बुधवार, 22 जनवरी 2020

शोध की गुणवत्ता का प्रश्न [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

किसी भी देश की उच्च शिक्षा में शोध का विशेष महत्व होता है। कहीं न कहीं इसीसे अमुक देश की उच्च शिक्षा की स्थिति का पता भी चलता है। लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इस मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है। यह चिंता शोध की मात्रा को लेकर नहीं है, क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की मात्रा में कोई कमी नहीं है बल्कि उसमें तो लगातार वृद्धि ही हो रही है, लेकिन जब प्रश्न शोध की गुणवत्ता और उपयोगिता का आता है तो स्थिति चिंताजनक लगने लगती है। देश में शोध की मात्रा में किस प्रकार वृद्धि हो रही है, इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की इस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसके अनुसार वर्ष 2014-15 में देश के विश्वविद्यालयों में जहां कुल 25 हजार शोध हुए थे, वहीं 2018-19 में इनकी संख्या बढ़कर 41 हजार तक जा पहुंची है।
शोध की इस मात्रा-वृद्धि के पीछे के कारणों को समझने का प्रयत्न करें तो इसका एक प्रमुख कारण इंटरनेट के प्रसार से बीते कुछ सालों के दौरान हुई देशव्यापी सूचना क्रांति प्रतीत होती है क्योंकि इन दोनों का कालखंड लगभग समानांतर ही है। 2014 के बाद से ही इंटरनेट का प्रसार देश में बढ़ने लगा था और फिर जिओ के आगमन ने तो इसे सर्वसुलभ ही बना दिया। सो प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं इंटरनेट के द्वारा हर प्रकार की सूचनाओं की सुलभता ने छात्रों के मन में शोध की कठिनाइयों का एक सीमा तक सरलीकरण करने का काम किया है, जिस कारण इसके प्रति उनमें रुझान बढ़ा है। यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह प्रश्न यथावत है कि क्या मात्रा के अनुरूप शोध की गुणवत्ता और उपयोगिता में भी कोई वृद्धि हुई है? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही है।

इस स्थिति को देखते हुए ही यूजीसी अब ऐसे दिशानिर्देश तैयार करने में जुटा है, जिसके जरिये शोध की गुणवत्ता ही नहीं, उसकी उपयोगिता भी सुनिश्चित की जा सके। इसके जरिये सरकार की कोशिश देश में होने वाले ऐसे तमाम शोधों, जो समाज या उद्योग के हितों की दृष्टि से कोई महत्व नहीं रखते और केवल शैक्षिक दिखावे के लिए हो रहे हैं, पर लगाम लगाने की है। अतः यूजीसी जिन नए दिशानिर्देशों को बना रहा है, उनके तहत किसी भी नए शोध को मंजूरी दिलाने के लिए उसे सामाजिक और औद्योगिक उपयोगिता की कसौटी पर खरा सिद्ध होना होगा। जाहिर है, इस पहल के जरिये सरकार का प्रयास सही और योग्य छात्रों को अवसर देकर शोध की गुणवत्ता व उपयोगिता में सुधार लाना  तो है ही, साथ ही शोध क्षेत्र से सम्बंधित संसाधनों का अनुचित लाभ लेने वाले दिखावे के शोधार्थियों पर अंकुश लगाना भी है। सरकार का मानना है कि किसी भी शोध का मूल उद्देश्य समाज और आम जनजीवन से जुड़ी समस्याओं के समाधान का मार्ग दिखाना होना चाहिए लेकिन देखा जाए तो भारत में होने वाले अधिकांश शोध इस कसौटी पर बिलकुल खरे नहीं उतरते।
आईआईटी आदि संस्थानों के कुछ शोधों को अपवाद मान लें तो ऐसा न के बराबर ही सुनने में आता है कि देश के किसी शैक्षिक संस्थान में समाज व आम आदमी के जीवन की किसी समस्या का समाधान करने वाला कोई शोध हुआ है। देश की पत्र-पत्रिकाओं में भी अक्सर येल, ऑक्सफ़ोर्ड आदि अनेक विदेशी शैक्षिक संस्थानों में हुए विविध शोधों की ख़बरें दिखती रहती हैं, लेकिन क्या यह सवाल कभी आपके मन में उठा है कि किसी भारतीय विश्वविद्यालय के शोध की खबर क्यों नहीं दिखाई देती? कहना न होगा कि ये बातें भारतीय विश्वविद्यालयी शोध की गुणवत्ता की वस्तुस्थिति का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं।
वस्तुतः यह समस्या ऐसी है जिसमें किसी एक व्यक्ति, संस्था या कारण को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। नीति-निर्धारकों की समस्या यह है कि वे छात्रों के प्रति दोष-दृष्टि तो रखते हैं, परन्तु व्यवस्था की विसंगतियों पर नजर नहीं डालते। यह नहीं देखते कि विश्वविद्यालय के जिन शिक्षकों के मार्गदर्शन में छात्र शोध करते हैं, वे कितने योग्य हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षकों की अयोग्यता की बातें जब-तब सामने आती रही हैं जो कि विश्वविद्यालयी शिक्षण व शोध से जुड़ी एक बड़ी समस्या है।
दूसरी तरफ छात्रों पर यह आरोप लगता है कि वे शोध के लिए मिलने वाली अनुदान राशि का उपयोग पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह तथा रोजगार खोजने के लिए करते हैं और जैसे ही अच्छा रोजगार मिलता है, शोध को अधूरा छोड़ निकल जाते हैं या फिर जैसे-तैसे पूरा कर लेते हैं। चूंकि शोध करते वक्त छात्र की उम्र पारिवारिक दायित्व उठाने वाली हो जाती है, अतः यदि वो प्राप्त अनुदान राशि का कुछ उपयोग इस रूप में करता है तो गलत नहीं है, लेकिन यदि कोई छात्र शोध अधूरा छोड़कर, अपने विषय से अलग किसी अन्य क्षेत्र में कोई रोजगार प्राप्त कर चला जाता है, तो इसे नैतिक रूप से ठीक नहीं कहा जा सकता। ऐसे छात्रों से अनुदान राशि वापस लेने पर विचार किया जा सकता है।
इन सबसे अलग शोध की गुणवत्ता में कमी का एक प्रमुख कारण इसके प्रति शोधार्थियों की अगंभीर मानसिकता है। चूंकि स्नातकोत्तर के बाद पीएचडी रोजगार के लिए आवश्यक है, इसलिए बहुत-से छात्र बेमन से भी शोध में संलग्न होते हैं और शोध ग्रन्थ की गुणवत्ता से इतर इस प्रयत्न में रहते हैं कि किसी भी तरह शोधकार्य पूरा हो और डाक्टरेट की उपाधि मिल जाए। कई बार शिक्षकों की अयोग्यता भी इसमें सहयोगी भूमिका निभाती है। फिर अलग-अलग शोधों और इंटरनेट से लम्बी-लम्बी नकल उतार लेने से लेकर पैसे देकर के थीसिस लिखवाने जैसे कृत्य तक किए जाते हैं। हालांकि शोधकार्य में नकल रोकने के लिए यूजीसी ने कुछ सख्त नियम बनाए हैं और सॉफ्टवेयर भी लाया गया है, लेकिन शोध के प्रति छात्रों में अगम्भीरता और बेपरवाही की मानसिकता तथा शिक्षकों में योग्यता का अभाव जबतक खत्म नहीं होता, इन सब चीजों से बहुत लाभ की उम्मीद बेमानी है।
छात्रों को समझना चाहिए कि शोध केवल एक डिग्री प्राप्ति का उपक्रम भर नहीं होता बल्कि उसके द्वारा देश और समाज को दिशा देने का काम भी किया जाता है। इससे किसी भी देश की उच्च शैक्षिक व्यवस्था के स्तर का परिचय भी मिलता है। अतः यदि शोधकार्य में हाथ डालते हैं, तो उसे पूरे मनोयोग से, अपना एक लक्ष्य बनाकर करें। इस प्रकार से किया गया शोध न केवल व्यक्तिगत रूप से उनके लिए बल्कि देश-समाज के लिए भी हितकारी होगा।

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