाल ही में काले धन के स्वामियों के नाम उजागर न करने के कारण सरकार को फटकार लगाना हो या बीते मार्च में भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर सरकारी मुलाजिमों को तत्काल नौकरी से निकाल दिए जाने का निर्णय हो अथवा  पिछले साल अक्तूबर में पार्षदों को भी भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून के दायरे में लाने का निर्णय हो ।
आईनेक्स्ट
इनके अलावा सरकार के मंत्रियों के २जी, कोयला घोटाला आदि भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में भी समय दर समय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच का संज्ञान लेते हुए तमाम दिशानिर्देश दिए जाते रहे हैं । साथ ही, सरकार के गलत निर्णयों, योजनाओं आदि पर भी न्यायालय द्वारा रोक लगाई जाती रही है । जैसे, अभी कुछ ही दिन पहले न्यायालय ने सरकार द्वारा तय ‘आधार’ की अनिवार्यता को समाप्त किया । सर्वोच्च न्यायालय की इन्ही गतिविधियों के कारण आज आम लोगों के बीच उसके प्रति काफी विश्वास बढ़ा है । लोगों में ये धारणा सी हो रही है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनती है और अपनी मनमर्जी करती है, तो उनके पास सर्वोच्च न्यायालय में जाने का एक मजबूत विकल्प है । अब जहाँ आम जन के बीच न्यायालय ने अपने प्रति भरोसा कायम किया है, वहीँ सरकार अपने कार्यों या अपने दायरों में न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण उससे काफी नाराज दिखती रही है । सरकार के कुछेक मंत्रियों की तरफ से कहा भी जाता रहा है कि न्यायपालिका अपने दायरे में रहे और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करे । पर सरकार की इन दलीलों से न्यायालय पर कोई विशेष प्रभाव हुआ हो, ऐसा नहीं कह सकते । अब जो भी हो, पर इतना तो तय है कि भ्रष्टाचार की समस्या को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से जिस तरह की गंभीरता दिखाई जाती रही है, उसके अनुपात में सरकार तनिक भी गंभीर नहीं दिखती । सरकार की तरफ से तो न्यायालय के निर्णयों को रोकने व बदलने के लिए ही कवायदें की जाती रही हैं, बल्कि एकाध निर्णयों को तो बदला भी गया है । जैसे, पिछले साल राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने वाले न्यायालय के निर्णय को सरकार द्वारा संविधान संशोधन के जरिए बदल दिया गया । इसके अलावा दागियों के चुनाव न लड़ने के न्यायालय के निर्णय को भी बदलने के लिए सरकार द्वारा अध्यादेश लाया गया था, पर संयोगवश सरकार इसमें सफल नहीं हो पाई । बहरहाल, वरिष्ठ नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए सीबीआई को छूट देने वाला न्यायालय का ये ताज़ा निर्णय भ्रष्टाचार पर एक बड़ी चोट सिद्ध हो सकता है, बशर्ते कि व्यवहारिक तौर पर इसका सही ढंग से क्रियान्वयन हो ।

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