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दैनिक जागरण राष्ट्रीय में इस लेख का एक अंश |
बीती दस जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति
में आपराधीकरण को रोकने के लिए दो फैसले
सुनाए थे ! पहला फैसला था कि कोई सांसद या विधायक जो किसी भी मामले में अदालत
द्वारा दो साल की सजा पाया हो, अपने पद के लिए स्वतः अयोग्य हो जाएगा ! और दूसरा
फैसला ये था कि जेल में रहते हुए चुनाव नही लड़ा जा सकेगा ! दरअसल, जनप्रतिनिधि
क़ानून के तहत भारतीय संविधान में ये प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति
जिसे न्यूनतम दो वर्ष की भी सजा मिली हो,
चुनाव नही लड़ सकता है ! इसी नियम को रेखांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
उपर्युक्त फैसला दिया गया ! सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि जब दो वर्ष सजा पाया
व्यक्ति चुनाव लड़ नही सकता, तो समान स्थिति में कोई व्यक्ति सांसद-विधायक के पद पर
बना कैसे रह सकता है ! राजनीति में आपराधिकरण को रोकने के लिहाज से सर्वोच्च
न्यायालय के इस फैसले को राष्ट्र द्वारा अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया, पर ठीक इसके
उलट हमारे राजनीतिक महकमे से इसके विरोध में ही सुर सुनाई दिए ! चाहें सत्तापक्ष
हो या विपक्ष इस विषय पर सभी दल एकमत खड़े देखे गए ! आखिर केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च
न्यायालय में इन फैसलों पर पुनर्विचार करने के लिए पुनर्विचार याचिका दायर की जिसमे से दागियों की
अयोग्यता वाली पुनर्विचार याचिका को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभी हाल ही में
खारिज कर दिया गया है ! सर्वोच्च न्यायालय ने दागियों की अयोग्यता पर दी गई
पुनर्विचार याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा है कि उसने ये फैसला बहुत सोच-समझकर लिया
है, अतः इसपर पुनर्विचार का कोई प्रश्न ही नही है ! हाँ, न्यायालय ने जेल से चुनाव
न लड़ने वाले फैसले पर पुनर्विचार के लिए सहमति अवश्य दे दी है ! बहरहाल, न्यायालय
कोई भी फैसला दे इससे कोई अधिक प्रभाव नही पड़ने वाला, क्योंकि दागियों को बचाने
में तन-मन से जुटी सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने वाला जनप्रतिनिधि
संशोधन का एक क़ानून पहले से ही संसद में पेश कर राज्यसभा में पारित भी करवाया जा
चुका है ! इसमे कोई दोराय नही कि शीघ्र ही वो लोकसभा में भी पारित हो जाएगा ! सरकार
के इस क़ानून पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने चुटकीले अंदाज में कहा कि सरकार भी
न्यायालय के इस फैसले को सही मानती है तभी तो वो इसे रोकने के लिए क़ानून ला रही
है, अब क्या दिक्कत है ? अब सवाल ये उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राजनीति
में आपराधीकरण को रोकने के लिए दिए गए इन फैसलों पर राजनीतिक दलों को इतनी समस्या
क्यों हो रही है ? आखिर वो क्या कारण है कि किसी भी मुद्दे पर जल्दी साथ न दिखने
वाले राजनीतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले, जिसके समर्थन में समूचे देश से आवाजे उठ
रही हैं, के विरोध में गलबाही किए खड़े हैं ? इन सभी सवालों का जवाब जानने के लिए
हमें कुछ आंकड़ों पर गौर करना होगा ! एक आंकडें के अनुसार आज संसद में सभी दलों के
मिलाकर कुल १६२ सांसदों और १४६० विधायकों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं ! बड़ी
आसानी से समझा जा सकता हैं कि ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल भला क्यों और कैसे
चाहेंगे कि राजनीति का आपराधिकरण बंद हो और सजा पाते ही सांसद-विधायक पदच्युत हो जाएं
! इस स्थिति को देखते हुए अगर ये कहें तो अतिशयोक्ति नही होगी कि सर्वोच्च
न्यायालय के इस फैसले को अगर क्रियान्वित किया जाए, तो हमारे अधिकाधिक सांसद-विधायक
अपने पद को खो देंगे और उन सीटों पर पुनः चुनाव कराने पड़ेंगे ! इसके अतिरिक्त
राजनीतिक दलों की मनमानी की हद तो ये है कि अब वो न्यायालय के जजों की नियुक्ति
संबंधी प्रावधान में भी बदलाव के लिए संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश कर चुके
हैं ! चूंकि, अभी जजों की नियुक्ति न्यायपालिका स्वयं करती है ! पर सरकार द्वारा
पेश संशोधन विधेयक के पारित होने की स्थिति में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में
सरकार का भी दखल हो जाएगा ! साफ़ है कि सरकार की मंशा जस-तस न्यायपालिका पर भी अपना
कुछ नियंत्रण स्थापित करने की ही है ! इस संबंध में सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि
सरकार के अधिकाधिक निर्णयों पर आँख बंद करके उसके विरोध में खड़े रहने वाले विपक्षी
दल भी इस विषय में सरकार के साथ खड़े हैं !
थोड़ा
ध्यान दें तो ये कोई पहला वाकया नही है जब राजनीतिक दलों द्वारा न्यायालय के फैसले
को नाकारा गया हो ! बल्कि इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश की तमाम
छोटी-बड़ी समस्याओं समेत सरकार के भ्रष्टाचार पर जब-जब कोई टिप्पणी की गई या
निर्देश दिया गया, तब-तब न्यायालय के उन निर्देशों पर ध्यान देने की बजाय सरकार के
किसी न किसी मंत्री की तरफ से न्यायालय के निर्देश को गलत ठहराने वाली प्रतिक्रिया
ही दी गई ! यहाँ बात चाहें ठण्ड में रैन बसेरों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए
गए निर्देश की करें या सरकार की गलत नीतियों और घोटालों पर मांगे गए जवाबों की, इन
सब मामलों में सरकार द्वारा न्यायालय के निर्देशों-आदेशों को स्वीकारने का मात्र
कोरम ही पूरा किया गया है ! असल स्थिति तो ये है कि शायद राजनीतिक दल चाहते ही नही
कि उनसे ऊपर कोई रहे और उन्हें किसीकी बात सुननी पड़े ! शुक्र है कि इतने के बाद भी
अभी इस देश में न्यायपालिका का कुछ हद तक वर्चश्व शेष है जिससे राजनीतिक दल लाख
निरंकुश होते हुए भी कुछ नियंत्रण में हैं ! वर्ना ये राजनीतिक दल जाने क्या-क्या
रंग दिखाते !
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सम्यक और सुदृढ़
रूप से गतिशील रहने के लिए आवश्यक होता है कि उसके तीनो स्तंभ एक दूसरे के साथ
संतुलन व सामंजस्य बिठाकर काम करें ! पर इसे भारत भूमि का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि
यहाँ लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में सामंजस्य की बजाय वैमनस्य ही अधिक देखने को
मिलता है ! खासकर कि कार्यपालिका द्वारा निरंतर रूप से न्यायपालिका के कार्यों में
हस्तक्षेप एवं उसके आदेशों की अनदेखी की कोशिश देखने को मिलती रही है ! हमारा संविधान न्यायपालिका को ये
अधिकार देता है कि वो संविधान के नियमों, मर्यादाओं का हनन होने से रोके ! पर अगर
न्यायालय के निर्णय को ही नकार दिया जाने लगे, तो ये लोकतंत्र के लिए कोई अच्छा
संकेत नही है !
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