गुरुवार, 12 जुलाई 2018

अभिव्यक्ति की अराजकता का शिकार सोशल मीडिया [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

आज सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के ऐसे विकसित मंच के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जहां सबकुछ गोली की तरह तेज और तुरंत चलता है। यहाँ जितनी तेजी से विचारों का प्रवाह होता है, उतनी ही तीव्रता से उनपर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं और उनका प्रसार भी होता जाता है। मीडिया के पारम्परिक माध्यमों में ऐसी तीव्रगामी प्रतिक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है, परन्तु सोशल मीडिया इस मामले में विशिष्ट है। इसकी इस विशिष्टता के अच्छे और बुरे दोनों परिणाम सामने आने लगे हैं।

कुछ हालिया मामले
सोशल मीडिया के सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में भारतीय रेल से सम्बंधित एक ताजा मामला उल्लेखनीय होगा जिसमें एक यात्री द्वारा सोशल मीडिया के सूझबूझ भरे उपयोग ने 26 बच्चियों का जीवन नष्ट होने से बचा लिया। ख़बरों की मानें तो गत 5 जुलाई को अवध एक्सप्रेस से सफर कर रहे आदर्श श्रीवास्तव को अपनी बोगी में मौजूद कुछ लड़कियों की डरी-सहमी स्थिति देखकर संदेह हुआ। इसपर उन्होंने अपनी लोकेशन बताते हुए इस संबंध में प्रधानमंत्री, रेल मंत्री, योगी आदित्यनाथ को टैग करके एक ट्विट किया जिसके बाद आरपीएफ ने कार्यवाही कर तस्करी के लिए ले जाई जा रहीं उन बच्चियों को बचा लिया तथा जिम्मेदार शख्स की गिरफ़्तारी भी हुई। इस मामले के सामने आने के बाद से ही आदर्श श्रीवास्तव को हर तरफ शाबासी दी जा रही और निस्संदेह उन्होंने काम भी शाबासी के लायक किया है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि वे यह सब कर सके तो सिर्फ इसलिए कि उनके पास सोशल मीडिया जैसा संचार का समुन्नत साधन था। ये तो बात हुई सोशल मीडिया के सकारात्मक परिणामों की, अब हाल ही में सामने आए इसके कुछ नकारात्मक परिणामों पर नजर डालते हैं।
सोशल मीडिया के नकारात्मक परिणामों के विषय में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से सम्बंधित प्रकरण का उल्लेख समीचीन होगा। पिछले दिनों अनस सिद्दीकी और तन्वी सेठ नामक एक अंतर्धर्मी दम्पति द्वारा पीएमओ, विदेश मंत्रालय आदि को ट्विट करके लखनऊ के एक पासपोर्ट अधिकारी विकास मिश्रा पर आरोप लगाया गया था कि पासपोर्ट अधिकारी ने उनसे धार्मिक आधार पर सवाल पूछे तथा उन्हें परेशान किया। हालांकि विकास मिश्रा का कहना था कि उन्होंने सिर्फ प्रक्रियाओं से जुड़े प्रासंगिक सवाल ही पूछे थे। लेकिन इस मामले के सामने आने के बाद केवल दम्पति को पासपोर्ट उपलब्ध कराया गया, बल्कि विकास मिश्रा का तबादला भी हो गया। इसके बाद सोशल मीडिया पर लोगों में सुषमा स्वराज के प्रति जो विरोध उभरा उसने अभिव्यक्ति की समस्त मर्यादाओं को तार-तार कर दिया। ये ठीक है कि पासपोर्ट अधिकारी विकास मिश्रा के खिलाफ कार्यवाही एकपक्षीय निर्णय लगता है और इस मामले की प्रकृति ऐसी थी कि इसमें विरोध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन विरोध जताने का तरीका सभ्य और शालीन होना चाहिए। परन्तु, सुषमा स्वराज को इस मामले के बाद जिस तरह से सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया, उसने इस माध्यम के एक नकारात्मक परिणाम को ही उजागर किया है।

ऐसे ही कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी को उनकी बेटी के बलात्कार की धमकी देते हुए किसी ट्रोल ने एक ट्विट किया, जिसके बाद उन्होंने शिकायत की और इस मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए ट्विट करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रियंका चतुर्वेदी कांग्रेस की बड़ी नेता हैं, इसलिए उन्हें धमकी मिली और आनन-फानन में कार्यवाही हो गयी। ऐसे ही सुषमा स्वराज की ट्रोलिंग भी चर्चा का विषय बन गयी। लेकिन आज सोशल मीडिया नामक इस मंच का जो वैचारिक स्वरूप हो चला है, उसमें आए दिन तमाम लोगों को कम-ज्यादा मात्रा में ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है, जिसकी तो कोई चर्चा होती है और ही इसपर कोई कार्यवाही की बात ही सामने आती है। 

सूचनाओं का संकट
ट्रोलिंग के अलावा सोशल मीडिया की एक बड़ी समस्या इसका सूचनाओं का संकट पैदा करते जाना है। सोशल मीडिया को जब सूचना-क्रांति के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में देखा जा रहा है, ऐसे में इसपर प्रसारित सूचनाओं के प्रमाणन की कोई व्यवस्था होना केवल इसकी विश्वसनीयता को कम करने वाला है, बल्कि इससे चिंताजनक स्थिति भी पैदा हो रही है। ऐसा बिलकुल नहीं कह रहे कि सोशल मीडिया पर प्रचारित-प्रसारित सभी सूचनाएं गलत ही होती हैं, लेकिन ये अवश्य है कि इसपर मिथ्या और भ्रामक सूचनाओं की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है जो कि जब-तब किसी बड़ी वारदात की वजह बन जाती है। बीते दिनों इसी संदर्भ में सरकार द्वारा फेसबुक के स्वामित्व वाली मैसेजिंग एप कंपनी ह्वाट्स एप को भ्रामक और झूठी सूचनाओं को रोकने के लिए निर्देश दिए गए थे।

दरअसल कहीं घटना थोड़ी-सी होती है और सोशल मीडिया पर उसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाने लगता है। अलग-अलग विचारों और विचारधारा वाले लोगों द्वारा घटना की मनोनुकूल और गैर-जमीनी व्याख्या की जाने लगती है। इस सम्बन्ध में कठुआ प्रकरण उल्लेखनीय होगा जिसमें सोशल मीडिया पर केवल भ्रामक तथ्यों का प्रचार-प्रसार हुआ बल्कि धर्म विशेष का अपमान करने वाले अभद्रतापूर्ण कार्टून आदि भी साझा किए जाते रहे। त्रासद यह भी था कि इन भ्रामक सूचनाओं को प्रसारित करने में मुख्यधारा मीडिया के कुछेक वरिष्ठ पत्रकारों के नाम भी शामिल रहे। दैनिक जागरण द्वारा इस मामले पर एक जमीनी रिपोर्ट करके वास्तविक तथ्यों को प्रस्तुत किया गया था, जिससे वस्तुस्थिति काफी हद तक साफ़ हुई।

ऐसे ही गत वर्ष हुई पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या का प्रकरण भी इसी तरह का एक उदाहरण है जिसमें पुलिस की शुरूआती जांच अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची थी, लेकिन सोशल मीडिया पर एक वैचारिक धड़े से सम्बंधित लोगों द्वारा इस हत्या के लिए हवा-हवाई ढंग से संघ-भाजपा को जिम्मेदार बताया जाने लगा था। इसी प्रकार देश में होने वाले दंगे-फसाद के मामलों में भी सोशल मीडिया की भूमिका प्रायः आग में घी की ही साबित होती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सूचना-संचार की जिस तीव्रगामी व्यवस्था को सोशल मीडिया की सबसे बड़ी अच्छाई माना जा रहा था, वो अब धीरे-धीरे इसकी एक बड़ी बुराई का रूप लेती जा रही है।

अभिव्यक्ति का अतिरेक
सोशल मीडिया से सम्बंधित उक्त समस्याओं पर विचार करने पर प्रमुख निष्कर्ष यह निकलता है कि सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के अतिरेक का शिकार होता जा रहा है। दरअसल सूचना और सम्प्रेषण का यह माध्यम आज एक ऐसी शक्ति के रूप में मौजूद है, जिसके द्वारा पलक झपकते ही मात्र एक क्लिक के द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को लाखों-करोड़ों लोगों तक केवल पहुँचा सकता है, बल्कि तमाम प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त कर सकता है। सम्प्रेषण और संचार की इस सहजता ने स्वाभाविक रूप से व्यक्ति में अभिव्यक्ति की भावना को प्रबल किया है। लेकिन इसीके साथ अब लोग फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम आदि विविध तकनीकी संचार माध्यमों के द्वारा अपने विचारों और भावों को अनेक प्रकार से अभिव्यक्त कर अधिकाधिक प्रतिक्रियाएं प्राप्त करने की लालसा का शिकार भी होने लगे हैं।

अधिकाधिक प्रतिक्रियाओं की इस लालसा से ही अभिव्यक्ति के अतिरेक का जन्म होता है। जब व्यक्ति के पास कहने के लिए कुछ नहीं रहता, लेकिन प्रतिक्रियाओं की लालसा बनी रहती है, तो वो अभिव्यक्ति के अतिरेक का शिकार हो जाता है, जिसके आवेग में उसकी विवेकशक्ति बह जाती है और यहीं से अविचारित-अमर्यादित अभिव्यक्ति से लेकर भ्रामक सूचनाओं के प्रचार-प्रसार तक सोशल मीडिया के विविध नकारात्मक परिणामों का जन्म होता है।     

क्या है समाधान ?
प्रश्न यह उठता है कि सोशल मीडिया की उपर्युक्त समस्याओं का समाधान क्या है ? कानून और तकनीकी, इन दो स्तरों पर सोशल मीडिया की समस्याओं के समाधान लिहाज से विचार किया जा सकता है। कानूनी दृष्टि से तो कुछ काम हुआ भी है जैसे कि साइबर क्राइम विभाग के रूप में इंटरनेट से सम्बंधित हर प्रकार के अपराध की शिकायत के लिए एक पूरा तंत्र बना हुआ है, लेकिन ये प्रभाव में तब आता है जब कोई शिकायत इसके पास पहुँचती है। इस कारण ये सोशल मीडिया की समस्याओं का समाधान करने में बहुत कारगर नहीं हो पाता। सोशल मीडिया की अभिव्यक्ति को विनियमित करने के लिए अलग-अलग समय पर सरकार की तरफ से भी विभिन्न दिशानिर्देश भी जारी किए जाते रहे हैं, परन्तु इसका भी कोई ख़ास प्रभाव नहीं दीखता।

ऐसे में, प्रतीत होता है कि सोशल मीडिया की समस्याओं का समाधान तकनीकी तौर पर तलाशा जाए। ये कार्य तभी हो सकेगा जब इसमें सरकार और सोशल मीडिया के फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप जैसे उपक्रम मिलकर काम करेंगे। सरकार कानूनी पहलुओं को देखे और तकनीकी पहलुओं का कार्य सोशल मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को सौंप दिया जाए। फेसबुक-ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइट्स को अपने मंच पर आने वाली सामग्री के यथासंभव प्रमाणन की व्यवस्था विकसित करने के लिए सख्ती से निर्देश देने की जरूरत है। इसके अलावा अभद्र-अश्लील शब्दों चित्रों का एक निश्चित प्रारूप चिन्हित कर उसे स्थायी रूप से अवरोधित (ब्लॉक) करने तथा अस्पष्ट वस्तुस्थिति वाले संवेदनशील मसलों से सम्बंधित सामग्रियों को स्थिति स्पष्ट होने तक अवरुद्ध रखने जैसे उपायों को भी अपनाने की दिशा में काम किया जा सकता है। तकनीकी विशेषज्ञों से राय लेने पर और भी उपाय सामने सकते हैं, बशर्ते कि इस विषय में गंभीर हुआ जाए। यह सही है कि सोशल मीडिया का स्वरूप ऐसा है कि उसपर नियंत्रण का कोई भी तंत्र पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो सकता, लेकिन यथासंभव नियंत्रण की दिशा में प्रयास अवश्य किया जा सकता है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया भारत में अभी अपने यौवनोत्कर्ष पर है, इसलिए उसकी आक्रामकता स्वाभाविक है, परन्तु उसे अपनी मर्यादाओं और जिम्मेदारियों को भी समझना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझते हुए उसका दुरुपयोग करने से बचने की जरूरत है। ऐसा हो कि सोशल मीडिया के धुरंधरों की ये नादानियाँ सत्ता को इस माध्यम पर पूर्ण या असीमित अंकुश लगाने का अवसर दे बैठें।

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