रविवार, 15 मार्च 2015

किस दुनिया में रहते हैं काट्जू साहब [दैनिक जागरण राष्ट्रीय, नेशनल दुनिया और प्रजातंत्र लाइव में प्रकाशित ]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

दैनिक जागरण
अब इसे जस्टिस काट्जू की बुरी आदत कहें या चर्चा बंटोरने का अभद्र कौशल कि एक नियमित अंतराल के बाद उनकी तरफ से कोई न कोई ऐसा विवादित बयान  दे दिया जाता है, जिससे कि वे अपनी आलोचनाओं के जरिये ही सही चर्चा में आ जाते हैं। अबकी  महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस पर अपने एक विवादित ब्लॉग के कारण काट्जू साहब चर्चा में हैं। अभी हाल ही में उन्होंने अपने ब्लॉग ‘सत्यं ब्रूयात’ और अपने फेसबुक अकाउंट पर एक लम्बी पोस्ट में महात्मा गांधी के विषय में कई विवादित बातें लिखीं हैं। वे लिखते हैं कि गांधी ब्रिटिश शासन और बोस जापान के एजेंट थे। गांधी के विषय में वे कहते हैं कि उन्होंने राजनीति में धर्म को घुसाकर अंग्रेजों की ‘डिवाइड एन रुल’ की नीति को ही आगे बढ़ाने का काम किया। उन्होंने एक क्रांति को  राजनीतिक आन्दोलन का रूप देकर अंग्रेजों का काफी हित ही किया। काट्जू साहब सिर्फ इतने पर ही नहीं रुकते, वे फिर लिखते हैं कि गांधी के यंग इण्डिया, हरिजन आदि में छपे लेखों व यत्र-तत्र दिए भाषणों को देखकर  यही लगता है कि वे हिंदुत्व के प्रति झुकाव रखते थे। यंग इण्डिया के एक लेख का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि गांधी ने स्वयं को सनातनी हिन्दू बताया था व वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास रखने की बात कही थी। यहाँ तक कि काट्जू साहब को महात्मा गांधी के प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ में भी साम्प्रदायिकता  दिखती है। अब काट्जू साहब गांधी के विषय में ये बातें किस अध्ययन व विश्लेषण के आधार पर कह रहे हैं, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है।
प्रजातंत्र लाइव
यह सही है कि गांधी ने स्वयं को सनातनी हिन्दू स्वीकार किया था, पर हर गलती पर उन्होंने हिन्दुओं की जमकर आलोचना भी की  थी। या यूँ कहें तो गलत नहीं होगा कि जितनी आलोचना उन्होंने  हिन्दुओं की की थी, उतनी शायद ही किसी और संप्रदाय की की हो। उल्लेखनीय होगा कि गांधी ने यदि गीता को पढ़ा तो उसी आदर के साथ कुरान और बाइबिल को भी पढ़ा तथा इन सब में उन्हें लगभग समान बातें ही दिखाई दी। हाँ यह और बात है कि गीता उनकी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक थी, जिसे वो पथ-प्रदर्शक मानते हुए सदैव अपने पास रखते थे। अब इस आधार पर यदि काट्जू साहब जैसा ही कोई व्यक्ति उठकर ये कहे कि गांधी सांप्रदायिक थे तो उस व्यक्ति की समझ पर संदेह ही होगा। चूंकि, गीता के प्रति ऐसी अनन्य आस्था रखने वाले सिर्फ गांधी तो हैं नहीं, मुस्लिम-इसाई आदि सभी सम्प्रदायों में ऐसे विभिन्न लोग हुए हैं और अब भी हैं, जिनमे गीता के प्रति गांधी के जैसी ही अनन्य आस्था रही है, तो क्या उन्हें भी हिन्दू मान लिया जाय। जाहिर है, ये बेहद बेवकूफाना बात होगी। इसी तरह काट्जू साहब द्वारा भी अपने ब्लॉग में जिन बातों  के जरिए गांधी को सांप्रदायिक कहा गया है, वे सब निराधार व अतार्किक हैं। कुछ अधिक नहीं तो कम से कम जिस ‘रघुपति राघव राजा राम’ भजन के आधार पर काट्जू गांधी को सांप्रदायिक घोषित कर रहे हैं, उस भजन को एकबार ठीक से पूरा सुन लेते तो शायद उनकी राय बदल जाती। क्योंकि इस भजन के प्रथम पद में यदि ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम’ है तो अगले पद में ‘इश्वर अल्ला तेरों नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ है। यह भजन विशुद्ध रूप से इश्वर से मानव-मात्र  को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना है। यदि जस्टिस काट्जू अपना ब्लॉग लिखने से पूर्व एकबार यह भजन पूरा सुन लिए होते तो शायद उन्हें भी कुछ सन्मति मिल जाती और शायद वे यह ब्लॉग नहीं लिखते। पर काट्जू साहब ने तो इस भजन को सुना होगा ही नहीं, क्योंकि उनको किसी तथ्य, किसी जानकारी से क्या करना, उन्हें तो सिर्फ अपनी चर्चा से मतलब होता है। वैसे भी, किसी भी राष्ट्रीय विभूति के विषय में कुछ भी अनर्गल कहकर चर्चा बटोरने से आसान काम आज के समय में भला और है भी क्या ? बहरहाल, उनकी  इन बातों की चौतरफा आलोचना हो रही है। यहाँ तक कि देश की संसद में भी इसके विरोध में बहुमत से निंदा प्रस्ताव पारित किया गया।
नेशनल दुनिया
  अपने इस ब्लॉग के बाद ही अगली पोस्ट में काट्जू एक अत्यंत नवीन  ऐतिहासिक सत्य से हमें रूबरू कराते हैं। वे अकबर को राष्ट्रपिता बताते हुए कहते हैं कि अकबर ने बहुत पहले ही जान लिया था कि भारतीय समाज विविधतापूर्ण है, अतः यहाँ सबको बराबरी का हक़ देकर ही शासन किया जा सकता है। यह तो खैर इतिहास प्रसिद्ध बात है कि मुगलकालीन शासकों में अकबर अन्य सम्प्रदायों के प्रति अपेक्षाकृत अधिक उदार था तथा उसकी शासन नीतियों की भी प्रशंसा होती है। लेकिन काट्जू साहब तो इन सबसे आगे बढ़ते हुए जाने किस आधार पर अकबर को राष्ट्रपिता घोषित कर रहे हैं। अब उनको ये कौन समझाए कि अकबर अपेक्षाकृत अच्छा मुग़ल शासक था, पर उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके आधार पर उसे ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाय। बल्कि साम्राज्यवादी मंशा तो उसमे बीते कई मुगल शासकों से कहीं अधिक ही थी। खैर! यहाँ समझने वाली बात ये है कि अपनी पहली पोस्ट में काट्जू साहब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अनेकों अतार्किक व तथ्यहीन कमियाँ बताते हुए उन्हें खारिज करते हैं तो दूसरी पोस्ट में पूर्ववत अतार्किक ढंग से मुग़ल शासक अकबर को ‘राष्ट्रपिता’ कहते हैं, तो इसके पीछे उनकी मंशा क्या है ? ये क्यों न कहा जाय कि ऐसी पोस्टों के जरिये वे भारतीय समाज में धार्मिक विद्वेष फैलाना चाहते हैं ?
  काट्जू देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तथा प्रेस परिषद् के अध्यक्ष रहे हैं, अतः उन पदों की गरिमा अब भी उनके नाम के साथ जुड़ी है। अतः अधिक कुछ नहीं तो कम से कम उन पूर्व पदों की गरिमा का ही ध्यान करते हुए उन्हें ऐसे विवादित बयानों, ब्लॉग आदि से बचना चाहिए। यदि उन्हें लगता है कि ऐसे बयान उन्हें चर्चित करेंगे तो वह जितनी जल्दी हो सके इस मुगालते से बाहर आ जाएं । क्योंकि ऐसे बयान उन्हें प्रसिद्धि तो अवश्य देंगे, पर वो प्रसिद्धि उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि करने वाली नहीं, उनकी छवि और उनके पूर्व पद की गरिमा को धूमिल करने वाली ही होगी।

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