- पीयूष द्विवेदी भारत
2019
बीतने को है, तो यह
प्रश्न मौजू हो जाता है कि हिंदी लेखन क्षेत्र के लिए ये साल कैसा रहा? यह भी कि
साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि सभी प्रकार के विषयों से सम्बद्ध कैसी किताबें इस साल
आईं और उनका कैसा प्रभाव रहा? बात की शुरुआत ‘सेपियंस’ नामक किताब के जरिये दुनिया
भर में छा जाने वाले लेखक युवाल नोआ हरारी की एक और किताब ‘होमो डायस’ से करना
उपयुक्त होगा। यह किताब मूलतः अंग्रेजी में है, लेकिन इसका हिंदी अनुवाद इस साल
आया है। यह किताब इस मायने में अनूठी है कि इसमें भविष्य का
इतिहास लिखने की कोशिश की गयी है। भविष्य का मनुष्य कैसा होगा और दुनिया की क्या
स्थिति होगी, इसका तथ्यपरक और रोचक वर्णन यह किताब करती है।
इतिहास
पुस्तकों की चर्चा में युवा लेखक प्रवीण झा की ‘कुली लाइंस’ भी उल्लेखनीय है। यह गिरमिटिया
मजदूरों और उनके वंशजों पर केन्द्रित एक गंभीर, शोधपूर्ण एवं रोचक पुस्तक है।
पाठकों द्वारा इस किताब को मिला अच्छा प्रतिसाद दिखाता है कि युवा लेखक कथा-कविता
के सुरक्षित घेरे को छोड़ने का साहस यदि कर सकें तो अन्य क्षेत्रों में भी उनके लिए
भरपूर संभावनाएं बनी हुई हैं।
वरिष्ठ
भाजपा नेता और गंभीर चिंतक-लेखक ह्रदय नारायण दीक्षित की इस साल ‘ज्ञान का ज्ञान’
नामक एक महत्वपूर्ण किताब आई है। ईशावास्योपनिषद, प्रश्नोंपनिषद, माण्डुक्योपनिषद
और कठोपनिषद इन चारों उपनिषदों के श्लोकों का भाष्य इस पुस्तक में लिखा गया है।
भारत के उपनिषदीय ज्ञान को सामान्य लोगों के लिए सहज प्रस्तुति देने में यह पुस्तक
उपयोगी प्रतीत होती है।
इस
क्रम में वरिष्ठ लेखक प्रमोद भार्गव की पुस्तक ‘दशावतार’ का जिक्र जरूरी होगा।
भगवान विष्णु के दस अवतारों की विज्ञानसम्मत दृष्टि के साथ व्याख्या करती इस
औपन्यासिक कृति में रोचकता और गंभीरता का बहुत सुंदर समावेश मिलता है। जिन अवतारों
को मिथकीय प्रसंग मानकर देखा जाता है, उन्हें जैविक विकास की प्रक्रिया से जोड़ते
हुए वैज्ञानिक धरातल देने का अच्छा प्रयास इस पुस्तक में किया गया है।
राजनीतिक
किताबों के लिहाज से भी ये साल अच्छा रहा है। चर्चित लेखक विजय त्रिवेदी की पुस्तक
‘बीजेपी : कल, आज और कल’ इसी साल आई जो भारतीय जनता
पार्टी को उसकी विकास यात्रा के आईने में समझने का प्रयास करती है। प्रथम प्रधानमंत्री
पं. जवाहर लाल नेहरू पर केन्द्रित पत्रकार पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू : मिथक और
सत्य’ भी उल्लेखनीय है। यह किताब दावा करती है कि इसमें नेहरू को लेकर फैलाए गए
कथित झूठ और विभ्रमों को ख़त्म कर उनके सत्य को सामने लाया गया है। अपने दावे पर यह
किताब कितनी खरी है, इसकी पड़ताल तो इतिहासकार ही करेंगे, लेकिन संशय नहीं कि अपने
विषय और प्रस्तुति के लिहाज से यह एक पढ़े जाने लायक किताब है।
हिंदी
माध्यम से आईएएस की परीक्षा निकालकर अधिकारी बने निशांत जैन की प्रेरणादायक
(मोटिवेशनल) पुस्तक ‘रुक जाना नहीं’ बीते नवम्बर में आई है। यह किताब प्रतियोगी
परीक्षाओं के छात्रों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसमें व्यक्तित्व विकास,
परीक्षा के दौरान तनावमुक्त रहने, समय प्रबंधन, लेखन कौशल आदि पर बात की गयी है।
प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए यह पुस्तक सहायक सिद्ध हो सकती है।
कविता
कोश वेबसाइट से इंटरनेट पर सक्रिय कोई साहित्यप्रेमी शायद ही अपरिचित हो, इसी कविता कोश के संस्थापक ललित कुमार की किताब
‘विटामिन जिंदगी’ भी इस साल आई है और निश्चित ही साल की एक ख़ास किताब है। यूँ तो
यह किताब लेखक के निजी संस्मरणों की है, लेकिन पढ़ने में यह केवल एक व्यक्ति के
जीवन का दस्तावेज मात्र नहीं लगती बल्कि जीवन-संघर्ष में जूझते हर व्यक्ति के लिए
प्रेरणास्पद प्रतीत होती है।
नीलोत्पल
मृणाल का उपन्यास ‘औघड़’ भी इस साल आई एक उल्लेखनीय किताब है। यह ठीक है कि गंभीर
से गंभीर विषय को हल्के-फुल्के और मजेदार अंदाज में प्रस्तुत करने का कौशल नयी
वाली हिंदी के लेखकों के पास है, लेकिन इस कौशल का असल लाभ हिंदी साहित्य को तब
मिलेगा जब वे अपने समय से आगे देखते हुए उस भविष्य को अपने साहित्य में लाने का साहस
करेंगे। समय से आगे देखने के संदर्भ में इस साल आए रत्नेश्वर सिंह के उपन्यास ‘एक
लड़की पानी पानी’ का जिक्र समीचीन होगा। यह उपन्यास भावी जल संकट की आधार कथा के
साथ स्त्री-नेतृत्व की बात भी करता है। इससे पूर्व ‘रेखना मेरी जान’ उपन्यास
में रत्नेश्वर ग्लोबल वार्मिंग के भावी दुष्परिणामों पर लिख चुके हैं। ये किताबें
उन विषयों को छू रही हैं जिनपर आज हिंदी में बहुत कम साहित्य मिलता है लेकिन आने
वाले समय की चुनौतियाँ यही हैं।
चर्चित
लेखक यतीन्द्र मिश्र के संपादन में इस साल आई अख्तरी भी साल की एक चर्चित किताब है
जो मशहूर गायिका बेगम अख्तर के व्यक्तित्व, संगीत और उनके जीवन-वृत्त में समाहित
दुर्लभ किस्सों-कहानियों को समेटे हुए है। यह किताब साल की शुरुआत में आई और पूरे
साल चर्चा में रही। संगीत से ही सम्बंधित एक और किताब ‘माया का मालकौंस’ भी
उल्लेखनीय है। पत्रकार व लेखक सुशोभित की इस किताब में हिंदी फिल्मों के गीतों का उसके
बोल, संगीत, उसमें चल रहे दृश्य, अभिनय आदि विभिन्न बिन्दुओं के आधार पर विश्लेषण
किया गया है। हालांकि इसका आकार में काफी छोटा होना इसके प्रभाव को कुछ कम अवश्य
करता है, लेकिन तब भी तमाम किताबों की भीड़ में यह अपनी अलग उपस्थिति दर्ज कराती है।
लोकप्रिय
अपराध कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा ‘हम नहीं चंगे बुरा न कोय’ भी साल की एक उल्लेखनीय
किताब है। गौरतलब है कि हिंदी साहित्य के विचारधारा विशेष के मठाधीशों ने
सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा जैसे लोकप्रिय लेखकों
के लेखन को लुगदी साहित्य कहकर मुख्यधारा से बाहर रखा लेकिन आज जब हिंदी का एक
प्रतिष्ठित प्रकाशन सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा को प्रकाशित कर रहा है,
तो लगता है कि अब साहित्य में लोकप्रिय लेखन से परहेज की प्रवृत्ति
का क्षरण होने लगा है जो हिंदी साहित्य के लिए एक शुभ संकेत ही है।
लोकप्रिय लेखन की तरह ही मंचीय कविता के प्रति भी
हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के मठाधीश बौद्धिकों में एक उपेक्षा की भावना रही है।
वे इस प्रकार की कविता और इसके कवियों को उपेक्षात्मक दृष्टि से देखते रहे हैं। लेकिन
इस साल आई लोकप्रिय मंचीय कवि डॉ. कुमार विश्वास की किताब ‘फिर मेरी याद’ ने पाठकों
में जो लोकप्रियता प्राप्त की, इसके बाद इन बौद्धिकों को अपनी राय बदलने पर अवश्य
विचार करना चाहिए। स्पष्ट है कि लगभग हर तरह के विषयों व विधाओं में कोई न कोई
अच्छी किताब इस साल आई है, अतः हिंदी किताबों के मामले में यह साल विविधतापूर्ण और
समृद्ध कहा जा सकता है।
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