शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

परस्पर सद्भावना ही है विकास की कुंजी

  • पीयूष द्विवेदी भारत

आज देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जयंती है, जिसे प्रति वर्ष सद्भावना दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में इस तरह कई पूर्व प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों व अन्य सम्मानित व्यक्तियों के जन्मदिन पर कोई न कोई दिवस निर्धारित किए गए हैं। सद्भावना दिवस की बात करें तो यह कहना होगा कि सद्भावना कोई ऐसा विषय नहीं है कि इसे किसी एक दिन में सीमित कर दिया जाए। सद्भावना तो किसी भी सभ्य समाज के लिए ऑक्सीजन की तरह होती है, जिसके बिना कोई समाज लम्बे समय तक जिन्दा नहीं रह सकता। ये ऐसी चीज है, जिसकी जरूरत हमें हर दिन और हर घड़ी है।

इस संदर्भ में भारत की बात करें तो यह ठीक है कि यहाँ आज भी बड़ी संख्या में लोग अपनी तमाम विविधताओं के बावजूद परस्पर सद्भावना, भाईचारे और प्रेम के साथ रहते हैं, लेकिन कुछ ख़बरें ऐसी भी आती रहती हैं जो देश के शांति-सद्भाव को लेकर चिंता पैदा करती हैं। गौर करें तो लगभग रोज ही अखबार के पन्नों और टीवी न्यूज़ की हेडलाइनों में हम देश में जहां-तहां होने वाली हिंसा और लड़ाई-झगड़े की कमोबेश ख़बरें देखते रहते हैं। कितने बार तो ऐसी खबरें भी दिखती हैं, जिनमें बेहद छोटी और सामान्य-सी बात पर लोग आपस में भिड़कर एकदूसरे को नुकसान पहुंचा लिए होते हैं। ताजा उदाहरण के तौर पर अभी बेंगलुरु में हमने देखा कि कैसे एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर हिंसा और अराजकता का तांडव मचा दिया गया। छोटी-छोटी बातों पर समाज में भड़कने वाली हिंसा की ऐसी घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं, बस इनके किरदार बदल जाते हैं। इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर आए दिन अलग-अलग मुद्दों पर होने वाली बहसों व टिप्पणियों में प्रधानमंत्री से लेकर अन्य तमाम प्रतिष्ठित व्यक्तियों के प्रति लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को देखकर भी समाज की स्थिति का कुछ कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। और तो और, पारिवारिक स्तर पर भी हाल ये है कि अभी सप्ताह भर पूर्व आई एक खबर के मुताबिक़, बाराबंकी जिले में छोटे भाई ने साले के साथ मिलकर जरा-सी कहासुनी में बड़े भाई की हत्या कर दी। ऐसी ख़बरें भी अब आए दिन देखने-सुनने को मिलने लगी हैं। इन सब बातों का तात्पर्य यही है कि देश में चाहें समग्र समाज की बात हो या उसकी एक इकाई परिवार की, हर स्तर पर लोगों में परस्पर द्वेष, दुर्भावना और घृणा की मात्रा बढ़ रही है, जिसके परिणामस्वरूप वे एकदूसरे को मरने-मारने तक पर उतर जा रहे हैं। इस स्थिति का समाधान एक ही है कि समाज में अधिक से अधिक सद्भावना का प्रसार हो और यह तभी होगा जब प्रत्येक व्यक्ति, एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी को न सिर्फ समझेगा बल्कि उसका ईमानदारी से निर्वहन भी करेगा।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

किसी भी देश और समाज के विकास की एक प्रमुख शर्त यह होती है कि वहाँ शांति हो और शांति के लिए सबसे जरूरी चीज समाज के लोगों में परस्पर सद्भाव का होना है। जिस समाज के लोगों में सद्भाव और प्रेम का अभाव होगा, वो कभी सही अर्थों में विकास नहीं कर सकता। उदाहरण के तौर पर हम पाकिस्तान, सीरिया जैसे देशों को देख सकते हैं, जहां न तो शांति है और न ही विकास। फिजूल की हिंसा में ये देश बर्बाद हो रहे हैं।   

अफ्रीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने सद्भावना के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है, ‘जब लोग सद्भावना के साथ मिल जाते हैं और अपने मतभेदों को सबकी भलाई, शांति और समस्याओं के उचित समाधान के लिए ख़त्म कर देते हैं, तो उन समस्याओं का समाधान भी मिल जाता है जो दुसाध्य लग रही होती हैं।’ यह एकदम सच्ची और व्यावहारिक बात है। यदि लोग अपने मतभेदों से ऊपर समाज की भलाई को रखने लगें तो कोई मतभेद सद्भावना और विकास का मार्ग नहीं रोक सकता। एक सभ्य समाज से अपेक्षा भी यही होती है कि उसमें लोग मिल-बैठकर बातचीत से किसी भी समस्या के समाधान का रास्ता निकालें। यह बात भारतीय विदेश व रक्षा नीति का भी अंग बनी हुई है, जिस कारण सरकार अक्सर सीमा विवाद आदि मसलों को बातचीत से सुलझाने पर जोर देती रहती है। वस्तुतः भारत का प्रयास यही रहता है कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के साथ, हम दुनिया के देशों से अपने संबंधों को भी सद्भावपूर्ण रख सकें और किसी प्रकार के मतभेद के कारण उनमें खटास न पैदा हो। आजादी के बाद से देश की विदेश व रक्षा नीति का मूलभूत स्वरूप यही रहा है और आज भी, थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कायम है। 

कुल मिलाकर बात यही है कि चाहें वो विश्व समाज हो या किसी देश का समाज अथवा कोई एक परिवार ही क्यों न हो, ये सब तभी विकास कर सकते हैं, जब इनके सदस्यों के बीच आपस में सद्भावपूर्ण सम्बन्ध हों। इस अर्थ में कह सकते हैं कि सद्भावना ही विकास की कुंजी है। 

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