मंगलवार, 8 जुलाई 2014

कहीं ये न्यायपालिका पर नियंत्रण की कवायद तो नहीं [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
किसी ने बिलकुल सही कहा है कि सियासत में अवसर का सबसे अधिक महत्व होता है और जो अवसर के अनुसार स्वयं को ढाल ले वही सियासत के मैदान में अधिक समय तक टिक भी सकता है। अगर आपको याद हो तो अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब केन्द्र की पिछली संप्रग-२ सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के लिए एक संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था। तत्कालीन दौर में उस संशोधन विधेयक को न्यायपालिका की स्वतंत्रता  पर चोट बताते हुए मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने उसका भारी विरोध किया था। लेकिन, आज जब वही भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में आ चुकी है, तब उसके क़ानून मंत्री संप्रग सरकार के उस विधेयक को कुछ परिवर्तनों के साथ पुनः लाने की बात करते नज़र आ रहे हैं। दरअसल, अभी हाल ही में सरकार के क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक साक्षात्कार में कहा है कि वे जजों की नियुक्ति सम्बन्धी संप्रग सरकार के उस विधेयक को कुछ परिवर्तनों के साथ पुनः लाएंगे। गौरतलब है कि केंद्रीय क़ानून मंत्री का ये बयान ऐसे वक्त में आया है जब एक जज की नियुक्ति को लेकर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच काफी तनातनी देखने को मिली है। पूरा मामला कुछ यों है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोलेजियम की तरफ से जजों की नियुक्ति के लिए चार नाम सरकार को भेजे गए थे। अब सरकार की तरफ से उनमे से तीन नामों को तो स्वीकार लिया गया, लेकिन एक नाम को पुनर्विचार के आग्रह के साथ वापस कर दिया गया। इस पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा द्वारा बेहद तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा गया था कि सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण का प्रयास न करे, अगर ऐसा होता है तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। हालांकि सरकार के पास ये अधिकार जरूर है कि वो चाहे तो कोई नाम पुनर्विचार के लिए वापस कर सकती है, लेकिन जस्टिस लोढ़ा की नाराजगी का कारण ये था कि नाम वापस करने से पहले सरकार ने उन्हें जानकारी देना या उनसे राय लेना भी जरूरी नहीं समझा। अब जो भी हो, पर यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि विपक्ष में रहते हुए जब भाजपा ने उस संसोधन विधेयक का विरोध किया था, तो अब ऐसा क्या हो गया कि कुछ परिवर्तनों के साथ ही सही, उसे लाने की बात कर रही है ? उसका ये रवैया तो कहीं ना कहीं उसकी राजनीतिक अवसरवादिता को ही दर्शाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता में आने से पहले भाजपा संप्रग सरकार पर न्यायपालिका पर नियंत्रण कायम करने का जो आरोप लगा रही थी, अब वो स्वयं न्यायपालिका पर वही नियंत्रण स्थापित करने की कवायद कर रही है ? यह सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि जजों की नियुक्ति संबंधी जो व्यवस्था अभी देश में काम कर रही है, वो न्यायिक स्वायत्तता के लिहाज से अत्यंत उपयुक्त है। अतः उसमे किसी भी तरह के बदलाव, सुधार आदि का कोई औचित्य ही नहीं दिखता। अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं उसका ही एक कोलेजियम करता है जिसमे सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश समेत अन्य जज भी होते हैं। इसमें कार्यपालिका आदि का कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं होता। इस नियुक्ति प्रक्रिया पर कोई सवाल इसलिए भी नहीं उठाया जाना चाहिए कि आज इस देश की संवैधानिक व्यवस्था की तीनों इकाइयों में सर्वाधिक जन विश्वसनीयता न्यायपालिका के प्रति ही दिखती है। अब अगर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया गलत या भ्रष्ट होती, तो उन्हें ये विश्वसनीयता कहाँ से मिलती ? खासकर कि पिछली संप्रग सरकार के दौरान जिस तरह से कार्यपालिका के भ्रष्टाचार तथा गलत निर्णयों आदि को लेकर न्यायपालिका सख्त रही, उसने लोगों में उसके प्रति विश्वास को कई गुना बढ़ाया है। और संभवतः इसी कारण संप्रग सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए संसद में संशोधन विधेयक लाया गया था। अब अगर भाजपा-नीत राजग सरकार उस संशोधन विधेयक को पुनः लाती है तो इसका सीधा संदेश ये जाएगा कि ये सरकार भी स्वयं को न्यायपालिका से बचाना चाहती है और बस इसीलिए ऐसा कर रही है।   हालांकि इस पर भाजपा सरकार की तरफ से बड़े ही गोल-मोल तरीके से कहा जा गया है कि वे ये संशोधन विधेयक केंद्रीय न्यायिक आयोग बनाने व न्यायिक सुधारों के अपने वादे को पूरा करने के मकसद से ला रहे हैं। लेकिन, प्रश्न यथावत है कि आप न्यायिक सुधार करिए, पर उसके लिए ये संशोधन विधेयक लाकर न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका को घुसाने की क्या आवश्यकता है ? अब इस विधेयक में चाहे सरकार कितना भी बदलाव करके लाए, पर इसका मूल स्वरूप ही ऐसा है कि जैसे-तैसे न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ ही जाएगा, जो कि वर्तमान परिदृश्य में तो कत्तई उचिन नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो चाहें कितने भी बदलाव के साथ हो या किसी भी रूप में, फ़िलहाल इस संशोधन विधेयक की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अगर सरकार वाकई में न्यायिक सुधार के प्रति इतनी प्रतिबद्ध है तो पहले अदालतों में रिक्त पड़े पदों पर जजों की नियुक्ति करे, जिससे कि लंबित पड़े मामले निपटें और पीड़ितों को न्याय मिल सके। साथ ही, न्याय को सरल, सहज व सस्ता बनाने के लिए भी प्रयास करे, जिससे गरीब व्यक्ति के मन में भी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था जग सके और वो भी न्याय के लिए लड़ सके। इन चीजों को करके सरकार न सिर्फ सही मायने में न्यायिक सुधार के अपने वादे को पूरा करेगी, बल्कि जनता के मन उसके प्रति विश्वास भी जगेगा।

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