गुरुवार, 5 मार्च 2015

लघुकथा : जिम्मेवारी [भोजपुरी पत्रिका आखर में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

आखर 
महिमा रोज की तरे आजुओ बिहाने पांच बजे अधे नीन से उठ गईली. उठि के घर के झारल-बहारल क के चाय बनवली अऊर फेर अजय के जगा के चाय दिहली. अजय चाय पीके फेर सुत गईलन. एने महिमा सोनू के जगा के स्कूले खातिर तईयार करे लगली. सोनू स्कूल चल गईल. अब महिमा अजय के कपड़ा इस्त्री कईली, नाश्ता बनवली आ फेर अजय के जगवली. अजय उठने अऊर महिमा के एने-ओने दू-चार गो सीख-समझ देत-देत तईयार भईलें. अऊर करत-धरत नौ बजे आफिस चल गईलें. उनके गईला के बाद महिमा नहा-धो के तनि पूजा-पाठ कईली, फेर लंच बनवली आ लंच लेके सोनू की स्कूले गईली. दुपहरिया के बारह बजत रहे. लंच देके घरे अईली आ आके खाना खईली, फेर रसोई के साफ़-सफाई में लगली. करत-धरत दू बज गईल. बहुत थकान लागत रहे त ऊ तनि आराम करके सोचली कि तबे सोनू आ गईल. ऊ सोनू में लाग गईली. एह सबमे बज गईल चार. एकरी बाद ऊ तनि लेटली कि तवले अजय आ गईलें. आवते महिमा के जगवलें. कहलें, “महिमा! उठ..उठ..हमार ऊ नवका कुर्तवा कहाँ बा..जल्दी द.”
“कुर्ता त अलमारी में होई..बाकी इस्त्री ना होई..अबे क दे तानी.”

“का मतलब..इस्त्री नईखे!” अजय गरजलें, “का करेलू तू दिन भर घरे ? सुतले आ एने-ओने के बतकूचन से समय मिली तब न करबू इस्त्री..मरद काम प गईल ना कि तहार फिजूल के बतकूचन शुरू..घर-गिरहस्थी के त कौनो फिकिर बा ना! पता ना, कब समझबू आपन जिम्मेवारी!” कहिके अजय चल गईलें.

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