गुरुवार, 31 जुलाई 2014

प्रशासनिक नाकामी को दर्शाता सहारनपुर दंगा [दैनिक जागरण राष्ट्रीय में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
धार्मिक स्थल को लेकर पश्चिमी यूपी के सहारनपुर में हुए दंगे ने देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द के साथ-साथ क़ानून व्यवस्था की दुर्दशा को भी एकबार फिर उजागर कर दिया है. पूरा मामला कुछ यों है कि सहारनपुर के कुतुबशेर इलाके में अम्बाला रोड पर आमने-सामने स्थित गुरूद्वारे और कब्रिस्तान की जमीन को लेकर दो समुदायों के बीच पुराना विवाद है. अभी हाल ही में इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया गया जिसके बाद संप्रदाय विशेष के लोगों द्वारा गुरूद्वारे में कुछ निर्माण कार्य शुरू करवा दिया गया. दूसरे संप्रदाय के लोगों ने इस निर्माण कार्य का विरोध किया और थाने के सामने धरना देने लगे, जिसके चलते दोनों संप्रदायों के बीच कहासुनी से शुरू हुई बात मार-काट और खून-खराबे तक चली गई. धीरे-धीरे अम्बाला रोड स्थित सभी दुकानों में लूटपाट मच गई और वहाँ स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पहुंचे  पुलिस वालों पर फायरिंग भी हुई जिसमे कि पुलिस के एक जवान की मौत की भी खबर है. और फिर तो पता ना चला कि इस छोटे से जमीन विवाद के झगड़े ने कब एक भीषण सांप्रदायिक दंगे का रूप अख्तियार करके पूरे सहारनपुर जिले को अपनी चपेट में ले लिया. पूरे सहारनपुर में खून-खराबा, आगजनी, फायरिंग मच गई. ऐसा तक सामने आया कि कुछ बाइक सवार लोग नाम पूछकर लोगों को गोली मार देते थे. अब यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब अम्बाला रोड स्थित धार्मिक स्थलों को लेकर सम्प्रदाय विशेष के लोगों के बीच हिंसापूर्ण झड़प हो रही थी, उस समय वहाँ के स्थानीय प्रशासन ने पूरी ताकत और सख्ती से उस झड़प को समय रहते रोका क्यों नहीं ? अब दंगाइयों द्वारा जिस तरह से पुलिस वालों पर तक फायरिंग व पथराव आदि किया गया, उससे सिद्ध होता है कि स्थानीय पुलिस ने इस मामले को पूरी गंभीरता से नहीं लिया और इसी कारण वहाँ बिना किसी जानकारी व तैयारी के पहुँच गई. अगर संप्रदाय विशेष के धरने के समय ही कानूनी हस्तक्षेप करके इस मामले का निपटारा कर दिया गया होता तो शायद इतना बड़ा दंगा होने का अवसर ही न आता. इतना ही नहीं, यूपी की प्रशासनिक व्यवस्था को तो तब भी होश नहीं आया, जब इस छोटे-से जमीन विवाद की पृष्ठभूमि में पूरे सहारनपुर में जगह-जगह हिंसा होने लगी. एक तरफ सहारनपुर में ये सब हो रहा था और दूसरी तरफ हमारे उत्तर प्रदेश की प्रशासन व्यवस्था इन सब से बेखबर चैनो-अमन की चादर डाले सो रही थी. स्थिति को नियंत्रित करने के लिए प्रशासनिक स्तर पर तब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, जब तक कि स्थिति बेहद विकराल रूप न ले ली. जब हालात नियंत्रण से बाहर और अत्यन्त भयावह हो गए, तब जाके उत्तर प्रदेश के प्रशासन की नींद खुली. परिणाम ये हुआ कि तब तक इस दंगे की आग ने कितने घर, दुकाने और जिंदगियों को जलाकर ख़ाक कर दिया और हर तरफ सिर्फ तबाही के ही निशान बाकी रह गए. हालांकि छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो अब शहर में स्थिति काफी हद तक नियंत्रण में है और जमीन-आसमान सब तरफ से शहर की निगरानी की जा रही है; हर तरफ पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के जवान तैनात हैं साथ ही दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश भी दिया जा चुका है. लेकिन, कहना गलत नहीं होगा कि ये नियंत्रण स्थापित करने में प्रशासन ने काफी देर कर दी. यूपी प्रशासन एकबार फिर समय रहते दंगे के माहौल को या तो भांपने में विफल रहा या फिर भांपकर भी खामोश रहा, जिसका खामियाजा निर्दोष लोगों को अपना जान-माल गंवाकर भुगतना पड़ा. सीधे शब्दों में कहें तो कुल मिलाकर इस दंगे के जरिये यूपी के पुलिस-प्रशासन व सुरक्षा तंत्र की नाकामी ही एकबार फिर उजागर हुई है.
    एक तो ये दंगा अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है, ऊपर से इसपर यूपी सरकार के मंत्रियों के जो बयान आए हैं, वे जख्म पर नमक का ही काम करते हैं. कहाँ तक सरकार इस दंगे की नैतिक जिम्मेदारी लेती, लेकिन यहाँ जिम्मेदारी लेना तो दूर, उलटे इस दंगे के लिए अन्य दलों को जिम्मेदार ठहराया गया है. एक बयान पर गौर करें तो यूपी सरकार के कैबिनेट मंत्री महबूब अली ने इस मामले में कहा है कि ये कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं महज एक जमीनी विवाद है, जिसे कि अमुक राजनीतिक दल द्वारा भड़काकर दंगा बना दिया गया है. हालाँकि उन्होंने किसी दल का नाम नहीं लिया. अपनी नाकामी छिपाने के लिए दूसरों पर आरोप लगाने की ये संस्कृति यूपी सरकार में नई नहीं है. इससे पहले भी अभी पिछले साल ही हुए मुजफ्फरनगर दंगे में भी यूपी सरकार के बोल कुछ ऐसे ही रहे थे. उसवक्त भाजपा आदि दलों के कुछेक क्षेत्रीय नेताओं को आरोपी बनाकर गिरफ्तार भी किया गया था, लेकिन आरोप साबित न होने के कारण वे नेता रिहा हो गए. अब ऐसे बयान देने वाले नेताओं से ये कौन पूछे कि चलिए ठीक है कि अमुक दल ने दंगा भड़काया, लेकिन आपकी सरकार उस दंगे को समय रहते रोक क्यों नहीं पाई ? क्या आपके राज्य का पुलिस-प्रशासन इतना कमजोर और लाचार है कि कोई भी आकर दंगा भड़का देता है और आप कुछ नहीं कर पाते ? और अगर किसीने ऐसा किया है तो आप अबतक उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किए ? जाहिर है कि इन सवालों का सिवाय कुतर्कों के कोई ठोस जवाब प्रदेश सरकार के नेताओं के पास नहीं होगा. बहरहाल, अब जो भी हो, लेकिन इस सहारनपुर दंगे से इतना तो साफ़ हो गया है कि अभी पिछले साल ही मुज़फ्फरनगर जैसा भीषण दंगा झेलने के बावजूद न तो यूपी की सरकार ही चेती है और न ही वहाँ के पुलिस-प्रशासन के ढुलमुल व सुस्त रवैये में ही कोई अंतर आया है. परिणाम ये है कि धीरे-धीरे यूपी सांप्रदायिक दंगों का गढ़  बनता जा रहा है जो कि बड़ी चिंता का विषय है.

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