- पीयूष द्विवेदी भारत
अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे आदमी को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वो अपने साथ-साथ अन्य जीवों के लिए इस धरती के वातावरण को कितना मुश्किल बनाता जा रहा है। लगातार कटते पेड़ों से जानवरों का जीवन संकट में है। कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी लुप्त होने की ओर बढ़ रही हैं। ऐसी ‘विश्व पशु दिवस’ का महत्व और बढ़ जाता है।
दैनिक जागरण आईनेक्स्ट |
इस
दिवस को पहली बार 24 मार्च,
1925
को
जर्मन लेखक हेनरिक जिमर्मन द्वारा मनाया गया था। हालांकि तब भी इसको मनाने का
विचार 4
अक्टूबर
को ही था, लेकिन इस तारीख को आयोजन के लिए निर्धारित स्थल खाली नहीं था, इसलिए इसे
मार्च में मना दिया गया। परन्तु, फिर बाद में 4 अक्टूबर, 1931 को इसे इटली में
आयोजित विज्ञानशास्त्रियों के सम्मलेन में मनाया गया।
विचार करें कि आज हम पशु कल्याण दिवस तो मना रहे, लेकिन
क्या उससे दुनिया में जानवरों के प्रति लोगों की सोच में कोई बदलाव आया है, तो
स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखाई देती। स्थिति ये है कि आज भी ज्यादातर आदमी जानवरों
को महत्व केवल तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ या सुख से सम्बन्ध रखते हों।
जैसे कि बहुत से लोगों को कुत्ते-बिल्ली पालने का शौक होता है, तो वे उन्हें पकड़कर
बाँध के रख लेते हैं और उनसे अपना मनोरंजन करते हैं। कुछ लोग कुत्ते से घर की
रखवाली का शौक रखते हैं, क्योंकि वो वफादार होता है। इसी तरह कुछ लोग सरपट भागने
वाले खरगोश को भी पालतू बनाकर चारदीवारी में कैद कर लेते हैं। गाय पालते हैं,
क्योंकि उससे दूध मिलता है। घोडा-हाथी लोगों को इसलिए प्रिय है कि वे आवागमन के
काम में आते हैं। यह आदमी का पाखण्ड नहीं तो और क्या है कि पहले उसने अपने स्वार्थ
के लिए पेड़ काट-काटकर जानवरों के जंगल छीन लिए और अब उन्हें अपने घर के एक कोने
में बांधकर रखते हुए वो खुद को पशुप्रेमी साबित करने में लगा रहता है।
कुछ जानवर तो आदमी के लिए केवल उसके स्वाद की वस्तु हैं।
चिकन से लेकर मीट और बीफ तक असंख्य जानवरों को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि
ताकि कुछ लोगों के खाने में स्वाद आ सके। आज दुनिया के अधिकांश देशों में मीट एक
उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है और इसके व्यापार से वहाँ की सरकारों का खजाना
भरता है।
आज
प्रतिवर्ष दुनिया में लगभग 320 मिलियन टन मीट का उत्पादन होता है और इसकी खपत भी हो
जाती है। तकरीबन 80 बिलियन
जानवरों को प्रतिवर्ष मांस प्राप्त करने के उद्देश्य से मार दिया जाता है। इनमें
सबसे बड़ी तादाद मुर्गों की है। लेकिन ये करने के बाद भी सब देश पशुप्रेमी होने का
दावा करने से नहीं चूकते। इस काम के पक्ष में माँसाहारी लोगों के पास दलीलें भी
खूब होती हैं। वे कहते हैं कि यदि इस तरह जानवरों को नहीं मारा जाएगा तो धरती का
संतुलन बिगड़ जाएगा और हर तरफ जानवर ही जानवर फ़ैल जाएंगे। इस तर्क के हिसाब से चलें
तब तो जहां मनुष्य की आबादी बहुत ज्यादा हो रही है, वहां उन्हें भी मारना शुरू कर
देना चाहिए। लेकिन यह कोई तरीका नहीं होता। इन तथ्यों का निष्कर्ष यही है कि
दुनिया का पशुप्रेम दिखावा ही अधिक है, उसमें वास्तविकता बहुत कम है।
इस संदर्भ में भारत की बात करें तो पशुपालन भारतीय
अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सत्रहवीं पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के कुल
भैसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का लगभग 14 प्रतिशत भारत में है। कृषि और मवेशी
गतिविधियों के अंतर्गत इनका पूरा उपयोग भी होता है। गाय को देश में माँ समान मानकर
पूजा जाता है। लेकिन साथ ही साथ देश में
इस तरह के पशुओं का उपयोग न होने की स्थिति में उन्हें छुट्टा छोड़ देने की समस्या
भी खूब है। अब ट्रैक्टर आ जाने से बैल की उपयोगिता कम हो गयी है, तो अक्सर लोग
उन्हें खुले में छोड़ देते हैं। दूध देना बंद कर देने पर गाय-भैंस जैसे पशुओं को
छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये पशु बिना किसी व्यवस्था के इधर-उधर फिरते हैं
और सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर में अपने लिए भोजन तलाशने को विवश होते हैं। यह नहीं
हुआ तो लोग इन्हें बूचड़खाने को बेच देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि गाय को
पूजने वाले इस देश में गोवंश की देखरेख की कोई बेहतर व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है
और इन पशुओं के प्रति भी मानव का व्यवहार अपने स्वार्थों पर ही आधारित है।
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