रविवार, 4 अक्तूबर 2020

पशुओं की भी है ये धरती

  • पीयूष द्विवेदी भारत

अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे आदमी को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वो अपने साथ-साथ अन्य जीवों के लिए इस धरती के वातावरण को कितना मुश्किल बनाता जा रहा है। लगातार कटते पेड़ों से जानवरों का जीवन संकट में है। कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी लुप्त होने की ओर बढ़ रही हैं। ऐसी ‘विश्व पशु दिवस’ का महत्व और बढ़ जाता है।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

हर साल पशुप्रेमी संत फ्रांसिस ऑफ़ एसीसी के जन्मदिन 4 अक्टूबर को दुनिया भर में यह दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे जहाँ एक तरफ पशुओं की विभिन्न प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने और उनकी रक्षा करने की बात है, वहीं हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हम पशुओं पर क्रूरता करने से बचें। इस दिवस का मूल उद्देश्य विलुप्त हुए प्राणियों की रक्षा करना और मानव से उनके संबंधों को मजबूत करना था। साथ ही पशुओं के कल्याण के सन्दर्भ विश्व पशु कल्याण दिवस का आयोजन करना है। ताकि उनके प्रति संवेदना स्थापित करने के साथ-साथ पशुओं की हत्या और क्रूरता पर रोक लगायी जा सके।  विश्व के सभी देशों में अलग-अलग तरह से इस दिवस को मनाया जाता है। जन जागरण और जन शिक्षण के माध्यम से पशुओं को संवेदनशील प्राणी का दरजा देने के लिए समाज के सभी वर्गों का योगदान आवश्यक है। यह दुनिया मनुष्य के साथ-साथ जानवरों के लिए भी एक बेहतर स्थान बन सके, यह इस दिवस का मूल भाव है।

इस दिवस को पहली बार 24 मार्च, 1925 को जर्मन लेखक हेनरिक जिमर्मन द्वारा मनाया गया था। हालांकि तब भी इसको मनाने का विचार 4 अक्टूबर को ही था, लेकिन इस तारीख को आयोजन के लिए निर्धारित स्थल खाली नहीं था, इसलिए इसे मार्च में मना दिया गया। परन्तु, फिर बाद में 4 अक्टूबर, 1931 को इसे इटली में आयोजित विज्ञानशास्त्रियों के सम्मलेन में मनाया गया।

विचार करें कि आज हम पशु कल्याण दिवस तो मना रहे, लेकिन क्या उससे दुनिया में जानवरों के प्रति लोगों की सोच में कोई बदलाव आया है, तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखाई देती। स्थिति ये है कि आज भी ज्यादातर आदमी जानवरों को महत्व केवल तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ या सुख से सम्बन्ध रखते हों। जैसे कि बहुत से लोगों को कुत्ते-बिल्ली पालने का शौक होता है, तो वे उन्हें पकड़कर बाँध के रख लेते हैं और उनसे अपना मनोरंजन करते हैं। कुछ लोग कुत्ते से घर की रखवाली का शौक रखते हैं, क्योंकि वो वफादार होता है। इसी तरह कुछ लोग सरपट भागने वाले खरगोश को भी पालतू बनाकर चारदीवारी में कैद कर लेते हैं। गाय पालते हैं, क्योंकि उससे दूध मिलता है। घोडा-हाथी लोगों को इसलिए प्रिय है कि वे आवागमन के काम में आते हैं। यह आदमी का पाखण्ड नहीं तो और क्या है कि पहले उसने अपने स्वार्थ के लिए पेड़ काट-काटकर जानवरों के जंगल छीन लिए और अब उन्हें अपने घर के एक कोने में बांधकर रखते हुए वो खुद को पशुप्रेमी साबित करने में लगा रहता है।

कुछ जानवर तो आदमी के लिए केवल उसके स्वाद की वस्तु हैं। चिकन से लेकर मीट और बीफ तक असंख्य जानवरों को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि ताकि कुछ लोगों के खाने में स्वाद आ सके। आज दुनिया के अधिकांश देशों में मीट एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है और इसके व्यापार से वहाँ की सरकारों का खजाना भरता है। आज प्रतिवर्ष दुनिया में लगभग 320 मिलियन टन मीट का उत्पादन होता है और इसकी खपत भी हो जाती है। तकरीबन 80 बिलियन जानवरों को प्रतिवर्ष मांस प्राप्त करने के उद्देश्य से मार दिया जाता है। इनमें सबसे बड़ी तादाद मुर्गों की है। लेकिन ये करने के बाद भी सब देश पशुप्रेमी होने का दावा करने से नहीं चूकते। इस काम के पक्ष में माँसाहारी लोगों के पास दलीलें भी खूब होती हैं। वे कहते हैं कि यदि इस तरह जानवरों को नहीं मारा जाएगा तो धरती का संतुलन बिगड़ जाएगा और हर तरफ जानवर ही जानवर फ़ैल जाएंगे। इस तर्क के हिसाब से चलें तब तो जहां मनुष्य की आबादी बहुत ज्यादा हो रही है, वहां उन्हें भी मारना शुरू कर देना चाहिए। लेकिन यह कोई तरीका नहीं होता। इन तथ्यों का निष्कर्ष यही है कि दुनिया का पशुप्रेम दिखावा ही अधिक है, उसमें वास्तविकता बहुत कम है।

इस संदर्भ में भारत की बात करें तो पशुपालन भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सत्रहवीं पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के कुल भैसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का लगभग 14 प्रतिशत भारत में है। कृषि और मवेशी गतिविधियों के अंतर्गत इनका पूरा उपयोग भी होता है। गाय को देश में माँ समान मानकर पूजा जाता है।  लेकिन साथ ही साथ देश में इस तरह के पशुओं का उपयोग न होने की स्थिति में उन्हें छुट्टा छोड़ देने की समस्या भी खूब है। अब ट्रैक्टर आ जाने से बैल की उपयोगिता कम हो गयी है, तो अक्सर लोग उन्हें खुले में छोड़ देते हैं। दूध देना बंद कर देने पर गाय-भैंस जैसे पशुओं को छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये पशु बिना किसी व्यवस्था के इधर-उधर फिरते हैं और सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर में अपने लिए भोजन तलाशने को विवश होते हैं। यह नहीं हुआ तो लोग इन्हें बूचड़खाने को बेच देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि गाय को पूजने वाले इस देश में गोवंश की देखरेख की कोई बेहतर व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है और इन पशुओं के प्रति भी मानव का व्यवहार अपने स्वार्थों पर ही आधारित है।

हालांकि इससे इतर भारत में पशु संरक्षण के लिए कई मोर्चों पर प्रयास भी होते रहे हैं, जिसमें कुछ मोर्चों पर सफलता भी मिली है। जैसे कि बाघ संरक्षण के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों से उनके संरक्षण में सफलता मिली है। बाघ संरक्षण के लिये किये जा रहे प्रयासों के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर हर चार वर्ष बाद आधुनिक तरीकों से बाघों की संख्या की गिनती की जाती है। बाघ रेंज के देशों ने 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में घोषणा के दौरान 2022 तक अपनी-अपनी रेंज में बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प व्यक्त किया था। सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित इस चर्चा के समय भारत में 1411 बाघ होने का अनुमान था जो कि ‘अखिल भारतीय बाघ अनुमान 2014’ के तीसरे चक्र के बाद दोगुना होकर 2226 हो गया। अभी इस वर्ष पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर द्वारा बाघों पर "स्टेटस ऑफ़ टाइगर्स - कोप्रिडेटर्स एंड प्रेय इन इंडिया" नामक रिपोर्ट जारी करते हुए जानकारी दी गयी कि 2014 से 2018 के बीच देश में बाघों की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 तक पहुंच गयी है। स्पष्ट है कि बाघ संरक्षण में देश को बहुत हद तक सफलता मिली है। बाघ प्रोजेक्ट की तरह ही देश ने अलग-अलग समय पर हाथी, गैंडा, घड़ियाल, गिद्ध, डॉलफिन, बर्फीले तेंदुआ, सोहन चिड़िया, लाल पांडा आदि अनेक जीवों के संरक्षण के लिए कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इनमें से कुछ में लक्ष्यों को हासिल करने में सफलता भी मिली है। लेकिन आज हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि किसी भी पशु के अस्तित्व पर ऐसा संकट आए ही नहीं कि उसके संरक्षण की आवश्यकता उपस्थित हो। यह तभी होगा जब मनुष्य जाति अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर पशु कल्याण की दृष्टि को अपनाएगी। भारतीय संस्कृति में जीव मात्र के कल्याण की भावना रही है। हमें इस भावना को अपने आचरण में उतारते हुए मन से यह बात स्वीकारने की आवश्यकता है कि ये धरती पशुओं की भी उतनी ही है जितनी मनुष्यों की। यह बात अगर हम समझ सकें तो ही विश्व पशु दिवस के आयोजन की कोई सार्थकता होगी।

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