शुक्रवार, 10 मार्च 2017

भारत में आइएस की धमक [दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
उत्तर प्रदेश में चुनावी हंगामा थमा नहीं कि आतंकी सैफुल्लाह के एनकाउंटर से एक नया और चिंतनीय प्रकरण पैदा हो गया। दरअसल बीते मंगलवार को मध्य प्रदेश के जबड़ी स्टेशन के पास पैसेंजर ट्रेन में एक कम तीव्रता का बम धमाका हुआ, जिसमें लगभग दस लोग घायल हुए। इस बम धमाके की जांच में लगी मध्य प्रदेश पुलिस ने तीन आतंकियों को पिपरिया से गिरफ्तार किया, तो इस धमाके में दस लोगों का नेटवर्क होने की बात सामने आई। खैर, गिरफ्तार  तीन आतंकियों से मिली जानकारी के आधार पर कानपुर से फैज़ल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। एक आतंकी सैफुल्लाहह के लखनऊ में होने की जानकारी मिली थी, जिसके साथ यूपी एटीएस की लम्बी मुठभेड़ चली और उसे मार गिराया गया। लेकिन, इस नेटवर्क के शेष पांच आतंकी अभी भी फरार हैं। अब यह आतंकी किस संगठन के थे या इनका क्या मुख्य उद्देश्य था; इस सम्बन्ध में अभीतक कुछ भी स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है। शुरुआत में यह दावा किया गया कि ये आतंकी आइएस से जुड़े हैं, मगर अब पुलिस अपने इस दावे से पीछे हटती नज़र रही है। मतलब कि पुलिस के पास अभी इस विषय में पुख्ता तौर पर कहने को कुछ नहीं है। वह भ्रम की ही स्थिति में है। 

इस मामले ने पुलिस समेत देश के ख़ुफ़िया तंत्र के प्रति एक तरफ चिंता पैदा किया है, तो वहीँ दूसरी तरफ विश्वास भी जगाया है। यूँ कहें तो इसमें पुलिस और ख़ुफ़िया तंत्र की कामयाबी और नाकामयाबी दोनों सामने आई है। कामयाबी यह कि एक हल्के धमाके के बाद ही ख़ुफ़िया सूचनाओं आदि के आधार पर मध्य प्रदेश पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए तीन आतंकियों को गिरफ्तार कर लिया जिनसे मिली सूचना के आधार पर आगे कानपुर से एक और आतंकी की गिरफ़्तारी तथा लखनऊ में सैफुल्लाहह का एनकाउंटर हुआ। इस तरह इन आतंकियों का नेटवर्क उजागर हो गया। लेकिन,  नाकामयाबी यह है कि देश में आतंकियों का ऐसा नेटवर्क काम कर रहा था और इसकी कोई सूचना देश के ख़ुफ़िया तंत्र को नहीं थी। ख़ुफ़िया तंत्र तब जागा जब आतंकियों ने एक छोटा ही सही धमाका कर लिया। यह धमाका बड़ा भी हो सकता था और जान-माल को भारी क्षति पहुँच सकती थी। इसके अलावा यूपी पुलिस की नाकामयाबी यह है कि सैफुल्लाहह जैसा आतंकी पिछले छः महीने से प्रदेश की राजधानी में किराए पर रह कर अपनी गतिविधियाँ संचालित कर रहा था और यूपी पुलिस को इसकी भनक भी नहीं लगी। इसके अलावा अभी तक आतंकियों के संगठन की वास्तविक पहचान का सामने आना तथा इस बारे में अलग-अलग तरह की बातें उजागर होना भी सवाल खड़े करता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि पुलिस और ख़ुफ़िया विभाग ने धमाके के बाद ही सही, आतंकियों से निपटने में तत्परता तो दिखाई है; मगर उनकी कार्यप्रणाली की खामियों को लेकर सवाल भी बहुत से हैं जिनका केवल जवाब दिया जाना चाहिए बल्कि चिंतन-मनन कर उन खामियों को दूर करने की दिशा में भी प्रयास किए जाने चाहिए। क्योंकि, दस आतंकियों के नेटवर्क जिनमें से पांच अब भी फरार हैं, के देश में सक्रिय होने को किसी भी लिहाज से हल्के में नहीं लिया जा सकता। वो भी तब जब इनके आइएस जैसे दुनिया के सबसे खूंखार आतंकी संगठन से प्रभावित होने के आसार दिखाई दे रहे हैं।

दैनिक जागरण
गौरतलब है कि मारे गए आतंकी सैफुल्लाह के कमरे से बरामद चीजों में हथियारों, डायरियों आदि के अलावा आइएस का झंडा भी मिला है। इसी आधार पर शुरू-शुरू में उसके आइएस से जुड़े होने की बात की गयी थी, मगर बाद में पुलिस अपनी बात से मुकर क्यों गई इसका कुछ भी आधार समझ नहीं आता। संभव है कि कोई ऊपरी दबाव रहा हो। आइएस का झंडा होने का इतना मतलब तो खैर है ही कि वो आइएस से कहीं कहीं प्रभावित था।

भारत तक आइएस का पहुंचना कठिन अवश्य लगता है, मगर आइएस की ताकत को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। आइएस कितना मजबूत और ताकतवर है, इसकी एक बानगी यह है कि उसके खिलाफ अमेरिका, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन जैसे दुनिया के सभी महाशक्ति देश लम्बे समय से लगातार लड़ रहे हैं और अपनी ताकत लगाए हुए हैं, उसके ठिकानों पर निरंतर हमले हो रहे और उसके लोगों को मारा जा रहा है; लेकिन बावजूद इसके वो ख़त्म होने की बजाय दुनिया के इन देशों में एक के बाद एक आतंकी वारदातों को अंजाम दिया है। पेरिस से लेकर ब्रसल्स तक आइएस द्वारा किए गए आतंकी हमले इसका उदाहरण हैं। यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि सीरिया में मौजूद आइएस वहाँ से बहुत दूर स्थित ब्रसेल्स और पेरिस जैसे अति-सुरक्षित जगहों पर हमला करने में कैसे सक्षम हो जाता है ? इस सवाल का जवाब यह है कि उसने कहीं कहीं आतंकी हमला करने की एक नई प्रणाली विकसित कर ली है, जो ये है कि जहां जिस देश में हमला करना हो, वहाँ अपने लोगों को भेजने की बजाय वहीँ के लोगों को आइएस से जोड़ा जाय और इस काम में उसके लिए सोशल मीडिया सर्वाधिक सहयोगी भूमिका निभा रहा है। जानकारी के अनुसार आइएस की अपनी एमाक नामक न्यूज एजेंसी है जो चौबीस घंटे आइएस के लिए काम करती है। इस एजेंसी के जरिये सोशल मीडिया पर अपनी  विचारधारा का प्रसार करने के लिए आइएस ने हर जगह लोग तैनात किए हैं और फेसबुक, ट्विटर आदि पर भिन्न-भिन्न नामों से  उसके एकाउंट्स चलने की बात भी सामने आती रही है। वो भी इस तरह कि किसीको खबर हो और वे अपना काम भी करते रहें। इन माध्यमों के जरिये दूर-दूर बैठे समुदाय विशेष के लोगों से संपर्क कर उन्हें आइएस की विचारधारा से  जोड़ कर आइएस के लिए काम करने को प्रेरित किया जाता है। जन्नत के कपोल-कल्पित आनंद  के अलावा आइएस में शामिल होने पर तरह-तरह की सुख-सुविधाएं मिलने का झूठा प्रलोभन भी दिया जाता है। इस तरह के प्रलोभनों में फंसकर आइएस में शामिल होने और फिर उसकी पीड़ादायक क्रूर जीवन-शैली को देख किसी तरह जान बचाकर भागे लोगों द्वारा उपर्युक्त विवरण के विषय में बताया जाता रहा है। अब ये कुछ लोग तो उससे प्रभावित नहीं हुए, लेकिन समझा जा सकता है कि अनेक लोग सोशल मीडिया के जरिये ही आइएस से जुड़कर उसकी विचारधारा से प्रभावित होकर उसके लिए काम भी करने लगते होंगे। ऐसे में, समझना मुश्किल नहीं है कि आइएस की सैन्य शक्ति से मुकाबला जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है कि साइबर संसार में भी उसे समाप्त किया  जाय। अब जिस आइएस के पास लोगों को जोड़ने का ऐसा नेटवर्क हो, उसका भारत में आना बहुत मुश्किल है; ऐसा सोचना अनावश्यक अति-आत्मविश्वास के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह भी याद रखना होगा कि वर्ष २०१४ में आइएस के एक ट्विटर हैंडलर मेहंदी मसरूर की गिरफ़्तारी भारत के बंगलुरु से हुई थी जो लम्बे समय से सक्रिय था और हमारे ख़ुफ़िया तंत्र को इसकी कोई भनक तक नहीं थी। ब्रिटेन की सूचना पर हम उसे पकड़ सके थे। फिर अभी ऐसे और लोग देश में सक्रिय नहीं होंगे, इसका क्या भरोसा है। अतः उचित होगा कि इस ताज़ा मामले में आइएस कनेक्शन के प्रति गंभीर रहते हुए उसके साइबर नेटवर्क को नज़र में रखकर जांच की जाए। हमारे सियासी हुक्मरानों को भी चाहिए कि इस मामले में फ़िज़ूल की राजनीति करने के बजाय इसकी गंभीरता को समझें तथा देश के ख़ुफ़िया तंत्र को मजबूती देने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है।

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