शनिवार, 28 मार्च 2015

कितनी कारगर होगी नई स्वास्थ्य नीति[नेशनल दुनिया, प्रजातंत्र लाइव और दैनिक जागरण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

नेशनल दुनिया 
मोदी सरकार इस वर्ष देश में नई स्वास्थ्य नीति लाने की कवायदें शुरू कर चुकी है । नई स्वास्थ्य नीति का एक मसौदा लोगों की राय के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाईट पर डाला जा चुका है । अब लोगों की राय आने के बाद विचार-विमर्श करके सरकार जल्द ही देश के लिए एक नई स्वास्थ्य नीति लाएगी । इसके मौजूदा मसौदे में शिक्षा की ही तरह स्वास्थ्य को भी लोगों का बुनियादी अधिकार बनाने की पैरवी की गई है । इसमें स्वास्थ्य बजट को देश के सकल घरेलू उत्पाद के १.२ फीसदी से बढ़ाकर २.५ फीसदी तक करने का प्रस्ताव भी रखा गया है । साथ ही, देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ाए जाने तथा अधिकाधिक विदेशी निवेश लाने की बात भी कही गई है । बहरहाल, यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या इस नई स्वास्थ्य नीति के आ जाने से देश के स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाली दूर हो जाएगी ?
  आज राजस्व और रोजगार दोनों ही लिहाज से स्वास्थ्य देश का बेहद बड़ा क्षेत्र बन चुका है, लेकिन बावजूद इसके देश में इस क्षेत्र की हालत बदहाल है । आलम ये है कि स्वास्थ्य के मामले में भारत अपने सामने कहीं नही ठहरने वाले बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों से भी काफी पीछे हो चुका है एक आंकड़े की माने तो जहाँ भारत द्वारा अपने सकल घरेलू उत्पाद का बमुश्किल १.२ प्रतिशत स्वास्थ्य संबंधी चीजों पर खर्च किया जाता है, वहीँ बांग्लादेश और नेपाल आदि देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का डेढ़ प्रतिशत तथा उससे भी अधिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं
प्रजातंत्र लाइव
ये आंकड़ा भारत के लिए किसी लिहाज से ठीक नही कहा जा सकता क्योंकि इन देशों के मुकाबले भारत की आर्थिक दशा काफी बेहतर है, जिसका पता इसीसे चलता है कि इन सभी देशों को भारत द्वारा आर्थिक, संसाधनिक आदि तमाम तरह की सहायता दी जाती है इसके अतिरिक्त तमाम और भी ऐसे आंकड़े हैं जो भारत की स्वास्थ्य संबंधी दुर्दशा को बखूबी उजागर करते हैं जैसे कि जहाँ भारत में प्रसव के दौरान शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर ५२ है, वहीँ श्रीलंका और नेपाल में ये आंकड़ा प्रति १००० पर क्रमशः १८ और ३८ है खून की कमी के कारण एनेमिया रोग से पीड़ित भी भारत में बड़ी संख्या में मौजूद हैं इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारे ऐसे तथ्य जिन्हें देखते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में देश की बदहाल व्यवस्था को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है यहाँ सवाल ये उठता है कि आखिर वो कौन से कारण हैं कि हम उन देशों से भी स्वास्थ्य के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं, जो काफी हद तक हमारी मदद पर आश्रित हैं ? अब अगर इस सवाल का जवाब तलाशने का प्रयास करें तो कई बातें सामने आती हैं    सबसे बड़ी बात कि हमने अपनी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों पर अपनी आबादी के मुताबिक कभी खर्च किया और ही उसे संजीदा लिया हालांकि ये सही है कि भारत सरकार अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी बजट में प्रतिवर्ष कुछ कुछ वृद्धि करती है, पर वो वृद्धि इस बड़ी आबादी वाले देश के लिए कारगर सिद्ध नही हो पाती वृद्धि के कारगर सिद्ध होने के लिए दो प्रमुख कारण हैं, पहला कारण कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए ये वृद्धि पर्याप्त नही होती और दूसरे उसमे भी आधे से अधिक धन योजनाओं-कार्यक्रमों  में लगने से पहले ही भ्रष्टाचार देवता की भेट चढ़ जाता है   एनआरएचएम जैसे घोटाले इसका अच्छा उदाहरण हैं लिहाजा कुछ स्वास्थ्य सुविधाओं में निवेश की कमी तो कुछ भ्रष्टाचार के कारण आज स्थिति ये है कि भारत में आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य सुविधाएँ के बराबर दिखती हैं अब यहाँ हम बात चाहें चिकित्सकों की करें या अस्पताल में होने वाली प्राथमिक सुविधाओं की सब मामलों में भारत की हालत फिसड्डी ही दिखती  है एक आंकड़े के अनुसार आज जहाँ एक तरफ भारत में २००० लोगों की स्वास्थ्य की देखरेख के लिए मात्र एक चिकित्सक उपलब्ध है, वहीँ १००० लोगों पर महज १.३ बिस्तर की उपलब्धता है प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों की बात करें तो यहाँ न्यूनतम ३०००० व्यक्तियों पर एक चिकित्सा केंद्र उपलब्ध है । कुछेक राज्यों में तो यह संख्या प्रति १००००० लोगों पर एक चिकित्सा केंद्र की है । जाहिर है कि स्वास्थ्य संबंधी लगभग हर मामले में भारत की स्थिति डांवाडोल ही दिखती है इसके अतिरिक्त देश में ईलाज का स्तर ऐसा है कि कई बीमारियों का समुचित ईलाज यहाँ हो ही नहीं सकता, लिहाजा उसके लिए पीड़ित व्यक्ति को विदेशों की तरफ रवाना होना पड़ता है
दैनिक जागरण 
  स्वास्थ्य सुविधाओं से इतर अगर बात बीमारियों की करें तो इस मामले में भी भारत की स्थिति बदतर ही नज़र आती है   एक सर्वे के मुताबिक दुनिया में होने वाली कुल बीमारियों का पांचवा हिस्सा अकेले भारत में होता है अब सवाल ये उठता है  कि भारत जैसे सुखद जलवायु से संपन्न देश में इतनी अधिक बीमारियाँ क्यों होती है ? विचार करें तो  बीमारियों की अधिकता के लिए प्रमुख कारण देश में तमाम तरह से फ़ैल रहा पर्यावरण प्रदूषण है संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक आज भी भारत की लगभग आधी आबादी शौचालय से महरूम खुले में शौच करने को बाध्य है लिहाजा खुले में शौच के कारण होने वाले प्रदूषण से हैजा, पेचिस, खसरा, मलेरिया, पीलिया आदि तमाम जलजनित संक्रमक बीमारियां पैदा होती हैं शौच के अलावा तमाम औद्योगिक संस्थानों द्वारा तथा अन्य माध्यमों से अपशिष्ट पदार्थो का नदियों में निष्काषन होने  के कारण दिन पर दिन पेयजल में भी अशुद्धता आती जा रही है, जिससे जलजनित बीमारियाँ और भी बढ़ती जा रही हैं वायु अलग प्रदूषित हो रही है हालांकि इन समस्याओं के निदान को लेकर भी मौजूदा सरकार प्रयासरत दिख रही है । इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री द्वारा शुरू ‘स्वच्छ भारत अभियान’ काफी कारगर हो सकता है, बशर्ते कि उसे सिर्फ फोटोशूट का जरिया न बनाया जाय ।

  सही मायने में तो आज जरूरत इस बात की है कि हमारे सत्ताधीश सिर्फ स्वास्थ्य सम्बन्धी बजट पेश करके या कुछ कागजी कार्यक्रम व नीतियां बनाकर अपने दायित्वों की इतिश्री समझें, बल्कि उन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को लेकर भी गंभीरता दिखाएं अब इस नई स्वास्थ्य नीति को ही लें तो इसके प्रावधान बेशक बहुत अच्छे हैं, पर वे कारगर तभी होंगे जब जमीन पर उनका सही ढंग से क्रियान्वयन होगा, अन्यथा उनका भी वही हश्र होगा जो इस देश के अधिकाधिक योजनाओं-कार्यक्रमों का होता है । अतः उचित होगा कि नई स्वास्थ्य नीति को लाने से पहले सरकार उसके क्रियान्वयन की समुचित निगरानी के लिए कमर कस ले ।

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