विचार : मृदुला गर्ग
प्रस्तुति : पीयूष द्विवेदी
राष्ट्रीय सहारा |
स्त्री-साहित्य
के संदर्भ में सबसे पहले तो ये मूल बात स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि स्त्री-साहित्य काफी हद तक एक औचित्यहीन और
अनावश्यक पद है । अब स्त्री-साहित्य जैसे पद का सृजन करके और कुछ तो नहीं, साहित्य में भी स्त्री का
पृथकीकरण ही किया गया है
। ठीक वैसे ही जैसे दलित-साहित्य, प्रवासी
साहित्य आदि आदि । कहने का अर्थ ये है
कि अगर साहित्य सिर्फ साहित्य ही रहे और सब साहित्यकार जाति-वर्ग-पंथ आदि से परे सिर्फ
साहित्यकार ही रहें, तो क्या बुराई है कि इस तरह का पृथकीकरण किया गया है ? विचार करें तो कितनी अजीब बात है न कि यहाँ
स्त्री-साहित्य तो अलग से है, पर उसके सामानांतर कोई पुरुष-साहित्य नहीं है । अर्थात
जो पुरुष लिखे वो तो सिर्फ साहित्य होता है, पर जो स्त्री लिखे तो वो विभाजित रूप
से स्त्री-साहित्य हो जाता है । अलबत्ता
घर-गृहस्थी के कामकाज से सम्बन्धित सामग्री को हमारे देश में अवश्य, अब तक, स्त्री
और केवल स्त्री के लिए उपयोगी माना जाता है और उसे छापने वाली पत्रिकाएं,
स्त्रियों की पत्रिकाएं मानी जाती हैं । लगता
है जैसे पुरुष पृथ्वी के बजाय किसी और ग्रह पर रहने वाले जीव हों । इन पत्रिकाओं में जो कथानुमा लेखन
भी रहता है, उसके विषय में मान्यता है कि वो ख़ास
तौर पर स्त्रियों के लिए लिखा जाता है ।
वैसे, स्त्री-साहित्य का क्या अर्थ है ? ये पद
उचित है या अनुचित ? आदि कत्तई बहुत महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं । क्योंकि, समकालीन
हिंदी साहित्य या स्त्री-साहित्य को लेकर तमाम अन्य तथा अत्यंत महत्वपूर्ण बातें
हैं जिनपर चिंतन-मनन की आवश्यकता है । यह भी उल्लेखनीय
होगा कि साहित्य
को लेकर यहाँ जो भी चिंतनीय बातें हैं, वह हर आयु-वर्ग-जाति के स्त्री-पुरुष द्वारा लिखे साहित्य पर लागू होती हैं । यथा, क्या आज के साहित्य में सृजन, कल्पना, वाँछा, संवेदना, सरोकार
और सौन्दर्य बोध का ह्रास हो रहा है ? क्या भाषा को ले कर लापरवाही बरती जा रही है
? क्या जो पहले लिखा जा चुका है, उसी को दुहराया जा रहा है ? क्या रचनाकार रूढ़ियों
को तोड़ने से कतरा रहे हैं ? क्या वे नये सामयिक मूल्यों की पड़ताल करने से जी चुरा
रहे हैं ? क्या वे शोध पर ज़रूरत से ज़्यादा बल दे कर विचार विनिमय और संवेदनशील
तर्क से परहेज़ कर रहे हैं ? क्या ऐसी रचनाएं निरन्तर आ रही हैं जो अब तक क़रीब क़रीब
अनछुए रह गये विषयों पर हों और साथ ही शैली, शिल्प, भाषा में मौलिक प्रयोग भी करें
? कहीं अंग्रेज़ी का आतंक हिन्दी के लेखकों को और कूपमन्डूक तो नहीं बना रहा ? भय ये है कि इनमें से कोई चिंता निर्मूल नहीं है । इन चिंताओं में एक बेहद गंभीर चिंता ये भी जुड़
गई है कि क्या साहित्य से सम्बंधित उपर्युक्त मूल प्रश्नों से बचने के लिए हमारे विद्वजन स्त्री साहित्य, दलित साहित्य, अल्पसंख्यक साहित्य, प्रवासी साहित्य जैसी
श्रेणियाँ निर्मित करके साहित्य को विभाजित तो नहीं कर रहे ? लगता है कर रहे हैं
और ऐसा करके हिंदी साहित्यकारों के बीच आपस में ही बेमानी संघर्ष पैदा कर रहे हैं, जिससे कि लोगों का ध्यान मूल विषयों से इतर
इधर-उधर भटका रहे
। असर यह हो रहा है कि हम व्यापक स्तर पर विचार विनिमय करने के बजाय लघु और महत्व
हीन मुद्दों में उलझ कर साहित्य को प्रज्ञा और भावबोध, दोनों से खारिज कर रहे हैं
। सीधे शब्दों में कहें तो आज हिंदी
साहित्य का राजनीतिकरण होता जा रहा है और
स्त्री-साहित्य को भी इसी राजनीतिकरण की एक उपज कहा जा सकता है ।
वर्तमान परिदृश्य में समकालीन हिंदी साहित्य पर
एक प्रश्न ये भी उठने लगा है कि आजकल बहुतायत अश्लील साहित्य लिखा जा रहा है । तमाम तरफ से ऐसी आवाजें आ रही हैं कि समकालीन
लेखक/लेखिकाएं नए सामाजिक मूल्यों पर आधारित प्रगतिशील साहित्य रचकर प्रसिद्धि
पाने के अन्धोत्साह में साहित्य का पोर्नोग्राफ़ीकरण करते
जा रहे हैं
। लेखिकाओं पर ये आरोप विशेष रूप से लग रहा
है कि वे स्त्री को नहीं, बल्कि उसकी देह को केन्द्र में रखकर लिख रही हैं । लेकिन,
इन बातों में सचाई न के बराबर है । असल में लोग चाहते हैं कि ऐसा हो, कि
पोर्नोग्राफ़ी पढने के लिए उन्हें अंग्रेज़ी की शरण में न जाना पड़े । पर ऐसा है नहीं
। स्त्री द्वारा लिखे साहित्य में सतही सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों वाले लेखन से ले
कर सामाजिक, राजनीतिक व वैयक्तिक सरोकारों के अन्तर्सम्बन्ध की गम्भीर पड़ताल और
जिज्ञासु दृष्टि वाले कथानक व काव्य लिखे जा रहे हैं । अनेक किस्में हैं, अनेक
स्तर, अनेक स्वर, अनेक विधाएं, अनेक विधागत प्रयोग । हाँ, उसमें कुछ अंश स्त्री की
देह की विषमता व मन और देह के द्वेत पर भी है, पर बहुत कम । जो है वह स्थूल ज़्यादा
है, क्रान्तिकारी या विचारणीय नहीं है । रही
बात अर्थ की तो वो बाज़ार में बिक्री का है, पर दुर्भाग्य से वह लक्ष्य भी सिद्ध नहीं हो रहा । क्योंकि उस
हिसाब से हिंदी का
स्त्री-साहित्य
अंग्रेज़ी, बांगला या मलयाळम के लेखन की माँग के पासंग कहीं नहीं ठहरता । बिक्री
बहुत अधिक भले न हो, पर इसका ये अर्थ नहीं कि हिंदी में बेहतरीन रचनाएँ व रचनाकार
नहीं हैं । अगर कुछ नामों का उल्लेख करें
तो ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मंजुल भगत, सूर्यबाला, मधु कांकरिया, चंद्रकांता, गीतांजलि
श्री, नासिरा शर्मा, मन्नू भंडारी आदि तमाम लेखिकाओं द्वारा एक से बढ़कर एक बेहतरीन
कृतियों की रचना की गई है और कितनों द्वारा तो अब भी की जा रही है । पर यहाँ बात स्त्री की है तो कुछ कृतियों का नाम ले
रही हूँ । चन्द्रकान्ता का उपन्यास ऐलान गली ज़िन्दा है; नासिरा शर्मा का
उपन्यास अजनबी जज़ीरा; मंजुल भगत का ख़ातुल; अल्पना मिश्र की कहानी छावनी
में बेघर, गीतांजली श्री का तिरोहित । इन सभी कृतियों में
स्त्री का रचाव उतना ही बहुपक्षीय है, जितना कि पुरुष का । इनमे स्त्री पुरुष का
विलोम नहीं, स्वयं समाज है । हाँ, केन्द्रीय पात्र ज़रूर कोई स्त्री है । और अगर
स्त्री की ही बात करनी हो तो माँ-बेटी के रिश्ते के माध्यम से उनसे इतर
परिवार-समाज की संवेदनहीनता अभिव्यक्त करने के लिए सुनीता जैन का काव्य संग्रह जाने
लड़की पगली को एक बेहतरीन कृति कहा जा सकता है ।
किसी भी भाषा के साहित्य की समृद्धि की एक
प्रमुख शर्त यह भी होती है कि उसके रचनाकार अपनी कृतियों में केवल बनी बनाई
परम्पराओं पर न चलें बल्कि नई परम्पराओं का निर्माण भी करें । कहने का अर्थ है कि रचनाकार,
विशेषतः नवोदित रचनाकार, रचना के दौरान एक बात का विशेष ध्यान रखें कि वे परम्परा
और गुरु को यूँ न आंकें कि उनकी तरह लिख कर बनी बनाई लीक पर चल पड़ें, बल्कि उन्हें
इस तरह याद करें कि गुरु वही बन पाया जिसने लीक तोड़ी । इसलिए उसे मानने का मतलब है
कि तुम भी लीक तोड़ो ।
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