शुक्रवार, 13 मार्च 2015

बेटियों को जीने तो दीजिए पहले [डीएनए और कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित]





  • पीयूष द्विवेदी भारत
कल्पतरु एक्सप्रेस

८ मार्च प्रतिवर्ष महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। महिलाओं की आजादी, अधिकारों, सुरक्षा आदि को लेकर राजनीति से लिए हर क्षेत्र के लोगों द्वारा तमाम बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। बातें करने वालों में महिलाओं से अधिक पुरुष समाज ही होता है। फिर यह तारीख बीतती है और उसके साथ ही बातें भी ख़त्म। महिलाओं के अधिकारों, स्वतंत्रता आदि की इन तमाम बड़ी-बड़ी बातों के बीच त्रासद पक्ष यह है कि आज भी हमारे देश में लड़कियों को जन्म से पहले ही मार देने की मानसिकता काफी हद तक मौजूद है। और यह करने वालों में सिर्फ बौद्धिक स्तर पर पिछड़े व अशिक्षित लोग ही नहीं है, वरन समाज के तथाकथित शिक्षित लोग भी यह दुष्कृत्य को करने से पीछे नहीं हट रहे। अब अगर वे जियेंगी ही नहीं तो फिर कैसी स्वतंत्रता, कैसे अधिकार ? इस समस्या के मद्देनज़र ही अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा देश की बेटियों के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ‘सुकन्या समृद्धि’ जैसी योजनाओं की शुरूआत की गई है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का उद्देश्य जहाँ देश में भ्रूण हत्या को ख़त्म करना है, तो वहीँ सुकन्या समृद्धि योजना के तहत बेटियों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित है। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत फ़िलहाल कम लिंगानुपात वाले देश के सौ  जिलों पर फोकस करते हुए कानूनी सख्ती, सामाजिक जागरूकता आदि के जरिये कन्या भ्रूण हत्या रोकने का प्रयास करना सुनिश्चित किया गया है। इस दौरान अगर यह योजना सफल रही तो आगे इसका और विस्तार किया जाएगा। अब कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए योजनाएं, कार्यक्रम, क़ानून तो अब से पहले भी बहुतों बन चुके हैं, अतः यह प्रधानमंत्री की यह योजना कितनी कारगर होती है, देखना दिलचस्प होगा। 
डीएनए
  बहरहाल, इसी क्रम में कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए बने कानूनों पर एक नज़र डालें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर अंकुश लगाने के लिए सन १९९४ में 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम'  नामक क़ानून बनाया गया, जिसके तहत प्रसव पूर्व लिंग परिक्षण को अपराध की श्रेणी में रखते हुए सजा का प्रावधान भी किया गया। इस क़ानून के तहत लिंग परिक्षण व गर्भपात आदि में सहयोग करने को भी अपराध की श्रेणी में रखा  गया है तथा ऐसा करने पर ३ से ५ साल तक कारावास व अधिकतम १ लाख रुपये जुर्माने की सजा का भी प्रावधान किया गया है। लेकिन इस क़ानून के लागूं होने के तकरीबन २० वर्ष बाद आज कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर कोई विशेष अंकुश लग पाया हो, ऐसा नहीं कह सकते। आंकड़ों पर गौर करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार देश में छः साल तक की आबादी में १००० लड़कों पर महज ९१४ लड़कियां ही पाई गईं। ये आंकड़े सिर्फ छः साल तक के बच्चों के हैं। बच्चों में ये लैंगिक असमानता कहीं ना कहीं दिखाती है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या किस तरह से चल रही है। कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या आदि के ही संबंध में अभी पिछले वर्ष के आखिर में ही  माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी देश के सभी राज्यों की सरकारों से यह पूछा गया था कि कन्या भ्रूण परिक्षण रोकने की दिशा में अबतक की सरकारों द्वारा क्या और किस दिशा में प्रयास किए गए हैं जिसपर सभी सरकारें तुरंत कुछ भी जवाब नहीं दे पाई थीं। यह देखते हुए एक सवाल ये भी प्रासंगिक हो जाता  है कि राज्य सरकारों के पास इस संबंध में कोई ठोस आंकड़े व जानकारियां होंगी भी या नहीं ?  अब जो भी हो,  पर इतना तो एकदम स्पष्ट है कि कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की रोकथाम को लेकर देश में सरकारी स्तर पर अबतक सिवाय  एक क़ानून बनाने के कोई खास प्रयास नहीं हुआ है। फिर चाहें बात केन्द्र सरकारों की करें या राज्य सरकारों की, इस संबंध में सबके आँख-कान लगभग बंद ही रहे हैं। केन्द्र सरकार ने तो इस इस संबंध में १९९४ में  एक क़ानून बनाकर ही अपने दायित्वों की इतिश्री समझ ली। उसे इस बात की आवश्यकता कभी महसूस नहीं हुई कि एक निश्चित अवधी के उपरांत इस बात की समीक्षा  भी होनी चाहिए थी कि वो क़ानून कितने प्रभावी ढंग से कार्य कर रहा है व उसमे सुधार की कोई गुंजाइश तो नहीं है। रही बात राज्य सरकारों की तो उन्हें भी ऐसे मसलों पर ध्यान देने के लिए फुरसत कहाँ है। निष्कर्ष ये है कि कन्या भ्रूण परिक्षण के मसले पर केन्द्र से लेकर राज्य तक सभी सरकारों का रुख अपेक्षाकृत काफी उदासीन रहा है और इस मसले को लेकर कभी कोई विशेष गंभीरता कहीं नहीं दिखी है। अब प्रधानमंत्री मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं के जरिये इस सम्बन्ध में कुछ गंभीरता दिखा तो रहे हैं, पर अब यह तो भविष्य में ही पता चलेगा कि प्रधानमंत्री की यह योजनाएं जमीन पर कितना असर लाती हैं और देश के शिक्षित-अशिक्षित हर तरह के समाज में अपनी जड़ें जमा चुकी कन्या भ्रूण हत्या जैसी समस्या को कितना ख़त्म कर पाती हैं।
     अगर विचार करें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की इस विसंगति के मूल में हमारी तमाम सामाजिक रूढियां व परम्पराएं ही हैं। आज के इस आधुनिक व प्रगतिशील दौर में लड़कियां लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, बल्कि कई मायनों में लड़कों से आगे भी हैं। इसमे भी संदेह नहीं कि लड़कियों के इस उत्थान से समाज में उनके प्रति व्याप्त सोच में में काफी बदलाव भी आया है। लेकिन बावजूद इन सबके आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति अपनी सोच  को पूरी तरह से बदल नहीं पाया है। यह सही है कि इसमें अधिकांश ग्रामीण व अशिक्षित लोग ही हैं, लेकिन शहरी व शिक्षित लोग भी इससे एकदम अछूते नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो कम से कम दहेज जैसी रूढ़ीवादी प्रथा की चपेट में तो भारतीय समाज के शिक्षित-अशिक्षित दोनों तबके बराबर ही हैं। कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या के लिए दहेज की ये रूढ़िवादी प्रथा एक बहुत बड़ा  कारण है। इसी प्रकार और भी तमाम ऐसी सामाजिक प्रथाएँ, कायदे और बंदिशे हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराई को उपजाने में खाद-पानी का काम कर रही हैं। इन बातों को देखने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या आपराधिक प्रवृत्ति से अधिक कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के शह से उत्पन्न हुई एक बुराई है। अतः यह भी स्पष्ट है कि इसका समाधान भी सिर्फ क़ानून के जरिए नहीं किया जा सकता। इस बुराई के समूल खात्मे के लिए आवश्यक है कि इसको लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास किया जाए। केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वो इस संबंध में शहर से गाँव तक सब जगह जागरूकता कार्यक्रम चलाएँ जिनके जरिए लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि दुनिया में आने से पहले ही एक जान को नष्ट करके वो न सिर्फ अपराध कर रहे हैं, बल्कि देश के भविष्य को भी संकट में डाल रहे हैं। उन्हें लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं जैसी बातों से भी अवगत कराना चाहिए। इन सबके अलावा दहेज आदि सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में भी कानूनी स्तर से लेकर जागरूकता लाने के स्तर तक ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। यह सब किया जाय तो निश्चित ही देश की बेटियों को न सिर्फ बचाया जा सकता है, बल्कि एक सम्मानित व स्वतंत्र जीवन भी दिया जा सकता है। प्रधानमंत्री को अपनी योजना में इन बातों पर भी विचार करना चाहिए।

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