बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

अपनी मर्यादा और दायित्वों को समझे सोशल मीडिया [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

बुलंदशहर गैंगरेप प्रकरण को राजनीतिक साजिश बताने वाले समाजवादी नेता आज़म खां के बयान के खिलाफ पीड़ित पक्ष द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया के संदर्भ में भी कई महत्वपूर्ण व चिंतनीय बातें कही। न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सोशल मीडिया पर अदालती निर्णयों के पक्ष-विपक्ष में होने वाली बहसों, कठोर टिप्पणियों अदि पर भी चिंता जताई। इस तरह के आरोपों कि कई न्यायाधीश सरकार के समर्थक हैं, को सिरे से खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि जिन्हें ऐसा लगता है, वे न्यायालय में बैठकर देखें कि कैसे सरकार की खिंचाई होती है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय के बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने एक समाचार चैनल को दिये अपने बयान में कहा था कि शीर्ष न्यायालय के कई न्यायाधीश सरकार समर्थकहैं। इसके अलावा सोशल मीडिया पर भी तमाम सरकार विरोधी लोगों द्वारा न्यायालय के कई निर्णयों को सरकार समर्थक बता दिया जाता है। दरअसल इस तरह के आरोप निराधार हैं और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कमजोर करने वाले हैं। इनसे बचने की जरूरत है।

वास्तव में, आज सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के ऐसे विकसित मंच के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जहां सबकुछ गोली की तरह तेज और तुरंत चलता है। यहाँ जितनी तेजी से विचारों का प्रवाह होता है, उतनी तीव्रता से उनपर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं और उनका फैलाव भी होता जाता है। मीडिया के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में ऐसी तीव्रगामी प्रतिक्रिया की कोई व्यवस्था नहीं है, परन्तु सोशल मीडिया इस मामले में विशिष्ट है। इसकी इस विशिष्टता के अच्छे और बुरे दोनों परिणाम सामने आने लगे हैं।
अच्छे परिणामों की बात करें तो कोई भी विषय खबरों में आया नहीं कि अगले सेकंड या मिनट में ही वो सोशल मीडिया पर कमोबेश अपनी मौजूदगी दर्ज कराने लगता है। पोस्टें, टिप्पणियां, हैशटैग चलने लगते हैं। यहाँ तक कि अब कई मामलों में ख़बरों को लेकर सोशल मीडिया मुख्यधारा मीडिया को भी प्रभावित करने लगी है। अक्सर छोटी ख़बरें सोशल मीडिया पर चर्चित होते ही मुख्यधारा मीडिया में भी चर्चा पा जा रही हैं। सरकार के निर्णयों और नीतियों को लेकर सवाल-जवाब कर दबाव बनाने में भी सोशल मीडिया ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज कराई है। सोशल मीडिया की ताकत को समझते हुए मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तमाम मंत्री भी इसके जरिये लोगों से जनसंवाद करने और उनकी समस्याएँ सुनने लगे हैं। इस प्रकार सोशल मीडिया के अनेक सकारात्मक प्रभाव हुए हैं, मगर अब कुछ बात इसके नकारात्मक प्रभावों की करते हैं।
सोशल मीडिया पर विचारों का प्रवाह जिस गति से होता है, उसमें सही-गलत देखने और विचारने का अवसर नहीं होता। तथ्यों का परीक्षण किए बिना ही लोग एकदूसरे की देखादेखी में जो न सो पोस्ट करते जाते हैं। इस चक्कर मे अक्सर गलत और भ्रामक चीजें भी प्रचारित हो जाती हैं, जिनके कारण दंगा-फसाद होने से लेकर गलत धारणाएँ पैदा होने जैसी बातें अक्सर सामने आती रही हैं। इस बात को इस उदाहरण के जरिये समझा जा सकता है कि अभी हाल ही में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई, जिसके बाद कर्नाटक पुलिस तो मामले की जांच में लग गयी, मगर सोशल मीडिया पर एक खेमे के लोगों द्वारा खुद ही जज बनते हुए इस हत्या के लिए संघ-भाजपा को दोषी बताया जाने लगा। जबकि पुलिस की जाँच में अबतक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है। इस प्रकार के अनेक मामले हैं, जिनमें सोशल मीडिया ने ऐसे बेहद गैर-जिम्मेदाराना और अमर्यादित रवैये का परिचय दिया है।    

इसके अलावा सोशल मीडिया की बहसों के क्रम में भाषा से लेकर हर प्रकार की मर्यादाओं को धता बता दिया जाता है। स्वयं की बात को अंतिम सत्य सिद्ध करने की हठ में जुटे लोगों के बीच बहस के नामपर कोई मर्यादा शेष नहीं रह जाती। किसी व्यापक विषय की बहस व्यक्तिगत आक्षेपों से होते हुए कब गाली-गलौज और धमकी पर पहुँच जाती है, पता भी नहीं चलता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नामपर किसी भी व्यक्ति पर कोई भी आरोप लगा देना, कुछ भी कह देना, इस माध्यम का चरित्र बनता जा रहा है। न्यायालयों के निर्णयों और न्यायाधीशों पर होने वाली टिप्पणियां भी इसी प्रवृत्ति का उदाहरण हैं। 

ऐसा नहीं है कि इन विसंगतियों की रोकथाम के लिए क़ानून या तंत्र नहीं है। बेशक साइबर क्राइम विभाग इस सम्बन्ध में सक्रिय है, परन्तु चिंताजनक सोशल मीडिया पर इस प्रकार की प्रवृत्तियों का मौजूद होना है। सोशल मीडिया का स्वरूप ऐसा है कि उसपर नियंत्रण का कोई भी तंत्र पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो सकता। तिसपर किसी प्रकार की अनुचित और अभद्र टिप्पणी के लिए कार्रवाई किए जाने पर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बता देने का चलन तो खैर इस देश में बहुत तेजी से जोर पकड़ता जा रहा है। सोशल मीडिया के बयानवीर भी यही करते हैं।

किसी भी शक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रयोग होते हैं। सोशल मीडिया भारत में अभी अपने यौवानोत्कर्ष पर है, इसलिए उसकी आक्रामकता स्वाभाविक है, परन्तु यहाँ उसे अपनी मर्यादाओं और जिम्मेदारियों को समझना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझते हुए उसका दुरूपयोग करने से बचने की जरूरत है। ऐसा न हो कि सोशल मीडिया के धुरंधरों की ये नादानियाँ सत्ता को इस माध्यम पर अंकुश लगाने का अवसर दे बैठें।

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