मंगलवार, 14 जुलाई 2015

तुष्टिकरण के कुचक्र में प्रदेश [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत 
कॉम्पैक्ट

यह तो अनुभव सिद्ध बात रही है कि सपा सरकार जब भी यूपी में सत्ता में आई है तो यूपी में अपराध बढ़े हैं। लेकिन बावजूद इसके साल २०१२ में जब यूपी में चुनाव हुए तो मायावती की अहंकारी, विलासी, भ्रष्ट और तानाशाह जैसी छवि से त्रस्त प्रदेश की जनता ने भाजपा-कांग्रेस से इतर सपा को पूर्ण बहुमत देकर सिर्फ इसलिए विजयी बनाया कि उसके सामने अखिलेश यादव के रूप में एक युवा चेहरा था। प्रदेश की जनता को लगा कि यह युवा मुख्यमंत्री सपा शासन के पूर्व तौर-तरीकों से अलग, एक नए ढंग, नए जोश और नई ऊर्जा के साथ शासन को चलाएगा। लोगों को यह भी लगा कि अखिलेश यादव सपा शासन के पूर्व लक्षणों यथा जातीय तुष्टिकरण, पार्टी कार्यकर्ताओं को अनावश्यक संरक्षण आदि को नहीं अपनाएंगे और प्रदेश को एक बेहतर शासन-प्रशासन मिलेगा। लेकिन अखिलेश यादव के शासन की बागडोर संभालते ही उनके द्वारा जिस तरह से तमाम दागी नेताओं को अपनी कैबिनेट में जगह दी गई, उसने यूपी की जनता के भरोसे को पहला झटका दिया। सरकार  का पहला साल बीतते-बीतते सरकार के एक दागी मंत्री राजा भईया के विधानसभा क्षेत्र में एक डिप्टी एसपी जियाउल हक़ की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई जिसका इल्जाम राजा भैय्या पर लगा। भारी किरकिरी के बाद अखिलेश यादव पीड़ित परिवार से मिले और मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई। हालांकि बाद में जांच में राजा भैय्या को क्लीनचिट मिल गई। लेकिन इस पूरे प्रकरण में जिस तरह से यूपी सरकार अपने आरोपी मंत्री के साथ खड़ी रही, वो सूबे की जनता को हतप्रभ करने के लिए काफी था। फिर  वर्ष २०१३ में हुए मुज़फ्फरनगर दंगे जिसमे सैकड़ों लोग मरे, कितने घायल हुए और लगभग ५० हजार से ऊपर लोग बेघर हो गए, ने यूपी सरकार पर से प्रदेश की जनता का भरोसा पूरी तरह से उठा दिया। हद तो तब हो गई जब एक तरफ ये बेघर दंगा पीड़ित बदहाल राहत शिविरों में ठण्ड से ठिठुरते हुए रात काटने को मजबूर थे, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री समेत यूपी की  समाजवादी सरकार सैफई महोत्सव के नाम पर सरकारी पैसे की बर्बादी करने और नाच-गान देखने में मशगुल थी। इस प्रकरण में इस संवेदनहीनता के लिए यूपी सरकार की भारी किरकिरी हुई। इन सब घटनाक्रमों के बाद काफी हद तक स्पष्ट हो गया कि सपा के इस शासन में सिर्फ चेहरा बदला है, सूरत नहीं।
आज सपा शासन को लगभग तीन साल हो गए हैं। ऐसे में यदि यूपी के शासन-प्रशासन पर एक निगाह डालें तो स्थिति अत्यंत विकट नज़र आती है। हालत यह है कि प्रदेश में क़ानून व्यवस्था जैसी कोई चीज दूर-दूर तक नहीं दिखती। अपराध और अपराधियों का ही बोलबाला नज़र आता है। इन बातों को यदि आंकड़ों के जरिये समझने का प्रयास करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन २०१२ में सपा सरकार के सत्ता में आने के बाद विगत वर्षों के मुकाबले आपराधिक घटनाओं में प्रतिवर्ष केवल वृद्धि हुई है। वर्ष २०१२ में यूपी में हत्या जैसे जघन्य अपराध के ४९६६ मामले सामने आए तो वहीँ २०१३ में इनकी संख्या बढ़कर ५०५७ हो गई। २०१४ में सभी तरह के अपराध मिलाकर लगभग ३४ हजार आपराधिक घटनाएं हुईं। इस वर्ष की बात करें तो शुरुआत के सिर्फ तीन महीनों में ही यूपी में १३०० हत्या के मामले दर्ज किए जा चुके हैं। अभी ये सिर्फ वे मामले हैं जिनकी प्राथमिकी थानों में दर्ज हुई है। अभी जाने कितने मामले ऐसे होंगे जिनमे प्राथमिकी ही दर्ज नहीं हुई। इन आंकड़ों के बाद यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि यूपी में क़ानून का नहीं अपराधियों का राज रह गया है। अब एक तरफ प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की हालत  ऐसी है और दूसरी तरफ प्रदेश सरकार पुलिस प्रशासन में जातीय तुष्टिकरण का तिकड़म भिड़ाने में लगी है। प्रदेश सरकार के इस तुष्टिकरण की चर्चा तो रहती ही थी, लेकिन इस सम्बन्ध बड़ी हलचल तब सामने आई जब  अभी हाल ही में यूपी के बाराबंकी में एक महिला को थाने में थानेदार द्वारा बलात्कार कर जिन्दा जला दिया गया। ये थानेदार साहब यादव जाति के थे। इस मामले में जब प्रदेश सरकार की बहुत किरकिरी होने लगी तो थानेदार को उनके पद से हटाते हुए उनपर हत्या का मुकदमा तो दर्ज हुआ, लेकिन उनकी जगह भगवती प्रसाद यादव यानी फिर एक यादव थानेदार की ही नियुक्ति कर दी गई। इस मामले पर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल बसपा की प्रमुख मायावती द्वारा सपा सरकार पर आरोप लगाया गया कि वे यादव तुष्टिकरण करने में लगे हैं, इसी कारण बाराबंकी मामले में थानेदार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। यादव तुष्टिकरण के इस आरोप के सम्बन्ध में एक समाचार चैनल की पड़ताल पर गौर करें तो फिलवक्त यूपी के कुल ७५ जिलों के १५२६ थानों में से ६०० थानों पर यादव थानेदार नियुक्त हैं। तिसपर इनमे से कितने  थानेदार तो इतने सिर चढ़े हैं कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों तक की भी नहीं सुनते। कितनों के तो मुलायम और अखिलेश यादव से सम्बन्ध होने की बात सामने आई है। यह भी आरोप लग रहा है कि इन यादव थानेदारों की नियुक्ति के लिए अखिलेश सरकार नियुक्ति के नियमों में ढील दे रही है। इसके अतिरिक्त इसे महज संयोग कहें या तुष्टिकरण का एक और नज़ारा कि प्रदेश पुलिस के वर्तमान महानिदेशक जगमोहन यादव भी यादव जाति के हैं। इन तथ्यों के बाद इस बात से इंकार करने की कोई वजह नहीं है कि राज्य में जातीय तुष्टिकरण हो रहा है। फिलवक्त तस्वीर यही है कि प्रदेश में अपराध अपने उफान पर हैं, जबकि पुलिस व्यवस्था तुष्टिकरण की भेंट चढ़ती जा रही है।
  उत्तर प्रदेश में यह जातीय तुष्टिकरण कत्तई नया नहीं है। आज विपक्ष में बैठकर मायावती भले अखिलेश सरकार पर यादव तुष्टिकरण का आरोप लगा रही हैं, लेकिन यदि अपने गिरेबां में झांकें तो उन्हें मालूम चलेगा कि जब वे शासन में होती हैं तब भी ये तुष्टिकरण तो होता ही है। फर्क इतना होता है कि तब ‘यादव’ की जगह ‘दलित’ लग जाता है। शासन किसीका भी रहे, तुष्टिकरण के कारण सर्वाधिक पिसना प्रदेश की जनता को पड़ता है और फ़िलहाल भी यही हो रहा है। अब प्रश्न यह है कि क्या देश की सर्वाधिक आबादी तथा सर्वाधिक लोकसभा और विधानसभा सीटों वाले सूबे की नियति यही है कि वो तुष्टिकरण के कुचक्र में पिसता रहे ? बहरहाल, उचित होगा कि अखिलेश यादव अब संभल जाएं क्योंकि प्रदेश की जनता ने अपने गुस्से का एक परिचय तो लोकसभा चुनाव में दे ही दिया है, लेकिन फिर भी यदि यही हाल रहा तो संदेह नहीं कि दो वर्ष बाद होने वाले  विधानसभा चुनाव में अखिलेश सरकार का भी वही हश्र होगा जो पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती सरकार का हुआ था। 

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