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दबंग दुनिया |
विगत दिनों एक तरफ
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पर्यावरण संरक्षण के लिए मशहूर कैलिफोर्निया
के गवर्नर के बीच भारत में वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से निपटने पर चर्चा हो
रही थी, तो वहीँ दूसरी तरफ देश की राजधानी दिल्ली के छः से चौदह महीने तक के तीन दुधमुंहे
बच्चे सर्वोच्च न्यायालय में वायु प्रदूषण पर रोकथाम से सम्बंधित याचिका दाखिल कर
रहे थे। याचिका में मांग की गई है कि अधिकृत संस्थाओं को दिल्ली में पटाखों आदि के
बिक्री के लिए अस्थायी लाइसेंस जारी करने से रोका जाय। यह समझना कोई राकेट साइंस
नहीं है कि बच्चों की तरफ से ये याचिकाएं उनके अभिभावकों द्वारा अपने विरोध को देश
के बच्चों के विरोध का प्रतीकात्मक रूप देने के उद्देश्य से दायर की गयी हैं। अब
सर्वोच्च न्यायालय इसपर क्या सुनवाई करता है, ये तो आगे सामने आएगा। लेकिन इसमें
तो कोई दो राय नहीं कि वायु प्रदूषण दिन ब दिन देश के लिए भीषण संकट बनता जा रहा
है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा राज्य सभा में जारी एक आंकड़े
के मुताबिक़ देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन
लगभग ८० लोगों की मौत होती है। नासा सैटेलाइट द्वारा इकट्ठा किए गए
आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे
छोटे कण की मात्र बेहद अधिक है। औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों द्वारा निकासित धुंए से
हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन
रही है। देश की राजधानी की ये स्थिति चौंकाती भले हो, लेकिन
यही सच्चाई है। इंकार नहीं कर सकते कि इसी
कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। यह हाल सिर्फ
दिल्ली का नहीं है, वरन देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है। इन
स्थितियों के कारण ही वातावरण में सुधार
के मामले में भारत की स्थिति में काफी गिरावट आई है। अमेरिका के येल
विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक़ एनवॉयरमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स
में 178 देशों में भारत का
स्थान 32 अंक गिरकर 155वां हो गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की
स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खस्ताहाल है। अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के मामले
में भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की
स्थिति बेहतर है जिनका इस इंडेक्स में स्थान क्रमशः 148वां, 139वां, 118वां और 69वां है। यह सूची जिन ९ प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई
है, उनमे वायु प्रदूषण भी शामिल है। इस
वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग छः लाख लोगों को अपनी जान से हाथ
धोना पड़ता है। इन आंकड़ों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारत में वायु प्रदूषण अत्यंत
विकराल रूप ले चुका है। दुर्योग यह है कि देश इसको लेकर बातों में तो चिंता व्यक्त
करता है, पर इसके निवारण व रोकथाम के लिए यथार्थ में कुछ करता नहीं दिखता। बहरहाल, उपर्युक्त आंकड़ों के सम्बन्ध में यह
तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसख्या, औद्योगिक प्रगति और वाहनों की मात्रा भारत की
अपेक्षा बेहद कम है, इसलिए वहां वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन इस तर्क पर
सवाल यह उठता है कि स्विट्ज़रलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देश क्या औद्योगिक
प्रगति नहीं कर रहे या उनके यहाँ वाहन नहीं हैं, फिर भी वो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित
देशों में कैसे शुमार हैं ? और क्या ऐसी दलीलों के जरिये देश और इसके कर्णधार इसको
प्रदूषण मुक्त करने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं ? दरअसल वायु प्रदूषण
औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के
मध्य कितना बेहतर संतुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित
किया जाय तो न केवल वायु प्रदूषण वरन हर तरह के प्रदूषण से निपटा जा
सकता है। पर इस संतुलन के लिए कानूनी स्तर से लेकर जमीनी स्तर पर तक मुस्तैदी
दिखानी पड़ती है, जिस मामले में यह देश काफी पीछे है। प्रदूषण को लेकर हमारे
हुक्मरानों की उदासीनता को इसीसे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल
अपने घोषणापत्र में प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित कोई वादा नहीं करता। ऐसे किसी
वादे से इसलिए परहेज नहीं किया जाता कि
प्रदूषण नियंत्रण कठिन कार्य है, क्योंकि इससे कठिन-कठिन वादे हमारे हुक्मरानों
द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन वे प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिए
परहेज करते हैं कि उनकी नज़र में ये कोई मुद्दा नहीं होता।
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दैनिक जागरण |
देश में वायु प्रदूषण के लिए दो सर्वाधिक
जिम्मेदार कारक हैं। एक डीजल-पेट्रोल चालित मोटर वाहन और दूसरा औद्योगिक इकाइयाँ।
इनमे मोटर वाहनों में तो कुछ हद तक इंधन सम्बन्धी ऐसे बदलाव हुए हैं जिससे कि उनसे
होने वाले प्रदूषण में कमी आए। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक
बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए कुछ ठोस नहीं
किया जा रहा जबकि उनसे सिर्फ वायु ही नहीं, वरन जल आदि में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है।
इन औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाले धुंए की भयानकता इसीसे समझी जा
सकती है कि देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे एनसीआर इलाकों जहाँ औद्योगिक
इकाइयों की भरमार है, में तो ये धुंआ स्थायी धुंध का रूप लेता जा रहा है। आलम यह
है कि धुंध के मामले में दिल्ली ने बीजिंग को भी पीछे छोड़ दिया है। इन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए एक
सख्त क़ानून की जरूरत है जिसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती। एक और बात कि एक तरफ
तो इन औद्योगिक इकाइयों, वाहनों की भरमार से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीँ दूसरी
तरफ दिन ब दिन पेड़-पौधों में जिस तरह से कमी आ रही है, उससे स्थिति और विकट होती
जा रही है। अब जमीनी हालात ऐसे हैं और देश
औद्योगिक प्रगति के अन्धोत्साह में अब भी उलझा हुआ है। दोष सिर्फ सरकारों का ही तो
नहीं है, जाने-अनजाने नागरिक भी इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। लोगों ने अपने
जीवन को इतना अधिक विलासितापूर्ण बना लिया है कि जरा-जरा सी चीज के लिए वे उन
वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर हो गाए हैं जिनसे वायु प्रदूषण का संकट और गहराता है।
वाहन, बिजली उपकरण, कागज़, सौन्दर्य प्रशाधन आदि तमाम चीजें हैं जिनपर लोगों
की आवश्यकता से अधिक निर्भरता हो गयी है
जो कि प्राकृतिक विनाश और प्रदूषण के विकास में महती भूमिका निभा रही है। अतः आज
जरूरत यही है कि सरकार और नागरिक दोनों इस सम्बन्ध में चेत जाएं और वायु को जीवन
के अनुकूल रखने के लिए न केवल बातों से वरन अपने आचरण से भी गंभीरता का परिचय दें।
इस सम्बन्ध में अपने-अपने स्तर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। क्योंकि सारी
प्रगति तभी होगी जब हम जीएंगे और हम जीएंगे तभी, जब धरती पर स्वच्छ और सांस लेने
योग्य वायु होगी।
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