सोमवार, 16 सितंबर 2013

भाजपा में नए नेतृत्व का दौर [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

अमर उजाला कॉम्पैक्ट
सच ही कहा गया है कि उगते सूरज को दुनिया सलाम करती है, डूबते को कोई नही ! ये कहावत फिलहाल भाजपा और उसके पितामह आडवाणी पर एकदम सटीक बैठ रही है ! भाजपा के भीष्म कहे जा रहे लालकृष्ण आडवाणी समेत पार्टी के कई छोटे-बड़े नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए आखिर भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बतौर पीएम प्रत्याशी घोषित कर ही दिया गया ! दरअसल आडवाणी के मोदी विरोध के पीछे जो प्रमुख कारण है वो यही है कि आडवाणी अबतक अपने आप को पीएम इन वेटिंग मान रहे थे ! आडवाणी के ऐसा मानने के पीछे भी एक कारण था वो ये कि अगर आज जनता में मोदी की लहर नही होती, तो लगभग तय था कि लोकसभा २०१४ में भाजपा के पीएम प्रत्याशी एकबार फिर आडवाणी ही होते ! भले ही २००९ लोकसभा चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा विफल रही हो, पर फिर भी मोदी की इस साल दो साल में उपजी आकस्मिक लोकप्रियता के न होने की स्थिति में लोकसभा २०१४ में भी वो आडवाणी पर ही दाव खेलती ! बस आडवाणी इसी उम्मीद पर टिके थे, लेकिन मोदी की लोकप्रियता ने आडवाणी की सारी सोच को ही उलट दिया ! यही वजह है कि आडवाणी घुमा-फिराकर मोदी की पीएम उम्मीदवारी में अड़ंगा खड़ा करते दिखते रहे हैं, वर्ना आडवाणी जैसा नेता ये समझने में बिलकुल भी नही चूक सकता कि वर्तमान समय मोदी का है और मोदी में ही पार्टी का हित भी है ! इसे आडवाणी की मानसिकता का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अपने लंबे राजनीतिक सफर  के अंतिम समय में वो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जिसका पूरा होना काफी कठिन है, के लिए पार्टी के हित की भी परवाह नही कर रहे हैं ! आडवाणी का ये रवैया कुछ और करे न करे, पर राजनीति के अंतिम दिनों में पार्टी से लेकर आम लोगों तक उनकी छवि जरूर खराब करेगा !
  वैसे, मोदी की पीएम उम्मीदवारी का विरोध कर रहे सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी आदि नेताओं को तो जस तस भाजपा ने मना भी लिया, पर लाख कोशिशों के बाद भी आडवाणी को नही मनाया जा सका ! अब आडवाणी की नाराजगी का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि वो मोदी की पीएम उम्मीदवारी की घोषणा के समय मौजूद तक नही रहे ! हालाकि इस घोषणा के बाद खुद मोदी आशीर्वाद लेने तथा भाजपा के अन्य कई नेता आडवाणी से मिलने उनके निवास पर जरूर गए, पर इसमे अधिक संशय नही कि इन नेताओं का आडवाणी के पास जाने का उद्देश्य सिर्फ उनके प्रति शिष्टाचार प्रकट करना था, न कि इसमे कोई बड़ा राजनीतिक निहितार्थ था ! वैसे आडवाणी का ये मोदी विरोध तो काफी पहले से ही चर्चा में आ चुका था ! अपने तमाम बयानों के द्वारा आडवाणी ने पहले ही संकेत दे दिया था कि वो मोदी का समर्थन नही करने वाले ! हालाकि आडवाणी जैसे कद्दावर नेता के इस विकट विरोध के बावजूद भी अगर भाजपा ने मोदी को बतौर पीएम प्रस्तुत करने का साहस दिखाया तो इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं ! कारण एक कि मोदी को संघ का विशेष समर्थन प्राप्त है और संघ द्वारा लगातार भाजपा पर इस बात के लिए जोर दिया जा रहा था कि वो मोदी की पीएम उम्मीदवारी सुनिश्चित करे ! दूसरा कारण ये है कि आज देश में सोशल मीडिया के द्वारा तथा अन्य तमाम प्रकार से भी मोदी की लोकप्रियता की जो लहर चल रही है, वैसी लोकप्रियता भाजपा के किसी अन्य नेता की फिलहाल तो नही ही है ! अतः इन दोनों ही बातों को ध्यान में रखते हुए भाजपा द्वारा ये आकलन किया गया होगा कि आडवाणी के विरोध से उन्हें जितना नुकसान होने की संभावना है, उससे कहीं अधिक लाभ उन्हें मोदी की पीएम उम्मीदवारी से मिल सकता है ! उसपर भी आडवाणी भाजपा को छोड़कर जा ही कहाँ रहे है ! उन्हें भाजपा में ही रहना है और देर-सबेर ही सही, उन्हें मोदी को स्वीकारना भी पड़ेगा ! क्योंकि राजनीति में आपकी वरिष्ठता आपको आदर तो दिलवा सकती है, पर लोकप्रियता नही और बगैर लोकप्रियता के आप कैसे नेता ! लिहाजा आडवाणी के लिए तो फ़िलहाल यही उचित होगा कि वो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को यहीं विराम देते हुए लोकतंत्र के इस चरित्र को स्वीकार लें कि यहाँ नेता वही बनता है, जो सर्वाधिक लोकप्रिय होता है ! आडवाणी को इस सच से भी मुह नही मोड़ना चाहिए कि अब उनका वो वक्त गया जब उनकी एक रथयात्रा ने २ सीटों वाली भाजपा को १०० सीटों के पार पहुंचा दिया था ! आज सियासत का रुख दूसरा है ! आज जनता की नज़रों में नए चेहरे हैं और चेहरों के साथ-साथ मुद्दे भी बदल चुके हैं ! आज के मुद्दे और आज के चेहरे ही आज की सियासत में जनता को समझ आते हैं और वही आज की जनता को ठीक ढंग से समझ भी सकते हैं ! कुल मिलाकर कहने का आशय इतना ही है कि आडवाणी को ये समझ और स्वीकार लेना चाहिए कि अब भाजपा में अटल-आडवाणी की गलबाही का युग गया ! ये दौर राजनाथ-मोदी की गलबाही का है जिसे निश्चित ही काफी समर्थन भी मिल रहा है ! अभी आडवाणी के लिए यही ठीक होगा कि वो भाजपा नेताओं के आग्रह को मानते हुए मोदी की पीएम उम्मीदवारी को स्वीकार लें और पार्टी का हिस्सा बनकर सबके साथ खड़े रहें ! ऐसा करके वो मोदी की पीएम उम्मीदवारी के बीच बड़ी सहजता से अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए पार्टी में मौजूद रह सकते हैं ! अगर आडवाणी ऐसा करते हैं, तो उनके लिए तो ठीक रहेगा ही, साथ ही साथ भाजपा का भी भला होगा !

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