मंगलवार, 1 मई 2018

पूर्वोत्तर में बदलाव की नई बयार [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत सप्ताह केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा पूर्वोत्तर भारत के मेघालय से पूर्णतः तथा अरुणाचल प्रदेश से आंशिक तौर पर अफस्पा हटाने का निर्णय लिया गया मेघालय के ४० प्रतिशत इलाकों में ही यह क़ानून अब रह गया था, वहाँ से भी अब इसे हटा लिया गया है वहीं, अरुणाचल प्रदेश के १६ थाना क्षेत्रों में यह क़ानून लागू था, जिनमें से आठ थाना क्षेत्रों से इसे हटाने का निर्णय गृह मंत्रालय ने लिया है। अब यह क़ानून जम्मू-कश्मीर सहित पूर्वोत्तर के मणिपुर, नागालैंड, असम आदि राज्यों में शेष रह गया है। त्रिपुरा में भी यह क़ानून लागू था, मगर वर्ष २०१५ में इसे हटा दिया गया। अफस्पा को लेकर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की राय देश में मौजूद रही है। जहाँ विविध मानवाधिकार संगठनों द्वारा हमेशा से इसके विरोध में स्वर मुखर किए जाते रहे हैं तथा इसे काला क़ानून कहा जाता रहा है। वहीं देश का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि देश की एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए यह क़ानून आवश्यक है।

क्या है अफस्पा ?
अफस्पा के समर्थन और विरोध को समझने के लिए आवश्यक होगा कि हम पहले यह जान लें कि आखिर अफस्पा है क्या ? सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनयम यानी अफस्पा देश की संसद द्वारा १९५८ में पारित किया गया एक क़ानून है, जिसके तहत हमारे सुरक्षाबलों को सम्बंधित क्षेत्र में कार्यवाही सम्बन्धी विशेषाधिकार प्रदान किए जाते हैं। इसके द्वारा प्रदत्त विशेषाधिकारों में मुख्यतः सुरक्षाबलों को बिना अनुमति किसी भी स्थान की तलाशी लेने और खतरे की स्थिति में उसे नष्ट करने, बिना अनुमति किसीकी गिरफ्तारी करने और यहाँ तक कि क़ानून तोड़ने वाले व्यक्ति पर गोली चलाने जैसे अधिकार प्राप्त हैं।
दैनिक जागरण

अफस्पा लागू होने की प्रक्रिया
किसी भी क्षेत्र में यदि उग्रवादी तत्वों की अत्यधिक सक्रियता महसूस होने लगती है, तब सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र द्वारा उस क्षेत्र को ‘अशांत’ घोषित कर वहाँ अफस्पा लागू किया जाता है तथा केन्द्रीय सुरक्षाबलों की तैनाती की जाती है।


अफस्पा के विवाद और विरोध
अफस्पा का यदि मानवाधिकार संगठनों द्वारा विरोध किया जाता है, तो इसका कारण अफस्पा लागू राज्यों में कुछ विवादास्पद मामलों का सामने आना भी है। मणिपुर में सन २००० के नवम्बर में असम राइफल्स के जवानों पर दस निर्दोष लोगों को मारने का आरोप सामने आया, जिसके विरोध और अफस्पा खत्म करने की मांग के साथ  मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गयीं, जो कि सोलह वर्ष बाद २०१५ में समाप्त हुआ। इस दौरान उन्हें नाक में नली लगाकर भोजन दिया जाता रहा।

ऐसे ही, सन २००४ में असम राइफल्स की हिरासत में मणिपुर की थांगजम मनोरमा नामक महिला के साथ सुरक्षाबलों द्वारा कथित बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया, जिसके बाद देश में मानवाधिकार संगठनों द्वारा विरोध प्रदर्शन किए गए। तब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में अफस्पा क़ानून को ‘दमन का प्रतीक’ बताते हुए इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी। हालांकि समिति अपनी इस दलील के पक्ष में कोई ठोस कारण नहीं दे सकी थी। समिति ने रिपोर्ट में कहा था, “।।।इस क़ानून को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए, लेकिन इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि उस क्षेत्र (पूर्वोत्तर) की जनता का एक बड़ा भाग चाहता है कि सेना वहाँ बनी रहे।” आशय यह था कि सेना उस क्षेत्र में बनी रहे, मगर क़ानून हटा लिया जाए। यह तत्कालीन परिस्थितियों में व्यावहारिक नहीं था। अतः समिति की सिफारिशों को ठण्ढे बस्ते में डाल दिया गया।      

हालांकि मोटे तौर पर तथ्य यही है कि चाहें कितना भी विरोध हुआ हो और सत्ता में किसी भी दल की सरकार रही हो, वो अफस्पा हटाने को लेकर विरोधी पक्ष के समक्ष कभी नहीं झुकी है।   

क्यों जरूरी है अफस्पा ?
अफस्पा देश के जिन भी राज्यों में लागू है, वहाँ की परिस्थितियों को देखें तो इसकी जरूरत समझ में आ जाती है। मणिपुर, नागालैंड, असम, जम्मू-कश्मीर इन सब राज्यों में अलग-अलग प्रकार के उग्रवादी व अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं। मणिपुर और नागालैंड में मिले-जुले उग्रवादी संगठनों का प्रभाव है, तो असम में उल्फा का प्रभाव व्याप्त है। जम्मू-कश्मीर की कहानी तो खैर देश में किसीसे छिपी ही नहीं है कि कैसे वहाँ नापाक पड़ोसी द्वारा प्रेरित आतंकवाद दहशत फैलाए रहता है। इन सब जगहों के उग्रवाद में एक समानता यह है कि ये सब देश की अखण्डता को क्षति पहुँचाने की मंशा रखते हैं। इन अराजक तत्वों की इस दुष्ट मंशा का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अफस्पा जरूरी है। यहाँ बीपी जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशों की तर्ज पर यह तर्क दिया जा सकता है कि इन तत्वों से निपटने के लिए बिना अफस्पा के भी तो सेना की तैनाती की जा सकती है ? यह तर्क कागजों में तो मजबूत दिखाई देता है, लेकिन जब धरातल की कसौटियों पर इसे परखते हैं, तो धराशायी हो जाता है।

ये ठीक है कि अफस्पा द्वारा सुरक्षाबलों को प्रदान अधिकार प्रथमदृष्टया कुछ अधिक ही निरंकुश प्रतीत होते हैं, परन्तु मामले के दूसरे पहलू को देखने पर इनका औचित्य समझ में आता है। चूंकि, सुरक्षाबलों को अफस्पा के तहत जिन क्षेत्रों में तैनात किया जाता है, वे कोई शांतिप्रिय क्षेत्र नहीं होते जहाँ सबकुछ चैनो-अमन से चल जाए, बल्कि वे घोषित रूप से ‘अशांत’ क्षेत्र होते हैं। प्रायः वे ऐसे ही क्षेत्र होते हैं, जहाँ कहीं भी कोई आतंकी तत्व हो सकता है। ऐसी जगहों पर यदि इस प्रकार के अधिकार सुरक्षाबलों के पास न रहें और हर कार्यवाही से पहले उन्हें अनुमति की विविध स्तरीय प्रक्रिया से गुजरना पड़े, तो निस्संदेह उनके लिए काम करना आत्महत्या करने जैसा ही जाएगा। ऐसे में, बिना अफस्पा के उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबलों की तैनाती उन्हें बिना किसी कवच के मौत के मुंह डालना होगा। अतः अफस्पा का विरोध करने वाले मानवाधिकारवादियों को हमारे सुरक्षाबलों के मानवाधिकार के विषय में भी कभी सोचना चाहिए।    

अफस्पा के सकारात्मक प्रभाव
यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि अफस्पा को इतने दिनों तक लागू रखने से क्या लाभ हुआ है ? इस प्रश्न का उत्तर गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत हालिया आंकड़ों में मिल जाता है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, अफस्पा प्रभावित पूर्वोत्तर के इलाकों में उपद्रवी हिंसा में ६३ फीसदी की कमी आई है। २०१७ में पूर्वोत्तर में नागरिकों की मौतों में ८३ फीसदी और सुरक्षाकर्मियों की मौतों में ४० फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक साल २००० के मुकाबले २०१७ में पूर्वोत्तर में उपद्रवी घटनाओं में ८५ फीसदी की कमी आई। वहीं, १९९७ की तुलना में सुरक्षाकर्मियों की मौत के मामले ९६ फीसदी कम रहे। पूर्वोत्तर के अलावा अफस्पा प्रभावित जम्मू-कश्मीर में भी आतंकी घटनाओं में कमी आई है।

जम्मू-कश्मीर में आए दिन पाक प्रेरित आतंकी हमलों की कोशिश होती ही रहती है, परन्तु, सुरक्षाबलों की सक्रियता के कारण ज्यादातर हमले अब नाकाम साबित होने लगे हैं और हाल के दिनों में तो आतंकियों का खात्मा भी तेजी से हुआ है। इस दौरान ५७१२ आतंकवादी घटनाओं में २३८५ आतंकवादी मारे गए, जबकि ६९० जवानो को शहादत देनी पड़ी है। सोचिये कि अगर वहाँ अफस्पा न होता तो ये क्या इन आतंकी हमलों का मुकाबला कर पाना हमारे जवानों के लिए सहज होता। अगर वहाँ सुरक्षाबलों की तैनाती न होती तो ये आतंकी आम लोगों पर किस कदर कहर बरपाते, क्या यह सोचकर मानवाधिकार संगठनों को सिहरन नहीं पैदा होती ?  इन तथ्यों के आलोक में यह स्पष्ट है कि देश की अखंडता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर अफस्पा एक आवश्यक और कारगर साबित हो रहा क़ानून है। हर क़ानून की तरह इसके भी कुछ दुरूपयोग हो सकते हैं, मगर उन दुरुपयोगों को रोकने के लिए यथासंभव प्रयास करने की बजाय इस क़ानून को समाप्त कर देने की बात करना उचित नहीं कहा सकता।

पूर्वोत्तर के प्रति दिल्ली की बदलती सोच
पूर्वोत्तर को लेकर एक बात बिना किसी हिचक के हमें स्वीकारनी होगी कि देश के इस हिस्से के प्रति शेष देश में सहज अपनत्व की भावना कम ही रही है। दुर्भाग्‍यवश आजाद भारत की कांग्रेसी सरकारों द्वारा न तो पूर्वोत्‍तर राज्‍यों के आर्थिक विकास के लिए ठोस जमीनी प्रयास किये गए और न ही उनके सामरिक महत्‍व की पहचान करने पर ही ध्यान दिया गया। हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद पूर्वोत्तर की तरफ धीरे-धीरे ध्यान दिया जाने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक़ देश की आजादी के बाद सभी प्रधानमंत्री पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर जितनी बार गए हैं, प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अकेले उससे अधिक बार पूर्वोत्तर के राज्यों का दौरा कर चुके हैं।  इसके अलावा उनकी ‘एक्ट ईस्ट’ विदेश नीति का लाभ पूर्वोत्तर के राज्यों को ही मिलना है। भारत-म्‍यांमार-थाइलैंड सुपर हाईवे इसी का नतीजा है। साथ ही, पूर्वोत्तर के लिए अलग टाइम जोन की मांग पर भी अब विचार किया जा रहा है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि पूर्वोत्तर को लेकर दिल्ली की सोच में परिवर्तन आ रहा है। अब दिल्ली के लिए पूर्वोत्तर और उसके मुद्दे महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। अच्छी बात यह भी है कि वहाँ उग्रवाद में कमी भी देखने को मिल रही, जिस कारण वर्ष २०१५ में त्रिपुरा से तो इस वर्ष मेघालय से अफस्पा पूरी तरह से हटा दिया गया है। उम्मीद करते हैं कि पूर्वोत्तर में बदलाव की ये बयार और तेज होगी तथा उसके शेष राज्य भी शीघ्र ही उग्रवाद तथा अफस्पा से मुक्त होकर एक स्वस्थ वातावरण में देश के विकास के साथ कदमताल कर सकेंगे।

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