- पीयूष द्विवेदी भारत
नेशनल दुनिया |
विगत
११ अप्रैल को नक्सलियों द्वारा छग के सुकमा जिले में बड़े दर्दनाक ढंग से एसटीएफ के
७ जवानों को मौत के घाट उतार तथा २४ घंटे के भीतर ही फिर दूबारा हमला करते हुए खनन
कार्य में लगे १७ वाहनों को जाला दिया गया, ऐसी सारी अवधारणाओं को खोखला साबित कर
दिया जिनके द्वारा यह समझा जा रहा था कि अब नक्सलियों का प्रभाव कम हो गया है। हुआ
ये कि बीती ११ तारीख को एसटीएफ के कुछ जवान सुकमा जिले के बेहद नक्सल प्रभावित
चिंतागुफा थाना क्षेत्र में खोजी अभियान पर निकले कि तभी उनपर नक्सलियों के एक
समूह ने हमला कर दिया। इस हमले में जहाँ सात जवान अपनी जान गँवा बैठे, वहीँ लगभग १२ जवान बुरी तरह से घायल भी हो गए। दिमाग
पर थोड़ा जोर दें तो यह वही सुकमा है, जहाँ बीते वर्ष नक्सली हमले सीआरपीएफ के दो
अधिकारियों समेत १३ जवान शहीद हो गए थे तो वहीँ २०१३ में सुकमा के ही झीरम घाटी कांग्रेस
के कई शीर्ष नेताओं को नक्सलियों द्वारा ही मार डाला गया था। इससे पूर्व २०१० में
भी सुकमा में ही एक नक्सली हमले में ७४ जवान शहीद हो गए थे। अब सवाल यह है कि एक
से बढ़कर एक इतने भीषण हमलों के बावजूद सुकमा को नक्सलियों से प्रभाव से क्यों
मुक्त नहीं कराया जा सका ? अभी कुछ महीनों पहले छग के मुख्यमंत्री महोदय ने
कहा था कि अब छग से नक्सलियों का प्रभाव
ख़त्म हो रहा है। अब जब जमीनी हालत ये है तो फिर यह कैसे माना जाय कि छग में
नक्सलियों का प्रभाव कम हो रहा है। दरअसल, तस्वीर यह है कि भाजपानीत राजग सरकार के
केंद्र की सत्ता सम्हालने के बाद से छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो छग में कोई
बड़ी नक्सल वारदात नहीं हुई थी, साथ ही पिछले कुछ महीनों से नक्सलियों के
आत्मसमर्पण में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई थी, तो संभव है कि इन सब बातों के कारण ही छग
के मुख्यमंत्री महोदय को यह मुगालता हो गया था कि अब राज्य में नक्सली कमजोर हो
रहे हैं। कहीं न कहीं इस मुगालते का शिकार केंद्र सरकार भी थी, तभी तो अभी कुछ समय
पहले ही जब छग मुख्यमंत्री रमन सिंह द्वारा नक्सल अभियान में लगे जवानों पर होने
वाले खर्च की भरपाई के लिए केंद्र से मदद मांगी गई तो केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ
सिंह ने अपने हाथ खड़े कर दिए। कहीं न कहीं केंद्र सरकार ने यही सोचा होगा कि अब तो
राज्य में नक्सली कमजोर हो रहे हैं, ऐसे में बहुत मदद देने की क्या आवश्यकता ? केंद्र
सरकार के इस रवैये के बाद नक्सलियों ने १३ सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर केंद्र
सरकार को अपनी धमक का एहसास कराया था। और अब इस ताज़ा कारनामे से उनने कम से कम छग
के मुख्यमंत्री महोदय समेत केंद्र सरकार को भी उक्त मुगालते से बाहर ला ही दिया
होगा।
विचार करें तो अगर आज नक्सलियों की ताकत ऐसी
है कि हमारे प्रशिक्षित सुरक्षा बालों के
लिए भी उनसे पार पाना बेहद मुश्किल हो रहा है तो इसके लिए काफी हद तक इस देश की
पिछली सरकारों की नक्सलियों के प्रति सुस्त व लचर नीतियां ही कारण हैं। इनके
शुरूआती दौर में तत्कालीन सरकारों द्वारा इन्हें कत्तई गंभीरता से नहीं लिया गया
और इनसे सख्ती से निपटने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। दिन ब दिन ये अपना और
अपनी ताकत विस्तार करते गए और परिणामतः पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू
हुआ ये सशस्त्र आन्दोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में अपनी जड़ें जमा लिया।
हालांकि यहाँ यह भी एक तथ्य गौर करने लायक है कि सत्तर के दशक में जिन उद्देश्यों व
विचारों के साथ इस नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था, वो काफी हद तक सही और शोषित वर्ग के हितैषी थे। पर समय के
साथ जिस तरह से इस आन्दोलन से वे विचार और उद्देश्य लुप्त होते गए उसने इस आन्दोलन
की रूपरेखा ही बदल दी। उन उद्देश्यों व विचारों से हीन इस नक्सल आन्दोलन की हालत
ये है कि आज ये बस कहने भर के लिए आन्दोलन रह गया है अन्यथा हकीकत में तो इसका
अर्थ सिर्फ बेवजह का खून-खराबा और खौंफ ही हो गया है। आज यह अपने प्रारंभिक ध्येय
से अलग एक हानिकारक, अप्रगतिशील व अनिश्चित संघर्ष का रूप ले चुका है। आन्दोलन
विचारों से चलता है, पर इस तथाकथित नक्सल आन्दोलन में अब हिंसा को छोड़ कोई विचार
नहीं रह गया है। हालांकि नक्सलियों की तरफ से अब भी ये कहा जाता है कि वे शोषितों
के मसीहा हैं और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन वास्तविकता इससे एकदम
भिन्न है। क्योंकि आज जिस तरह की वारदातें नक्सलियों द्वारा अक्सर अंजाम दी जाती
हैं, उनमे मरने वाले अधिकाधिक लोग शोषित व बेगुनाह ही होते हैं। अब ऐसे में
नक्सलियों की शोषितों के हितों के रक्षण व जनहितैषिता वाली बातों को सफ़ेद झूठ न
माना जाय तो क्या माना जाय ? यहाँ समझना मुश्किल है कि आखिर यह किस आन्दोलन का
स्वरूप है कि अपनी मांगें मनवाने के लिए बेगुनाहों का खून बहाया जाय ? सरकार
द्वारा नक्सलियों से बातचीत के लिए अक्सर प्रयास किए जाते रहे हैं कि वे हथियार
छोड़कर आत्मसमर्पण कर दें तो उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाया जाएगा। तमाम
नक्सली ऐसा किए भी हैं, पर उनकी संख्या बेहद कम है। स्पष्ट है कि नक्सलियों का
उद्देश्य विकास की मुख्यधारा में शामिल होना नहीं बन्दूक के दम पर सरकार को झुकाना
है या कि इस देश के लोकतंत्र को चुनौती देना हो गया है। हालांकि नक्सलियों के इस
विचार व उद्देश्य से हीन तथाकथित आन्दोलन से इनके क्षेत्र में रहने वाले लोगों जो
इनकी सबसे बड़ी ताकत हैं, का भी धीरे-धीरे मोहभंग हो रहा है। इसकी एक झाँकी तो
अबकीलोकसभा चुनाव में दिखी जब नक्सलियों के तमाम ऐलानों, विरोधों के बावजूद छग,
एमपी आदि राज्यों के बहुतायत नक्सल प्रभावित इलाकों में भी लोग जमकर मतदान करने
निकले। कुल मिलकर कहने का अर्थ यह है कि छग, एमपी आदि सभी नक्सल प्रभावित राज्यों
में नक्सलियों का प्रभाव कुछ कम अवश्य हुआ है, पर इसका यह कत्तई अर्थ नहीं कि उनकी
तरफ से निश्चिंत हो लिया जाय। पिछली सरकारों के उनकी तरफ से काफी हद तक निश्चिंत
होने के कारण ही तो वे इतना बढ़ गए। अतः जरूरत तो यह है कि इतिहास से सबक लेते हुए
मौजूदा सरकारें नक्सलियों के प्रति पूर्णतः गंभीर व सजग रहें। उचित होगा कि अब जब
उनका प्रभाव कुछ कम हुआ है तो इस मौके का लाभ उठाया जाय और उनके इस तथाकथित
आन्दोलन को ऐसे कुचल दिया जाय कि ये फिर सिर न उठा सके।
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