सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पुस्तक समीक्षा: अजीब लड़कियों की सुनी-अनसुनी कहानियां

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अगर आपको कुछ बेबाक तो कुछ बेबाकीयत के लिबास में छिपी अश्लील; कुछ सच्ची, जमीनी और संदेशप्रद तो कुछ बस यूँ ही अनोखी कल्पना पर आधारित और अमान्य तर्कों से पुष्ट कहानियां एक साथ एक ही खर्चे में पढ़नी है तो प्रियंका ओम का कहानी संग्रह ‘वो अजीब लड़की’ बेशक आप ही के लिए है। इसमें आपको उपर्युक्त प्रकार का सब ‘मटेरियल’ बड़ी सहजता से मिल जाएगा। प्रियंका की इस किताब में कुल चौदह कहानियाँ हैं, जिनमे अधिकांश कहानियाँ चरित्र प्रधान हैं। हाँ, कुछेक कहानियों में घटना और चरित्र के बीच प्रधानता के लिए अंतर्द्वंद्व भी प्रतीत होता है। इन चौदह कहानियों में निरपवाद रूप से प्रधान चरित्र कोई न कोई स्त्री ही है, यहाँ तक कि जो कहानियां किसी पुरुष पात्र को केंद्र में रखकर शुरू हुई हैं, उनमे भी अंत आते-आते कोई न कोई स्त्री प्रधान चरित्र के रूप में स्थापित हो जाती है। प्रियंका एक स्त्री हैं तो उनकी कहानियों में ऐसी स्थिति होना कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं है। स्त्री चरित्र की प्रधानता वाली इन कहानियों में स्त्रियों से सम्बंधित विभिन्न प्रकार की समस्याओं, विसंगतियों और उनके प्रतिक्रियास्वरुप स्त्रियों की मनोदशाओं को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। किसी कहानी में ये प्रयास पूर्णतः सफल है तो किसी में इसकी विफलता के चिन्ह भी दिखते हैं।
इन कहानियों में से कुछ कहानियाँ स्त्रियों के प्रति पुरुष समाज की मानसिकता को बड़ी ही कटुता से उजागर करती हैं तो कुछ स्त्रियों के अतिभावुक स्वभाव और उससे होने वाली समस्याओं को रेखांकित करती हैं। स्त्री के निकट होने पर पुरुषों की समस्त विचारशक्ति  घूम-फिरकर अंततः उसकी देह पर ही कैसे केन्द्रित हो जाती है, इसकी प्रस्तुति संग्रह की कहानी ‘दोगला’ में अच्छे ढंग से हुई है। हम देखते हैं कि कैसे दिल्ली के एक बड़े अख़बार के अतिसंभ्रांत और सुप्रसिद्ध मुख्य संपादक महोदय यूपी से आई एक सामान्य सी लड़की पर या उसकी देह पर एकदम न्योछावर हो जाते हैं। किसी सामान्य व्यक्ति को आश्चर्यजनक लग सकता है कि कैसे एक बड़ा और प्रतिष्ठित संपादक एक मामूली सी लड़की के आगे बेबस और लाचार हो जाता है! हालांकि उन लोगों को इस बेबसी और लाचारियत में छिपे निर्दय ढोंग का अंदाज़ा शायद ही हो। लेकिन, जो साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े लोग हैं, वे इस स्थिति को भलीभांति जानते और समझते हैं कि वास्तविकता इस कहानी से अधिक भिन्न नहीं है। एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका के ख्यातिलब्ध दिवंगत संपादक महोदय के विषय में तो इस किस्म के किस्से काफी प्रसिद्ध हैं।
अधिकांश स्त्रियाँ व्यावहारिक कम भावुक अधिक होती हैं और भावुकता में अक्सर कैसे गलत रास्तों को चुन लेती हैं, संग्रह की कहानी ‘मृगमरीचिका’ इस बात को बाखूबी सामने लाती है। सोशल साईट पर एक लड़के के लुभावने शब्दजाल में फंसकर प्रीती उसमे न केवल अपने बचपन का बिछड़ा प्यार देखने लगती है, बल्कि अपने पति को भूल उसके प्रति आकर्षण भी महसूसने लगती है। हालांकि वो जल्दी ही चेत भी जाती है और उसे आभास होता है कि जिंदगी भावनाओं और मखमली शब्दों से नहीं चलती, उसके लिए व्यवहारिक दृष्टिकोण की जरूरत होती है और उसका पति उससे मखमली बातें भले न करता हो, मगर वो उससे सच्चा और व्यवहारिक प्रेम करता है जिसके रहते वो कभी अकेली नहीं होगी। हालांकि इस कहानी का प्लाट पुराना है। पहले भी इस तरह की कुछेक कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण इसे अलग बनाता है। कथ्य-शिल्प हर स्तर पर दुरुस्त होने के कारण इसे इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी भी कह सकते हैं। ऐसे ही, ‘लावारिश लाश’, ‘वो अजीब लड़की’, ‘इमोशन’, ‘मौत की ओर’ आदि कहानियाँ भी स्त्रियों से जुड़े सामाजिक-मानसिक-आर्थिक आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करने का सफल-असफल प्रयत्न करती हैं।  
प्रियंका की कहानियों में सेक्स का भी भरपूर चित्रण है। अब कई कहानियों में यह सेक्स जहां कथा-तत्व की आवश्यकता के रूप में आया है तो कई में एकदम गैरजरूरी रूप में भी इसकी मौजूदगी नज़र आती है और जहाँ ये गैरजरूरी रूप में आया है, वहां इसने बड़ी सहजता से वह रूप ले लिया है जिसे साहित्य का पोर्नोग्राफीकरण कहते हैं। ‘सॉरी’ कहानी का यह अंश – “वो शायद महारानी कैथरीन है जिसने बहुत भारी-भरकम गाउन अपने हाथों से उठाया हुआ है जबकि मुँह आधा खुला है और वो पीछे देख रही है। सोल्जर जैसे कपड़ों में एक नवयुवक घुटनों पर बैठा है व उसकी जीभ महारानी कैथरीन के दोनों जाँघों के बीच में है।” – देखें तो यह एक अतिकामुक चित्र का अक्षरशः वर्णन है। इस कहानी के कथानक में इस अंश के होने न होने से कोई बहुत अंतर नहीं पड़ने वाला इसलिए इस अंश को बड़े आराम से छोड़ा जा सकता था या सांकेतिक रूप में लिखा जा सकता था। लेकिन अनावश्यक रूप से इसका पूरा वर्णन किया गया है। ऐसे ही, एक कहानी है – लाल बाबू। इस कहानी में न तो कोई कथानक है और न ही कोई अन्य कथा-तत्व। है तो सिर्फ और सिर्फ पोर्नोग्राफी। कहानी के केन्द्रीय पात्र लाल बाबू शुरू से अंत तक कभी अपनी चाची के साथ, कभी भाभी के साथ तो कभी किसी और के साथ सेक्सरत रहते हैं। यहाँ तक कि अपनी बहू पर भी उनकी नियत डोल जाती है। और आश्चर्य तो यह देखकर भी होता है कि उनकी चाची और भाभी कैसी स्त्रियाँ होती हैं कि वे झट उनके आगे बिछ जाती हैं! सवाल यह है कि लाल बाबू जैसे पुरुष होते कहाँ हैं ? भारत में तो कम से कम नहीं ही होते। फिर ऐसी कहानी लिखकर लेखिका क्या सन्देश देना चाहती हैं ? अगर लेखिका का उद्देश्य स्त्री को देह समझने की पुरुष समाज की मानसिकता को दिखाना है तो इस उद्देश्य की सिद्धि में उनकी यह कहानी एकदम विफल रही है। क्योंकि, बेशक समाज में स्त्रियों को सिर्फ देह समझने वाले मानसिक विकृति के शिकार पुरुष हैं बल्कि काफी अधिक हैं लेकिन, उनके प्रतिनिधि पात्र लाल बाबू तो कत्तई नहीं हो सकते। क्योंकि लाल बाबू की स्थिति स्त्री को देह समझने की मानसिकता से कहीं अधिक विकृत हैं, जो उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक सेक्सहोलिक मनोरोगी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है। ऐसे ही, कुछेक और भी कहानियाँ हैं, जिनमे पूरी व्यवस्था के साथ सेक्स का आयोजन कर पोर्न प्रस्तुति की गई है। ये बिलकुल नहीं कह रहे कि कहानी में सेक्स का वर्णन-चित्रण वर्जित है। कत्तई नहीं! लेकिन, उसका एक तरीका है और उसके लिए जहाँ तक संभव हो सांकेतिकता का प्रयोग करने का प्रयास होना चाहिए न कि जानबूझकर ऐसी परिस्थितियों और संवादों का आयोजन किया जाय जिससे कि सेक्स उभरकर सामने आने लगे। ऐसा करने पर कहानी को फौरी तौर पर एक ख़ास किस्म का पाठकवर्ग जरूर मिल सकता है और कहानीकार को एक क्षणिक लोकप्रियता भी प्राप्त हो सकती है, मगर ऐसी कहानियों का कोई चिरस्थायी अस्तित्व नहीं होता।

बहरहाल, प्रियंका की कहानियों की जो एक ख़ास बात है वो ये कि उनमे शैली के स्तर पर काफी हद तक प्रयोग का दर्शन होता है। तमाम कहानियों में एक ही साथ वर्णनात्मक, पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक), नाटकीय आदि विभिन्न शैलियों का प्रयोग हुआ है। कई कहानियों में ये प्रयोग सफल और सार्थक रहा है तो कई में इस प्रयोग ने कहानी को काफी उलझाने  का भी काम किया है। अर्थात कि यह प्रयोग जहाँ कुछ कहानियों के लिए सफल रहा है तो कुछ की विफलता का कारण भी बना है। बावजूद इसके कहना होगा कि शैली के स्तर पर प्रियंका थोड़ी गंभीरता बरतते हुए लेकिन ऐसे ही बेबाकी के साथ अगर लिखती रहें तो इस दिशा में उनके अन्दर काफी संभावनाएं प्रतीत होती हैं और वे काफी अच्छा कर सकती हैं। यह उनका पहला कहानी संग्रह है तो इसके लिए शुभकामनाएँ देते हुए आशा करते हैं कि भविष्य में उनकी रचनाओं में और व्यापकता, तथ्यात्मकता, सुग्राह्यता, शालीनता और उद्देश्यपरकता आएगी। 

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