गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

समान नागरिक संहिता के पेंच [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि वो समान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में क्या कर रही है। न्यायालय ने कहा है, “पूरी तरह से भ्रम की स्थिति है । हमें समान नागरिक संहितापर काम करना चाहिए। इस के साथ क्या हुआ ? अगर आप (सरकार) इसे लागू करना चाहते हैं तो तैयार करके लागू क्यों नहीं करते ?’’ जवाब देने के लिए अदालत ने सरकार को तीन सप्ताह का समय दिया है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह बात कही। दिल्ली के एक व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करते हुए इसाई व्यक्तियों को तलाक के लिए दो वर्ष इंतज़ार के लिए मजबूर किए जाने वाले कानूनी प्रावधान को चुनौती दी थी, क्योंकि अन्य धर्मों के लिए यह अवधि एक वर्ष है।  इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने समान नागरिक संहिता पर चिंता जताते हुए इसपर सरकार से स्पष्ट राय रखने को कहा है। अब यह तो देखने वाली बात होगी कि सरकार इसपर क्या राय रखती है। पर फिलहाल केन्द्रीय क़ानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा है कि समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है, लेकिन साथ में वे यह भी जोड़ गए कि इस मामले पर सबसे विचार-विमर्श करके ही कुछ निर्णय लिया जाएगा। अब चूंकि इस क़ानून को लेकर मौजूदा भाजपानीत राजग सरकार से उम्मीद इसलिए अधिक है कि यह मुद्दा भाजपा के घोषणापत्र से लेकर चुनावी एजेंडे तक प्रमुख रहा है।
दैनिक जागरण 
  इसी संदर्भ में अगर एक नज़र समान नागरिक संहिता पर डालें तो इसका तात्पर्य देश के सभी नागरिकों चाहें वे किसी धर्म या क्षेत्र के हो, के लिए एक समान नागरिक कानूनों से है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी व्यक्तिगत कानूनों से ऊपर होता है। चूंकि भारत में सभी निजी क़ानून धार्मिक आधार पर निर्धारित हैं। हिन्दू-बौद्ध-सिक्ख-जैन आदि हिन्दू विधियों से संचालित हैं तो वहीँ मुस्लिमों और इसालियों के अपने क़ानून हैं। हिन्दुओं के अपने तो मुस्लिम समुदाय के अपने व्यक्तिगत नागरिक क़ानून हैं। जैसे हिन्दुओं में खाप पंचायत जैसी चीजें हैं तो वहीँ मुस्लिमों में शरिया इसका उदाहरण है। खाप पंचायतें अक्सर अपने तालिबानी फरमानों के लिए चर्चा में रहती हैं तो वहीँ शरिया के अनुसार दोषी को दंड के रूप में हाथ काटने से लेकर पत्थर से मार-मारकर मार डालने जैसा कायदा है। ऐसे ही सभी समुदायों के शादी आदि के भी अपने कायदे हैं। ऐसे ही ईसाईयों के भी अपने निजी क़ानून हैं। इन सब विविधताओं के मद्देनज़र अक्सर यह आवाज उठती रहती है कि देश समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। पर इसको लेकर इसाई और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय असुरक्षा महसूस करता रहा है। दरअसल मुस्लिमों को यह भय इसलिए भी अधिक होता है कि हिन्दुत्ववादी एजेंडे के लिए मशहूर भाजपा इसकी बात करती है। मुस्लिमों को लगता है कि समान नागरिक संहिता के रूप में हिन्दू नागरिक विधियों को लागू करके मुस्लिम संस्कृति को ध्वस्त किया जाएगा। लेकिन विचार करें तो यह चीज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कहीं से संभव नहीं दिखती। भारत में ऐसा कोई क़ानून जिसमे  अन्य समुदायों पर हिन्दू नागरिक कानूनों को थोपने की बात हो, का पारित होना आसान नहीं है। इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि अल्पसंख्यक भय बेवजह और निर्मूल ही है।
   समान नागरिक संहिता न केवल भारतीय संविधान के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुसार सही है, वरन वर्तमान समय में इसकी प्रबल आवश्यकता भी दिखाई देती है। अगर सर्वसहमति से समान नागरिक संहिता लागू हो जाय तो इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि देश को आए दिन अलग-अलग धार्मिक प्रथाओं, परम्पराओं के कारण उपजने वाले साम्प्रदायिक विद्वेष से मुक्ति मिल सकेगी। जब सबके लिए समान जीवन पद्धति सुनिश्चित रहेगी तो सब उसीपर चलेंगे और फिर किसीको किसीसे कोई धार्मिक विरोध नहीं रह जाएगा। इसके साथ ही सभी धम्रों खासकर इस्लाम में स्त्रियों की रहन-सहन और शिक्षा आदि को लेकर जो कठोर और तुगलकी कायदे अब भी जारी हैं, उनसे भी उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। समान नागरिक संहिता दुनिया के अधिकांश आधुनिक और प्रगतिशील देशों में लागू है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में तो इसे काफी पहले ही आ जाना चाहिए था। खैर! जो देरी हुई सो हुई, पर अब जब इसको लागू करने की बात करने वाली भाजपा सत्ता में है तो उसे अब इसपर और देरी नहीं करनी चाहिए। यह समय की ज़रूरत है और अदालत ने भी अपने निर्णय में उस ज़रूरत को देखते हुए ही इसे लागू करने को लेकर चिंता जताई है। सही होगा कि हमारे हुक्मरान अदालत की चिंता को समझते हुए कदम उठाएं।

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