सोमवार, 7 नवंबर 2016

वन रैंक वन पेंशन का इतिहास जानें राहुल गाँधी [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संक्सरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
वन रैंक वन पेंशन का मामला एकबार फिर गरमाया हुआ है। दरअसल गत दिनों एक पूर्व सैनिक राम किशन ग्रेवाल ने कथित तौर पर वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं के कारण आत्महत्या कर ली। बस इसके बाद से ही इस मामले पर सियासी महकमे में सरगर्मी पैदा हो गई है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल वगैरह तमाम नेता मृतक सैनिक के परिजनों से मिलने के नाम पर संवेदना की सियासत के दाव आजमाने अस्पताल पहुँच गए। लेकिन, पुलिस ने इनमें से किसीको भी अंदर नहीं जाने दिया और गिरफ्तारी आदि करके बाहर ही रखा गया। इसपर दुनिया भर का हो-हल्ला मचाया गया, मगर विपक्षी दलों की सियासी रोटियाँ नहीं सिक सकीं।  
 
वैसे, इस आत्महत्या को लेकर कई तरह के सवाल हैं। अब जैसा कि राम किशन के साथियों की मानें तो वे वन रैंक वन पेंशन की अनियमितताओं पर एक पत्र लेकर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर से मिलने जा रहे थे और इस दौरान  रास्ते में ही पार्क में बैठे-बैठे जहर खाकर आत्महत्या कर लिए। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब वे रक्षा मंत्री से मिलने जा रहे थे, तो अचानक रास्ते ऐसा क्या हो गया कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ा ? और उनके साथियों ने ऐसा करने उन्हें रोका क्यों नहीं ? यह भी बात सामने आई है कि उन्होंने आत्महत्या से पहले अपने बेटे को फोन किया था, जिसकी ऑडियो अब सामने आई है. उस ऑडियो में  वे बेटे से अपने ज़हर खाने की बात कह रहे हैं। सवाल यह कि ये कैसा बेटा है जिसने अपने पिता की कॉल रिकॉर्डिंग पर लगाईं और उनके ज़हर खाने की बात जानने पर भी चुपचाप सब सुनता रहा ? निश्चित तौर पर ये सभी सवाल न केवल इस मामले में अनेक संशयों को जन्म देते हैं बल्कि किसी गहरी साजिश की तरफ भी इशारा करते हैं। क्योंकि, यह यकीन करना मुश्किल है कि हमारी बहादुर भारतीय सेना का कोई जवान ख़ुदकुशी जैसा कायरतापूर्ण  निर्णय लेगा। वो भी तब जब वन रैंक वन पेंशन लागू है, बस कुछ छोटी-मोटी दिक्कतें हैं जिन्हें बातचीत के जरिये दूर किया जा सकता है। ऐसे में, जरूरत है कि मामले की जांच हो और सच्चाई सामने आए।  
 
दैनिक जागरण
इसी क्रम में यदि वन रैंक-वन पेंशन मामले को समझने का प्रयत्न करें तो इसका अर्थ यह है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत हुए एक ही रैंक के जवानों को बराबर पेंशन दी जाय या उनकी पेंशन में अधिक अंतर न रहे। अभी स्थिति यह है कि जो सैन्य अधिकारी या सैनिक जब सेवानिवृत हुए हैं, उन्हें पेंशन के तत्कालीन नियमों के हिसाब से पेंशन मिलती है। अब चूंकि सेना के पेंशन के नियम कई बार बदले हैं। ब्रिटिश शासन के समय फौजियों की पेंशन उनकी तनख्वाह की ८३ प्रतिशत थी जिसे आज़ादी के बाद सन १९५७ में मौजूदा कांग्रेस  सरकार ने कम कर दिया और इसके मद से सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों जिन्हें तब वेतन का ३३ फीसदी पेंशन मिलती थी, की पेंशन को बढ़ा दिया। आगे १९७१ की लड़ाई में हमारे सैनिकों की बहादुरी का इनाम इंदिरा गाँधी ने सन १९७३ में उनकी 'वन रैंक वन पेंशन' ख़त्म करके दिया। सिविल कर्मियों की पेंशन बढ़ाई गई और इसकी भरपाई सेना की पेंशन काटकर की गई। फिर आए इंदिरा-पुत्र राजीव गाँधी जिन्होंने सेना की बेसिक पे में भी कमी कर दी, जिससे सैनिकों की पेंशन और भी कम हो गई। इन्हीं चीजों के बाद हमारे जवानों को आभास हुआ कि ये लोग सिर्फ मुंह के सेना प्रेमी हैं और तभीसे वन रैंक वन पेंशन का मामला उठने लगा। इसे कांग्रेस की सरकारें समिति गठन कर टालती रहीं।
 
सन १९७१ में सेना के पेंशन के नियम यूँ थे कि सैनिक को उसके वेतन का ७५ प्रतिशत जबकि सैन्य अधिकारियों को ५० फीसदी पेंशन मिलती थी जिसे बाद में तीसरे वेतन आयोग ने घटाकर ५० फीसदी कर दिया। इस तरह सन १९७१ में सेवानिवृत हुए फौजियों तथा उसके बाद सेवानिवृत हुए फौजियों की पेंशन में भारी अंतर है। आगे भी जब-तब पेंशन के नियम बदले और ये अंतर भी आता गया। गौर करें तो सन २००५ और २००६ के में सेवानिव्रूत हुए फौजियों की पेंशनों के बीच लगभग १५००० रूपये तक का अंतर आ गया। स्थिति यह है कि २००६ के बाद सेवानिवृत कर्नल २००६ से पूर्व सेवानिवृत अपने से उच्च रैंक के मेजर जनरल से अधिक पेंशन पाता है। इन विसंगतियों के मद्देनज़र फौजियों की मांग थी कि सेना में एक रैंक-एक पेंशन की व्यवस्था कर दी जाय जिसके तहत एक रैंक के अलग-अलग समय पर सेवानिवृत दो फौजियों की पेंशनों में कोई अंतर न हो। मोदी सरकार ने ये लागू भी किया है, लेकिन कुछेक बिन्दुओं पर असहमति थी, जिसपर सरकार ने कदम उठाने का आश्वासन दिया है। दरअसल सरकार ने हर पांच साल में ओआरओपी के तहत पेंशन की समीक्षा का प्रावधान रखा है, जबकि सैनिक चाहते हैं कि ये सालाना स्तर पर हो, जिससे पेंशन में निरंतर रूप से समानता बनी रहे। सरकार ने ओआरओपी के २०१३ को आधार वर्ष मन है, जबकि सैनिकों की मांग है कि आधार वर्ष २०१५ को बनाया जाय, जिससे उन्हें अधिक लाभ मिल सके। अभी तक सिर्फ उसी जवान को पेंशन का लाभ मिलता है, जो पंद्रह साल तक सेवा दिया हो। पूर्व सैनिक चाहते हैं कि पंद्रह वर्ष से कम समय में मेडिकल या किसी अन्य कारण से निकाले जाने वाले जवानों को भी पेंशन का लाभ मिले। बस इसी तरह की कुछेक और मांगें हैं, जो पूर्व सैनिक कर रहे हैं। निस्संदेह सरकार को यथाशीघ्र इन मांगों को पूरा करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।  लेकिन, आज जो राहुल गांधी अस्पताल के बाहर नौटंकी कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि मोदी सरकार से सवाल पूछने की बजाय पहले अपनी महान मम्मी जी से जाकर पूछें कि माँ, दादी और पापा ने हमारे जवानों के साथ ऐसा क्यों किया था ? और उन्होंने जो किया सो किया, दस साल तो सत्ता में राहुल गांधी और उनकी मम्मी की ही चलती रही, फिर उन्होंने सैनिकों की इस समस्या को क्यों नहीं समझा ? आज राम किशन ग्रेवाल की आत्महत्या पर मौजूदा सरकार पर फिजूल आरोप लगाकर निशान साधने वाले कांग्रेसी अगर एकबार अपनी गिरेबान में झांक लें तो शर्म से चेहरा लटक जाएगा।

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