- पीयूष द्विवेदी भारत
गत 29 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में बहुप्रतीक्षित नयी शिक्षा नीति को मंजूरी दे दी गयी। इसके साथ ही लगभग साढ़े तीन दशक बाद देश की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की जमीन तैयार हो गयी है। नयी शिक्षा नीति को लेकर मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल से ही कवायदें चल रही थीं, लेकिन कई बार शिक्षा मंत्रालय में परिवर्तन के कारण मामला अटकता रहा था। आखिरकार अब यह काम अपने अंजाम को पहुँच गया है और देश को नयी शिक्षा नीति मिल गयी है।
यूँ तो इस शिक्षा नीति में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा
तक कई आमूलचूल बदलाव किए गए हैं, जिनका भारतीय भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक
प्रभाव पड़ना निश्चित है। लेकिन इसका एक
प्रावधान कि कम से कम कक्षा
पांच तक की पढ़ाई मातृभाषा या किसी भी भारतीय भाषा में करवाई जाएगी, की विशेष रूप
से चर्चा हो रही है। इस नियम के जरिये सरकार का उद्देश्य शिक्षा को अंग्रेजी के प्रभाव
से मुक्त करना तथा बच्चों को भारतीय भाषाओं से जोड़ना है। इसके अलावा संस्कृत को भी
हर स्थान पर एक विकल्प के रूप में रखा जाएगा ताकि छात्र चाहें तो उसका भी अध्ययन
कर सकेंगे।
जाहिर
है, इस व्यवस्था से भारतीय भाषाओं को मजबूती मिलेगी और देश के शिक्षा जगत में
अंग्रेजी का दबदबा कम होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नयी शिक्षा नीति से
सम्बंधित अपने एक ट्विट में इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘एक भारत,
श्रेष्ठ भारत पहल के तहत इसमें संस्कृत समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाएगा।’ लेकिन भारतीय
भाषाओं को बढ़ावा देने वाली इस व्यवस्था को लेकर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। कहा जा
रहा कि शिक्षा जगत के लिए ये भाषा नीति व्यावहारिक व उचित नहीं है, क्योंकि इस तरह बच्चों की अंग्रेजी कमजोर रह जाएगी
जिसका नुकसान उन्हें भविष्य में रोजगार के क्षेत्रों में उठाना पड़ेगा। लेकिन ऐसा कहने वाले लोग भूल रहे हैं कि
इस नियम में कहीं भी अंग्रेजी की पढ़ाई बंद करवाने की बात नहीं है, बल्कि भारतीय
भाषाओं को मजबूती देने की भावना है। एक विषय के रूप में बच्चे पांचवीं तक भी
अंग्रेजी पढ़ेंगे और पांचवीं के बाद यदि वे चाहें तो अंग्रेजी माध्यम से भी पढ़ सकते
हैं। अतः इससे बच्चों के अंग्रेजी ज्ञान में कमजोरी की कोई संभावना नहीं है। इससे
बस इतना होगा कि बच्चों का पहला और घनिष्ठ परिचय अपने देश की भाषा से होगा और
शुरूआती तौर पर अंग्रेजी के अनावश्यक प्रभाव में आने से बच जाएंगे। एक भाषा के रूप
में इस शिक्षा नीति का अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है, इसकी मंशा केवल भारतीय
भाषाओं को मजबूत करने की है।
अंग्रेजी
माध्यम के समर्थन में दूसरा तर्क यह दिया जा रहा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं
में ज्ञान-विज्ञान के विषयों से संबंधित उत्तम पाठ्यसामग्री का अभाव है। दरअसल
आजादी के बाद भी यही तर्क देकर सरकारी व न्यायालयी कामकाज में अंग्रेजी को रहने
दिया गया था। तब कहा यह गया कि जब हिंदी में इन क्षेत्रों से सम्बंधित सामग्री
तैयार हो जाएगी तो अंग्रेजी को हटा दिया जाएगा, लेकिन ये चीज अबतक नहीं हो सकी है।
अंग्रेजी इन क्षेत्रों से हटी तो नहीं, बल्कि और मजबूती से स्थापित हो गयी और आज
ऐसी स्थिति में है कि अब उसे हटाना लगभग असंभव ही प्रतीत होने लगा है।
वैसे हिंदी भाषा में ज्ञान-विज्ञान की बेहतर
पाठ्यसामग्री न होने की बात उच्च शिक्षा के संदर्भ में सही है, परन्तु प्राथमिक
शिक्षा के संदर्भ में इसे एकदम से ठीक नहीं कहा जा सकता। हिंदी माध्यम विद्यालयों
में पढ़ने वाले छात्रों की पाठ्यसामग्री देखने पर पता चलता है कि काफी सहज व सरल
हिंदी में विज्ञान, भूगोल, गणित आदि
की विषय पुस्तकें मौजूद हैं। आज के इस तकनीक संपन्न समय में अन्य भारतीय भाषाओं
में भी इस तरह की पाठ्यसामग्री तैयार करना कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है।
इसके बावजूद यदि एकबार के लिए मान लें कि हिंदी सहित अन्य
भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की अपेक्षित सामग्री नहीं है, तो उसके कारण क्या
भारत को अपनी भाषाओं को यूँ ही छोड़ देना चाहिए? जो कमी है, उसे दूर करने की बजाय
यथास्थिति के आगे हाथ जोड़ लेने की आजादी के बाद से चली आ रही विसंगति को क्या हमने
अपनी नियति मान लिया है? अगर आजादी के बाद से ही भारतीय भाषाओं को शिक्षा क्षेत्र
में मजबूती देने का यत्न किया गया होता तो आज यह समस्या होती ही नहीं, परन्तु तब
नहीं हुआ तो क्या अब भी नहीं होना चाहिए। सरकार ने अब ऐसी मंशा दिखाई है, जो कि
सराहनीय है। अतः इस निर्णय के विरोध का कोई मतलब नहीं है।
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