शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

शीतयुद्ध के नए दौर का संकट [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

रूस और ब्रिटेन के मध्य हुए एक छोटे से राजनयिक विवाद ने धीरे-धीरे विश्व के अनेक महाशक्ति राष्ट्रों के बीच शीतयुद्ध जैसा रूप ले लिया है। पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि डालें तो बीते मार्च में रूस के पूर्व जासूस सर्गेई स्क्रिपल और उनकी बेटी पर ब्रिटेन में हुए रासायनिक हमले के बाद इस विवाद की शुरुआत हुई। उल्लेखनीय होगा कि पूर्व में सर्गेई स्क्रिपल रूस की सेना के ख़ुफ़िया विभाग में कर्नल रह चुके हैं, जिस दौरान उनपर रूस के ही खिलाफ जासूसी करने का आरोप लगा था। इसके बाद उन्हें तेरह वर्षों की सजा हुई। लेकिन, २०१० में रूस और ब्रिटेन के बीच हुए एक समझौते के तहत सर्गेई रूस को छोड़कर ब्रिटेन में बसे थे। अतः अब जब उनपर रासायनिक हमला हुआ तो इसका आरोप ब्रिटेन ने रूस पर लगाते हुए उसके २३ राजनयिकों को निष्काषित कर दिया। बदले में रूस ने भी ब्रिटेन के उतने ही राजनयिकों को निकालने का ऐलान कर दिया, जिसके बाद ब्रिटेन के समर्थन में बीस से अधिक यूरोपीय देशों सहित अमेरिका ने भी रूसी राजनयिकों को निष्कासित करने की घोषणा कर दी। रूस की तरफ से भी इसकी समान प्रतिक्रिया हुई। इसके बाद अब विश्व के इन महाशक्ति देशों के बीच द्विध्रुवीय स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसमें एक छोर पर रूस खड़ा है, तो दूसरे पर अमेरिका सहित योरोपीय देश खड़े हैं। अब प्रश्न यह है कि अमेरिका-यूरोप और रूस के बीच मचा ये शीतयुद्ध विश्व समुदाय को कितना और किस प्रकार प्रभावित करेगा ?
दैनिक जागरण

यहाँ सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना होगा कि आखिर शीतयुद्ध होता क्या है और इस ताजा विवाद की तुलना शीतयुद्ध से क्यों की जा रही ? दरअसल शीतयुद्ध, कूटनीतिक दाँव-पेंचों और गुटबाजियों द्वारा अलग-अलग देशों के बीच एकदूसरे पर दबाव बनाने की कवायदों को कहा जाता है। इसमें हथियारों से नहीं, कूटनीतिक दाँव-पेंचों से लड़ाई होती है। शीतयुद्ध का आरम्भ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका, ब्रिटेन और तत्कालीन सोवियत रूस के बीच मतभेद उत्पन्न होने के बाद से माना जाता है। स्थिति ऐसी बनी थी कि तब साम्यवादी शासन प्रणाली को अपनाने वाले देश सोवियत रूस के और पूंजीवादी शासन प्रणाली को अपनाने वाले देश अमेरिका के पक्ष में खड़े हो गए। माना जाता है कि सन १९९१ में सोवियत संघ का विभाजन होने से रूस की शक्ति में कमी आई, वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका का एकछत्र दबदबा कायम हुआ और इसीके साथ शीतयुद्ध का भी अंत हो गया। ताजा मामले में जिस तरह से रूस के विरुद्ध अमेरिका और यूरोपीय देशों की लामबंदी हुई है, उसे देखते हुए ही इसे शीतयुद्ध के रूप में परिभाषित किया जा रहा।    

इसमें कोई संशय नहीं कि अमेरिका-यूरोप और रूस जैसी विश्व की महाशक्तियों के बीच उपजा यह विवाद वैश्विक स्थिरता और शांति के लिए चिंताजनक है। चिंता का सबसे बड़ा कारण इस विवाद का लगभगअकारणही पैदा होना है। गौर करें तो रूस के पूर्व जासूस पर रासायनिक हमले के संदेह भर में जिस तरह से ब्रिटेन ने रूस के २३ राजनयिकों को निष्काषित कर दिया, वो कतई उचित और अपेक्षित कार्यवाही नहीं थी। रूस ब्रिटेन के आरोपों का खण्डन करते हुए प्रमाण देने की मांग कर रहा, जो कि उचित भी है। ब्रिटेन को प्रमाण देना ही चाहिए। मगर, ब्रिटेन से प्रमाण की अपेक्षा किए बिना ही अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका ने भी जिस तरह से रूस के राजनयिकों को निष्काषित किया, वो और भी विचित्र रहा। इन बातों को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे जानबूझकर यूरोप और अमेरिका द्वारा इस विवाद को जन्म दिया गया है। अन्यथा एक सामान्य-सी घटना के कारण इस तरह की कार्यवाही का कोई औचित्य नहीं है। अब इसके पीछे यूरोपीय देशों और अमेरिका की क्या मंशा है, इस विषय में अभी स्पष्ट रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर इतना जरूर है कि इस पूरे घटनाक्रम में यूरोप और अमेरिका द्वारा कहीं कहीं अपनी एकजुटता का प्रदर्शन कर रूस पर एक प्रकार से दबाव कायम करने का ही प्रयास किया गया है। हालांकि रूस ने जिस तरह से इन देशों को उन्हीकी भाषा में उत्तर दिया है, उससे लगता नहीं कि वो किसी प्रकार के दबाव में आने वाला है।  

बहरहाल, प्रथम शीतयुद्ध के समय वैश्विक परिस्थितियां अलग थीं। तब भारत आदि कई देश तो ताजा-ताजा ही आजाद हुए थे और अपने पैरों पर खड़े होने की जद्दोजहद में लगे थे। लेकिन, आज स्थिति बदल चुकी है। अब विश्व में कोई भी हलचल होने पर भारत उससे बचकर नहीं रह सकता। मौजूदा मामला भारत के लिए केवल कूटनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि चिंताजनक भी है। कारण कि रूस से जहां भारत के पारंपरिक रूप से मधुर सम्बन्ध रहे हैं, वहीं अमेरिका से उसके सम्बन्ध हाल के दिनों में लगातार बेहतरी की तरफ अग्रसर हैं। ब्रिटेन आदि देशों से भी भारत के सम्बन्ध अच्छे हैं।

मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद भारत ने रूस और अमेरिका दोनों ही देशों के बीच संबंधों का शानदार संतुलन स्थापित कर भारतीय विदेशनीति के एक बड़े यक्ष-प्रश्न को हल कर दिया था। लेकिन, अब इस ताजा विवाद ने उस यक्ष-प्रश्न को पुनः भारत के समक्ष खड़ा कर दिया है। चुनौती इस लिहाज से भी चिंताजनक है कि अगर भारत अमेरिका के पक्ष में खड़ा होता है, तो एशिया में कोई और मजबूत साथी पाकर रूस चीन का रुख कर सकता है, जो कि भारत के लिए किसी प्रकार से ठीक नहीं होगा। चीन ने तो इस स्थिति का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का प्रयास शुरू भी कर दिया है। अभी हाल ही में चीन के नए रक्षा मंत्री जनरल वाई फेनघे रूस दौरे पर थे. वहाँ उन्होंने रूसी रक्षा मंत्री सेरगेई शोईगु से मुलाकात करने के बाद कहा, "चीनी पक्ष यहां (मॉस्को) आकर अमेरिकियों को दिखा रहा है कि चीन और रूस की सेनाओं के बीच गहरे संबंध हैं।" चीनी रक्षा मंत्री ने यह भी स्पष्ट किया कि वह रूस को समर्थन देने के इरादे से भी मॉस्को पहुंचे हैं। स्पष्ट है कि रूस को अपनी तरफ करने के लिए चीन जुट चुका है। लेकिन, भारत के लिए रूस के साथ खड़े होने का अर्थ है कि अमेरिका सहित अपने तमाम यूरोपीय मित्र देशों के विरोध में खड़ा दिखना। ऐसे में, देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत इस कूटनीतिक चुनौती का मुकाबला किस प्रकार से करता है।

वैसे, रूस और अमेरिका दोनों ही देशों के साथ भारत की मंत्री स्तर की वार्ता इसी महीने में होने वाली है। रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण जहाँ इसी महीने शीघ्र ही रूस की यात्रा पर जा रही हैं, वहीं इस महीने के अंत तक भारत की रक्षा और विदेश मंत्रियों के स्तर की वार्ता अमेरिका के साथ भी हो सकती है। इन वार्ताओं में ताजा विवाद को लेकर भारत को अपना रुख स्पष्ट करना होगा। हालांकि एक बात है जो रूस-अमेरिका के सम्बन्ध में भारत के पक्ष को लगभग सार्वकालिक रूप से बेहद मजबूत बनाती है और जिसके दम पर भारत अपना पक्ष दृढ़ता से रख सकता है, वो बात ये है कि रूस और अमेरिका दोनों ही देश किसी भी स्थिति में भारतीय बाजार की उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते। ऐसे में, उम्मीद की जा सकती है कि भारत शीतयुद्ध जैसी इस कठिन परिस्थिति में भी अपने संबंधों का संतुलन कायम रखने में कामयाब साबित होगा। संभव है कि इजरायल और फिलिस्तीन के विवाद में मध्यस्थता के लिए जिस प्रकार भारत का नाम उठा था, वैसे ही इस विवाद में भी भारत कोई मध्यस्थ भूमिका निभाने में सक्षम सिद्ध हो सके।

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