- पीयूष द्विवेदी भारत
दैनिक जागरण |
अभी बीते दिनों अरुणाचल प्रदेश के स्थापना दिवस पर भारतीय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां गए थे। भारतीय प्रधानमंत्री की इस अरुणाचल
यात्रा को लेकर चीन ने हमेशा की तरह एकबार फिर विरोध का अपना बेतुका राग छेड़ दिया।
चीनी उप विदेश मंत्री लियु झेनमिन द्वारा चीन में भारत के राजदूत को तलब करते हुए
कहा गया कि मोदी के अरुणाचल दौरे ने चीन की क्षेत्रीय संप्रभुता, अधिकारों एवं
हितों की अनदेखी की है। वैसे, चीन का अरुणाचल पर आधिपत्य ज़माने का ये मामला
कोई नया नहीं है, इससे पहले भी कभी अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ के जरिए तो कभी
नक़्शे आदि के जरिए चीन अरुणाचल को अपना बताता रहा है । अब सवाल ये है कि आखिर
चीन इतना उद्दण्ड कैसे हो गया है कि हमारी ही जमीन पर हमारे आने-जाने को गलत बता
रहा है ? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें इतिहास में झांकना पड़ेगा । क्योंकि
यदि आज चीन इतना उद्दण्ड हो रहा है तो इसके लिए कहीं न कहीं नेहरू के समय से चली आ
रही उसके प्रति हमारी रक्षात्मक नीतियां भी जिम्मेदार हैं। इतिहास गवाह है कि १९५७ में पं जवाहर लाल नेहरू द्वारा
चीन के साथ पंचशील नामक एक शांति समझौता किया गया था, जिसे चीन ने तत्कालीन दौर
में भी कभी नही माना । बावजूद इसके शांतिप्रिय नेहरू ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’
का अपना काल्पनिक नारा तबतक रटते रहे, जबतक कि हमने ६२ के युद्ध में हजारों जांबाज
सैनिकों को नही खो दिया और पराजय का दंश झेलने को विवश नही हो गए । इस
युद्ध से जुड़ी अत्यंत गोपनीय हैंडरसन ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट अभी गत वर्ष ही सामने
आयी है, जिसमें मौजूद तथ्यों ने इस बात को पूरी तरह से पुख्ता कर दिया है कि इस
युद्ध में भारत की पराजय का मुख्य कारण चीन के प्रति नेहरू का लापरवाह और
रक्षात्मक रवैया था । दुर्भाग्य ये है कि वो रवैया हमारे वर्तमान
हुक्मरानों में भी काफी हद तक कायम है ।
हम तब भी रक्षात्मक व लापरवाह थे और अब भी हैं । न तो उसवक्त चीन ने किसी
समझौते को माना था और न ही अब मान रहा है । उदाहरणार्थ, अप्रैल २०१३ में जब
चीनी सैनिक लद्दाख के दिपसांग इलाके में १९ किमी तक घुसकर बाकायदा तम्बू लगाकर जमे
रहे थे और भारत कुछ नहीं कर पाया था । इस गतिरोध के बाद दोनों देशों के बीच
अक्तूबर, २०१३ में नया सीमा समझौता हुआ, पर उस सीमा समझौते को चीन ने कई दफे तोड़ा
और भारतीय हद में घुसने की हिमाकत की । अभी पिछले वर्ष ही एक तरफ चीनी
राष्ट्रपति भारत दौरे पर थे और दूसरी तरफ चीनी फौजें भारतीय हद में घुस बैठी थीं ।
कुल मिलाकर कहने का मतलब ये है कि भारत द्वारा चीन के सामने हमेशा दबा-दबा सा रुख
अपनाया जाता रहा है और बस, यही कारण है कि आज चीन हमारे सिर पर चढ़ा हुआ है । ऐसे में
आज जब लगभग दस महीने पुरानी राजग सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी द्वारा चीन से
बेहतर संबंधों की बात की जा रही है, तो इसमे कुछ गलत न होते हुए भी इतना जरूर है
कि वे भारत के प्रति चीनी गतिविधियों को लेकर सजग व सचेत रहें । क्योंकि,
इतिहास गवाह है कि हमेशा से चीन की नीति मुह में राम बगल में छुरी वाली ही रही है ।
हालांकि एक तथ्य यह भी है कि मोदी सरकार के आने के बाद से चीनी घुसपैठ व आक्रामकता
में पूर्व की अपेक्षा कुछ कमी अवश्य आई है...पर क्या इतना ही काफी है ?
हम जब चीन के प्रति सख्त
होने की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य युद्ध से कत्तई नहीं होता है । युद्ध
को तो निश्चित ही कोई विकल्प नही कहा जा सकता, पर जब प्रश्न राष्ट्र की गरिमा और
अखण्डता की रक्षा का हो, तो एक हद तक वह भी विचार का अंतिम बिंदु होता है । पर, फिलहाल स्थिति इतनी विकट कत्तई नही
है । अगर समय रहते भारत चीन के प्रति अपने रक्षात्मक और लापरवाह रवैये को किनारे
कर सजग होते हुए आक्रामक रुख अपना ले, तो अभी सबकुछ अपने हाथ में ही है । किसी
विद्वान ने सही ही कहा है कि ‘अटैक इज द बेस्ट डिफेंस’ । चीन शुरू से ही
भारत के प्रति यही नीति अपनाता रहा है, पर भारत ने हमेशा से चीन के प्रति
रक्षात्मक रवैया अख्तियार करने में ही विश्वास किया है । लिहाजा आज वही रक्षात्मक रवैया भारत के गले की
फांस बनता नज़र आ रहा है । भारत अगर चाहे तो चीन की ही नीतियों के द्वारा न
सिर्फ उसे खुद पर हावी होने से रोक सकता है, बल्कि दबा भी सकता है। इस
संबंध में भारत की पहली ज़रूरत ये है कि वो सीमा पर ढांचागत सुविधाएँ विकसित करे,
जोकि चीन द्वारा बहुत पहले ही की जा चुकी हैं । चीन ने अपनी सीमा तक
रेलमार्ग तथा सड़कों का जाल पूरी तरह से बिछा लिया है, इस नाते किसी भी आपदा की
स्थिति में अधिकाधिक २४ घंटे में वो बड़े आराम से सीमा तक रसद और सैनिकों की
आपूर्ति कर सकता है । बेशक, इस मामले में चीन, भारत से कोसो आगे है, पर देर
से ही सही, भारत भी अब इस दिशा में काम शुरू कर चुका है । अरुणाचल प्रदेश
में रेल व सडकों का जाल बिछाने की भारतीय कवायद इसीका उदहारण है। और चीन को
यही बात हजम नहीं हो रही, इसीलिए वो बारबार अरुणाचल को लेकर आँखे तरेर रहा है।
खैर! भारत को यह भी चाहिए कि वो चीन की दुखती रग को पकड़े, जैसा कि चीन
हमेशा से भारत के साथ करता रहा है । चीन द्वारा कश्मीर मामले में बार-बार हस्तक्षेप की कोशिश
करना, उसकी इसी नीति का हिस्सा है । इस स्तर पर चीन को पटकनी देने के लिए
भारत के पास तिब्बत का मुद्दा एक अच्छे विकल्प के रूप में है । भारत को
दलाई लामा, जो प्रायः भारतीय विचारों के समर्थक और चीन के कट्टर विरोधी रहे हैं,
को अपने साथ जोड़कर, चीनी नाराज़गी की परवाह किए बगैर, तिब्बत मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर उठाते हुए चीन पर दबाव बनाना चाहिए कि वो तिब्बत को स्वतंत्र करे ।
इसके अलावा भारत को दक्षिण एशिया के राष्ट्रों समेत चीन के निकटवर्ती जापान आदि
राष्ट्रों को भी अपने से मिलाने का कूटनीतिक प्रयास करना चाहिए । सुखद है कि नई सरकार के गठन के
साथ ही इस दिशा में कुछ पहल दिखने लगी है ।
बहरहाल, जबतक हमारे
हुक्मरानों द्वारा दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय नही दिया जाता तथा शांति के
नाम पर किसी भी तरह के समझौते को तैयार रहने वाली घिसी-पिटी सोच नही बदली जाती,
तबतक उपर्युक्त सभी बातों का कोई विशेष
अर्थ नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें