शनिवार, 5 मई 2018

प्रश्न-पत्रों में बदलाव की जरूरत [अमर उजाला सेलेक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
भारत में पाठ्यक्रमों में बदलाव, शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार और पारदर्शी परीक्षा प्रणाली जैसे शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न विषयों पर बात होती रहती है, परन्तु परीक्षा में आने वाले प्रश्नों  के स्वरूप में समयानुकूल परिवर्तन करने के विषय में कभी चर्चा नहीं सुनाई देती। कोई शिक्षाविद् इस विषय में कभी चिंता नहीं व्यक्त करता या छात्रों की तरफ से भी इसे लेकर कभी आवाज नहीं उठाई जाती। शायद इस प्रकार की कोई समस्या होने की बात छात्र, समस्या को भुगतते हुए भी अभी सोच नहीं पा रहे।

बोर्ड की परीक्षा हो या किसी प्रकार की प्रतियोगी परीक्षा, अगर आप ध्यान से इनमें आने वाले प्रश्नों का अवलोकन करें, तो गणित आदि विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय में आपको एकविशेष प्रकार के प्रश्न लगभग प्रत्येक परीक्षा में मिलेंगे जैसे किअमुक घटना कब हुई थी ?’, ‘अमुक लेखकों को जन्म तिथि के क्रम में व्यवस्थित करिए’, ‘अमुक कृतियों का उनकी प्रकाशन तिथि से मिलान कीजिये’, ‘अमुक कथन किस लेखक का है?’ इत्यादि। इस प्रकार के प्रश्नों का छात्रों को लगभग हर परीक्षा में सामना करना ही पड़ता है।


अब जरा सोचिये कि इस प्रकार के प्रश्न क्यों पूछे जाते हैं ? छात्र अतीत में हो चुके युद्ध की तिथि को याद क्यों करें, इसकी उनके लिए क्या उपयोगिता होगी या इससे उनके अन्दर कौन-सी मौलिक सोच विकसित हो जाएगी। साहित्यकारों के साहित्य से इतर उनका जन्म-क्रम याद करके किसी छात्र को क्या मिल जाएगा ? आखिर छात्रों की किस योग्यता का मूल्यांकन करने के उद्देश्य से ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं ? दरअसल ऐसे प्रश्न पूछने का एक ही उद्देश्य होता है कि छात्रों की स्मरण क्षमता का मूल्यांकन किया जा सके। इसी उद्देश्य से ऐसे प्रश्न कक्षा बढ़ने के साथ अपनी कठिनता और जटिलता में वृद्धि करते हुए परीक्षा में आते रहते हैं।

अब कहा जा सकता है कि छात्रों की स्मरण क्षमता का परीक्षण करने वाले ऐसे प्रश्नों में क्या बुराई है ? दरअसल हर चीज का एक समय होता है और समय के साथ वो परिवर्तन चाहती है। निश्चित ही एक समय में ऐसे प्रश्नों में कोई बुराई नहीं रही होगी, परन्तु, वर्तमान समय के लिहाज से स्मरण क्षमता परखने वाले प्रश्न छात्रों के लिए लाभकारी नहीं कहे जा सकते। आज हम जिस दौर में हैं, वो गैजेट प्रधान होने की ओर बढ़ रहा है। कम्यूटर, मोबाइल आदि उपकरण लगभग हर हाथ में पहुँचने लगे हैं। इस कारण सूचनाओं को सहेजने के लिए अब लोग मस्तिष्क पर निर्भर रहने की आदत छोड़ते जा रहे हैं। अगर हमें कोई नंबर लिखना है, तो तुरंत उसे मोबाइल में सुरक्षित कर लेते हैं। कोई जोड़-घटाव करना है, तो वो भी मोबाइल में हो जाता है। कोई तारीख याद रखनी हो, तो मोबाइल में रिमाइंडर लगा दिया जा रहा है। कहीं अखबार में कोई आंकड़ा दिखा, तो उसे याद करने की बजाय तुरंत उसका फोटो खींचकर या ऑनलाइन ही उस खबर की लिंक निकालकर रख ली जा रही है। 

कहने का आशय ये है कि इस गैजेट प्रधान युग में चीजों को याद रखने के लिए लोगों ने किसी प्रकार का अतिरिक्त प्रयास करना बंद कर दिया है, जिस कारण निष्क्रिय पड़े-पड़े हमारी स्मरण क्षमता क्षीण होती जा रही है। कभी आवश्यक होने पर यदि हम चाहते भी हैं, तो किसी बात को याद रखने के लिए बहुत अधिक प्रयास करना पड़ता है। अब ऐसे समय में परीक्षाओं में छात्रों की स्मरण क्षमता का परीक्षण करने वाले प्रश्न पूछने का कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता।

जिन विषयों में जिन चीजों को याद करना ज्ञान की दृष्टि से आवश्यक हो, वहाँ तो ऐसे प्रश्न रहने चाहिए जैसे कि गणित, विज्ञान जैसे विषयों के सूत्र आदि। परन्तु, हिंदी, इतिहास, समाजशास्त्र आदि बहुत से ऐसे विषय हैं, जिनमें इस प्रकार के प्रश्नों से परहेज किया जा सकता है। ऐसे प्रश्न परीक्षा में छात्रों का अनावश्यक भार बढ़ाते हैं और वे कुछ सीखने-जानने की बजाय पूरी परीक्षा तोता रटंत करते रह जाते हैं।   

इन प्रश्नों की जगह कुछ ऐसे रचनात्मक प्रश्न रखे जाने चाहिए जो केवल छात्रों के लिए चुनातिपूर्ण हों, बल्कि उसमें उनके लिए कुछ रचनात्मक करने का अवसर भी हो तथा जिनसे उनकी मौलिक चिंतन-शक्ति के विकास का मूल्यांकन किया जा सके। छात्रों की विश्लेषण क्षमता का परीक्षण करने वाले प्रश्न जो ऊब पैदा करते हों, प्रश्न-पत्रों में सम्मिलित किए जाने चाहिए। ये सब किया जा सकता है, बशर्ते कि इस तरफ ध्यान दिया जाए। यह केवल छात्रों को परीक्षा में तनावमुक्त रखने की दिशा में कारगर हो सकता है, बल्कि इससे उनके बौद्धिक विकास को भी गति मिलने की संभावना है। परन्तु, इस संदर्भ में चिंताजनक बात यह है कि शैक्षिक सुधारों की लम्बी फेहरिश्त में अभी इस समस्या कोई चर्चा ही नहीं सुनाई देती। इसकी तरफ किसीका ध्यान ही नहीं जाता। अब जबतक समस्या को चिन्हित कर, उसपर अध्ययन नहीं किया जाएगा, उसके समाधान पर बात होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?

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