- पीयूष द्विवेदी भारत
वर्तमान समय में मध्य प्रदेश भर के कई पीएचडी होल्डर्स के सामने बेरोजगार होने
का खतरा मंडरा रहा है। यह खतरा यूजीसी के नए नियमों के चलते बना हुआ है। यूजीसी गाइडलाइन का हवाला
देकर इन्हें लोक सेवा आयोग की सहायक प्राध्यापक भर्ती के लिए अपात्र कर दिया गया, जबकि यही प्रदेश के विभिन्न
कॉलेज और यूनिवर्सिटी मेें अतिथि विद्वान के रूप में पढ़ा रहे हैं। यूजीसी के द्वारा किये गए
नियमों में बदलाव की वजह पूरे प्रदेश में तकरीबन एक लाख पीएचडी धारक हैं, जिन को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इतनी
बड़ी संख्या में युवाओं का बेरोजगार होने से देश के लिए बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी हो
सकती है। देश का भविष्य कहे जाने वाले युवाओं के साथ यूजीसी द्वारा किये जा रहे इस
बर्ताव से आने वाले समय में पीएचडी के प्रति युवाओं की रूचि कम हो सकती है। इतना
ही नहीं बल्कि यूजीसी के महज एक फैसले से सभी प्रभावित पीएचडी होल्डर्स का भविष्य
भी अन्धकार में जा सकता है। सरकार द्वारा इस मुद्दे पर किसी प्रकार से मदद न होने
की वजह से भी तनातनी का माहौल बन सकता है। ऐसे में जरुरी है कि सरकार यूजीसी के
साथ मिलकर इस पर पीएचडी होल्डर्स के पक्ष में कोई फैसला करे। इसी क्रम में अगर
यूजीसी के नियमों जिनके कारण यह पूरा विवाद पनपा है, पर गौर करें तो फिलवक्त यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार वर्ष 2009 से
पहले पीएचडी करने वालों के लिए कोर्स वर्क अनिवार्य है। प्रदेश में ऐसे करीब एक
लाख पीएचडी होल्डर हैं। वर्ष 2007 से लेकर 2009 तक में रजिस्ट्रेशन करवाने वाले पीएचडी होल्डर्स ने
कोर्स वर्क भी कर लिया, लेकिन आयोग इन्हें भी परीक्षा में बैठने की अनुमति
नहीं दे रहा। परीक्षा के लिए पोर्टल करीब 12 दिन बाद शुरू हुआ था। बावजूद आयोग ने अब भी अंतिम
तिथि 4 अप्रैल रखी है। आयोग ने अब तक
तारीख आगे बढ़ाने का निर्णय नहीं लिया है। अब नियम से तो यही होना चाहिए कि करीब बीस साल बाद हो रही सहायक प्राध्यापक
भर्ती परीक्षा से पहले शासन ने स्लेट भी नहीं करवाई। प्रदेश के कॉलेज और
यूनिवर्सिटी में करीब 3600 अतिथि विद्वान हैं। इनमें से करीब ढाई हजार ऐसे हैं, जिन्हें अतिथि विद्वान के तौर
पर सेवाएं देते हुए दस साल से अधिक समय हो चुका है। भर्ती परीक्षा में शामिल नहीं
होने से इनके सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया जाएगा। इन्हें अब मानव संसाधन
विकास मंत्रालय के आदेश का इंतजार है। लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि आखिर यूजीसी
आए दिन ऐसे उटपटांग और अध्ययन से हीन नियम क्यों लाता रहता है ? और क्या इस तरह
यूजीसी अपनी स्थापना के उद्देश्य को पूरा कर पा रहा है ?
गौर करें तो सन १९५६ में संवैधानिक रूप से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी
यूजीसी की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि यह केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा प्रदान करने
वाली संस्थाओ के बीच समन्वयक संस्था के रूप में कार्य करेगा। इसकी नियमावली के खंड
१२ में उल्लिखित बातों के जरिये इसके स्थापना उद्देश्यों को समुचित ढंग से समझा जा
सकता है, इसमें लिखा गया है कि यूजीसी शिक्षा के संवर्द्धन और समन्वयन के लिए
शिक्षण, परीक्षा और शोध के क्षेत्र में सम्बंधित विश्वविद्यालय के साथ मिलकर इच्छित
कदम उठा सकेगा। इसके अतिरिक्त यूजीसी को यह अधिकार भी दिया गया है कि वो उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार और विश्वविद्यालयों को परामर्श भी दे सकेगा तथा अपने
द्वारा सुझाए कार्यों के क्रियान्वयन हेतु विश्वविद्यालयों को अपने कोष से अनुदान
भी देगा। स्पष्ट है कि यूजीसी को काफी अधिकार दिए गए हैं लेकिन, इन अधिकारों में
ही उसके महत्वपूर्ण कर्तव्य भी तो मौजूद हैं। मगर मौजूदा दौर में इस आयोग (यूजीसी)
की विडंबनात्मक स्थिति यह है कि ये अपने अधिकारों का तो खूब उपयोग या दुरूपयोग कर
रहा है मगर, अपने कर्तव्यों को काफी हद तक भूल चुका है। तभी तो ये शिक्षा या
छात्रों के हितों से सम्बंधित फैसलों के कारण कम, उनके खिलाफ लिए गए अपने
विवादास्पद फैसलों के कारण अधिक चर्चा में रह रहा है। यह मध्य प्रदेश के पीएचडी धारकों का मामला तो है
ही, इससे पहले भी दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक कोर्स की पढाई को चार साल किये
जाने के मसले पर दिल्ली विश्वविद्यालय व् यूजीसी के बीच ठन चुकी है। स्पष्ट है कि
यूजीसी को विश्वविद्यालय के साथ समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से बनाया गया था
लेकिन, ये उनपर अपने निर्णय थोपने की कोशिश करता रहता है और बात ना मानने पर
अनुदान रोक देने का औजार तो इसके पास है ही। कहीं न कहीं यूजीसी के इन्हीं गैरजिम्मेदाराना और उद्देश्य
हीन बर्तावों के कारण विगत वर्ष शिक्षा मंत्री स्मृति इरानी द्वारा गठित एक समिति
ने जांच के उपरान्त कहा था कि यूजीसी अपने उद्देश्य में पूरी तरह से विफल रहा है,
अतः इसे भंग कर देना चाहिए।
हालांकि यूजीसी को भंग कर देना कोई उपाय नहीं
है क्योंकि, इस प्रकार की एक संस्था की आवश्यकता हमारी उच्च शिक्षा को है बशर्ते
कि इसमे सुधार किया जाय। सुधार से मुख्य तात्पर्य यह है कि इसके अधिकारों को सीमित
किया जाय तथा इसकी गतिविधियों की देख-रेख हेतु इसके ऊपर एक निगरानी व्यवस्था बना
दी जाय, जिससे ये विश्वविद्यालयों के साथ मनमानी न कर सके। हालांकि यह सब बाद की
चीजें फिलहाल सबसे पहले तो आवश्यक यह है कि सरकार मध्य प्रदेश पीएचडी धारकों के
मामले में आवश्यक हस्तक्षेप कर कोई बीच का रास्ता निकाले जिससे उनका भविष्य
अन्धकार में न जाए।
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