मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

परमाणु सुरक्षा पर वास्तव में गंभीर हों महाशक्ति देश [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
विगत दिनों अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में चौथा परमाणु सुरक्षा सम्मलेन संपन्न हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर सं २०१० में इसकी शुरुआत की गई थी। तबसे अबतक २०१०, २०१२, और २०१४ में तीन बार यह सम्मेलन हो चुका है और यह चौथा आयोजन था। इसका उद्देश्य परमाणु सुरक्षा को लेकर विश्वव्यापी नीति बनाना और परमाणु प्रसार को नियंत्रित करना है। यह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन इस नाते अत्यंत महत्वपूर्ण था कि हाल के दिनों में परमाणु सुरक्षा को लेकर चिंताएं बेहद बढ़ी हैं। पर सवाल यह उठता है कि इस सम्मेलन से परमाणु सुरक्षा को लेकर जो वर्तमान चिंताएं हैं, उनके निवारण के लिए  क्या दुनिया के देशों द्वारा कुछ कदम भी उठाए गए या यह सिर्फ बातों का ही मंच बनकर रह गया ? इस सम्मेलन में दुनिया के पचास देशों के शीर्ष नेताओं ने शिरकत की, मगर दुनिया का द्वितीय अघोषित महाशक्ति रूस इसमें शामिल नहीं हुआ, जिसने इसकी सफलता को प्रारंभ में ही संदिग्ध बना दिया। रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का सदस्य देश भी है, इस नाते भी उसका इस सम्मेलन में शामिल न होना चिंतित करता है। दरअसल रूस के इस सम्मेलन में उपस्थित न होने का कारण यह माना जा रहा है कि उसे सम्मेलन का एजेंडा तय करने की प्रक्रिया से दूर रखा गया, इस नाते नाराजगी के कारण वो इसमें शामिल नहीं हुआ। बहरहाल एक तरफ यह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन हो रहा था और दूसरी तरफ उत्तर कोरिया के बैलिस्टिक परीक्षण की खबर सामने आई। इस परिक्षण ने कहीं न कहीं यह सिद्ध किया कि ऐसे सम्मेलन की वर्तमान दौर में अत्यंत प्रासंगिकता है।
भारत की बात करें तो इस सम्मेलन में शामिल भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के नेताओं को भारत की परमाणु सुरक्षा के विषय में आश्वस्त किया तथा आतंकियों के रूप में परमाणु सुरक्षा के खतरे को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हम किसी गुफा में छिपे आदमी की तलाश नहीं कर रहे हैं, अब हमें उस आतंकी की तलाश है, जो शहर में मौजूद है और जिसके पास एक कंप्यूटर और स्मार्टफोन है। तीसरा, परमाणु तस्करों और आतंकियों के साथ मिलकर काम करने वाले सरकारी तत्व सबसे बड़ा खतरा पैदा करते हैंआतंकवाद के विकसित हो जाने की बात कहते हुए पीएम मोदी ने कहा कि आतंकी 21वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन हमारी प्रतिक्रियाएं अब भी पुराने जमाने की हैं। पीएम ने स्पष्ट किया कि  आतंकवाद की पहुंच और आपूर्ति श्रृंखला वैश्विक है लेकिन देशों के बीच स्वाभाविक सहयोग वैसा नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए दुनिया के सामने विभिन्न उपाय भी रखे जिनमे उनका मुख्य जोर तकनीक के द्वारा परमाणु सुरक्षा को करने पर रहा। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने मेरा आतंकी और दूसरे का आतंकी जैसी अवधारणा को भी खारिज करते हुए दुनिया से एकजुट होकर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने और परमाणु सुरक्षा का आह्वान किया। भारत की तरफ से तो ये जो बातें कही गईं हैं, भारत उनका समुचित पालन भी करता है। लेकिन दुनिया के अन्य देशों की कथनी-करनी में ऐसी समानता नहीं दिखती।
इसी प्रकार इस सम्मेलन में आए सभी राष्ट्राध्यक्षों ने परमाणु सुरक्षा को लेकर तरह-तरह की बातें की और सुझाव दिए। लेकिन सवाल यही है कि क्या परमाणु सुरक्षा को लेकर दुनिया के सभी देश वास्तव में प्रतिबद्ध हैं ? चूंकि, इस सम्मेलन में शामिल तमाम देशों का व्यवहार तो ऐसा नहीं दिखाता कि वे परमाणु सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं। २०१० में जिस अमेरिका की पहल पर इस सम्मेलन की शुरुआत हुई थी, खुद उसका रुख ही परमाणु सुरक्षा और प्रसार को लेकर गंभीर नहीं दिखता। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा परमाणु सुरक्षा की बात कर रहे, तो वही दूसरी तरफ उन्हीके देश में राष्ट्रपति के लोकप्रिय उम्मीदवार के रूप में उभर रहे डोनाल्ड ट्रंप ने अभी एक बयान में कहा कि अमेरिका को दक्षिण कोरिया आदि देशों की सुरक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि इन देशों को भी परमाणु शक्ति विकसित कर लेनी चाहिए। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के संभावित राष्ट्रपतियों में से एक हैं, इसलिए उनका यह बयान हलके में नहीं लिया जा सकता। चीन की बात करें तो अघोषित रूप से ही सही पर इस बात में किसीको कोई संदेह नहीं कि उत्तर कोरिया जैसा कंगाल देश अगर एक से बढ़कर परमाणु परीक्षण कर रहा है तो इसके पीछे चीन का ही सहयोग है। रूस ने तो इस बार इस सम्मेलन से किनारा ही कर लिया। ये सब दुनिया के परमाणु शक्ति संपन्न और शक्तिशाली देश हैं, अतः इनका यह रुख चिंताजनक है। अगर परमाणु सुरक्षा करनी है तो समय की आवश्यकता है कि दुनिया के ये महाशक्ति देश निजी हितों से ऊपर से उठकर परमाणु सुरक्षा पर ध्यान केन्द्रित करें।

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