- पीयूष द्विवेदी भारत
इन
दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत अवस्थित रामजस महाविद्यालय विवादों में बना
हुआ है। दरअसल ये सारा विवाद शुरू तब हुआ जब गत २१ फ़रवरी को रामजस महाविद्यालय के
एक सेमिनार में वामपंथी छात्र संगठन आईसा द्वारा जेएनयू के छात्र और राष्ट्रद्रोह
के आरोपी उमर ख़ालिद व शेहला रशीद को बुलाया गया, जिसका छात्र संगठन अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद् द्वारा विरोध हुआ। फिर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उमर खालिद और
शेहला रशीद के आने पर रोक लगा दी। इसके विरोध में वामपंथी छात्र संगठन आईसा द्वारा
विरोध मार्च निकाला गया और इसी दौरान आईसा तथा एबीवीपी के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प
हुई। तत्पश्चात पुलिस ने कार्रवाई करते हुए झड़प के लिए जिम्मेदार संदिग्धों को
गिरफ्तार कर लिया। फिर क्या था! कामरेड ने सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के हनन का प्रलाप आरम्भ कर दिया। शायद उनके लिए अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के हनन का आशय यह था कि उमर ख़ालिद जैसे देशविरोधी नारे लगाने वाले
देशद्रोह के आरोपियों को दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषणबाजी क्यों नहीं करने दी गयी ? इनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या
ज्ञानगर्भा भारत-भूमि में विद्वानों का अकाल पड़ गया है जो दिल्ली विश्वविद्यालय
जैसे देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान के कार्यक्रम में, पुलिस की कमज़ोर जांच व
भारतीय न्याय-प्रणाली की लचरता के कारण बाहर घूम रहे, उमर खालिद जैसे देशद्रोह के आरोपियों
को बुलाया जाएगा। इस तरह की अभिव्यक्तियों पर निस्संदेह अंकुश लगाया जाना चाहिए।
एबीवीपी ने यही किया जिसमें कुछ भी अनुचित नहीं कहा जा सकता। खैर! अभी वामपंथी
ख़ेमे का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का पाखंडी प्रलाप चल ही रहा था कि तभी
अचानक एक और मामला सामने आ गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के ही लेडी श्रीराम
महाविद्यालय में पढ़ने वाली भारतीय सेना के एक शहीद जवान की पुत्री गुरमेहर कौर का
परिदृश्य में आगमन हुआ।
हरिभूमि |
गुरमेहर
कौर पहले तो एबीवीपी के विरोध में खड़ी हुईं और उसके बाद मीडिया में यह रोना रोने
लगीं कि इस विरोध के बाद उन्हें बलात्कार की धमकी मिल रही है। आरोप का आधार यह था
कि सोशल साईट पर विरोध प्रदर्शित करने के लिए लगाई गयी उनकी तस्वीर पर टिप्पणी के
माध्यम से कुछ लोगों ने बलात्कार आदि की धमकी दी थी। लेकिन, विडंबना देखिये कि
इतने बड़े शिक्षण संस्थान में पढ़ने वाली इस लड़की को इतना भी नहीं सूझा कि ऐसे
मामलों में सबसे पहले पुलिस के पास जाना चाहिए न कि मीडिया और सोशल मीडिया पर
निरर्थक प्रलाप करना चाहिए। मगर, यहाँ तो
शायद उद्देश्य ही इतना था कि स्वयं को पीड़ित के रूप में पेश करके एबीवीपी के ख़िलाफ़
माहौल बनाया जा सके। खैर, गुरमेहर प्रकरण आते ही कभी जेएनयू के ‘अनमोल रतन काण्ड’ पर
बेशर्म खामोशी की चादर ओढ़ लेने वाला वामपंथी ब्रिगेड नारी अस्मिता की आवाज उठाने
लगा। मार्च निकाला जाने लगा। इसी बीच गुरमेहर की गत वर्ष की एक तस्वीर वायरल हो गई
जिसमें वे ‘मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा है’ की तख्ती लिए हुए
दिख रही हैं। हालांकि अपने पिता की शहादत का दुरूपयोग कर रही इस लड़की को इतना भी
नहीं पता कि उनके पिता युद्ध में नहीं, आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे और
वे आतंकी कहीं और से नहीं, पाकिस्तान से ही आए थे। खैर, फिर इस तस्वीर को लेकर भी
बवाल शुरू हो गया। विवाद की इस बहती गंगा में चर्चा से दूर पड़े कुछ फ़िल्मी सितारों
और खिलाड़ियों आदि को भी जैसा-तैसा पक्ष पकड़कर चर्चा में आने का मौका मिला गया और
उन्होंने इसे भुना भी लिया। राजनेता भी मैदान में कूद गए। वामपंथी नेता सीताराम येचुरी
तो विरोध मार्च में शामिल होने महाविद्यालय तक पहुँच गए। लेकिन, इतने सब के बीच न
तो गुरमेहर कौर को और न ही उनके कथित खैरख्वाहों में से ही किसीको ये सूझा कि
गुरमेहर को बलात्कार की धमकी मिलने की पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी जाए। ये काम
किया तो उसी एबीवीपी ने जिसके लोगों पर धमकी देने का गुरमेहर कौर आरोप लगा रही थीं।
इतना सब बवाल मचाने के बाद गुरमेहर कौर को अचानक ही जाने क्या आत्मज्ञान हुआ कि
उन्होंने एबीवीपी के खिलाफ चलाई अपनी मुहीम से अपना नाम वापस ले लिया और शांति से
जीने की इच्छा प्रकट करने लगी। सवाल यह है कि उनसे उनकी शांति छीन कौन रहा था ?
आखिर इस पूरे विवाद में अनावश्यक रूप से कूदने और अपने पिता की शहादत का अनुचित
इस्तेमाल कर लोगों का समर्थन प्राप्त करने का काम तो उन्होंने खुद ही किया था।
अब
इस पूरे प्रकरण के दौरान रामजस महाविद्यालय समेत पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में मौजूद
अध्ययन के परिवेश को कितनी क्षति पहुंची होगी, इसे समझा जा सकता है। दरअसल वामपंथी
चाहते ही यही हैं। देश के शिक्षण संस्थानों के शैक्षिक वातावरण को प्रदूषित कर
उनके प्रति आम जनमानस में गलत सन्देश प्रसारित करना हाल के दिनों में वामी ब्रिगेड
का मुख्य शगल बनता जा रहा है। दुर्भाग्यवश जेएनयू जैसे बड़े शिक्षण संस्थान जहां
वामियों का वर्चस्व है, के विषय में वे इस तरह का कुप्रचार करने में लगभग सफल भी
हुए हैं। गत वर्ष जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के फलस्वरूप लोगों में
ऐसा सन्देश गया है कि अब इस विश्वविद्यालय का नाम आते ही ‘देशद्रोहियों का अड्डा’
जैसी बातें जनसामान्य के मुंह से यूँ ही निकल पड़ती हैं। यहाँ तक कि अब तो जेएनयू
को बंद करने जैसी मांग तक सामने आने लगी हैं। इस प्रकार जेएनयू की प्रतिष्ठा को
नष्ट कर चुके इन वामियों की दृष्टि अब देश के अन्य शिक्षण संस्थानों पर गड़ी हुई है।
इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय में मचे इस बवाल को भी देखा जा सकता है।
इसके
अतिरिक्त देश के एक अन्य प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान बीएचयू पर भी इनकी
गिद्ध-दृष्टि पड़ चुकी है।
गत दिनों इंडिया टुडे
समूह के एक वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई जो कि वाम विचारधारा के सन्निकट और धुर
मोदी विरोधी हैं, बीएचयू की चार लड़कियों के साथ वहाँ होने वाले लैंगिक भेदभाव जैसे
कि लड़कियों को मांस नहीं खाने देने, लड़कियों के लिए वाई-फाई नहीं होने, राजनीतिक गतिविधियों
की अनुमति नहीं होने आदि प्रश्नों पर चर्चा करते दिखाई दिए। हालांकि विश्वविद्यालय
प्रशासन ऐसे किसी भेदभाव से इनकार कर चुका है। और यदि राजदीप से उन लड़कियों की
बातचीत सुनें तो ऐसा आभास होता है कि उनके उत्तर पूर्व-नियोजित हैं अथवा प्रश्नों
के उलटफेर के जरिये उनसे अपने मनमाफिक बात बुलवाई जा रही है। इस बातचीत में राजदीप
यह साबित करने की कोशिश में लगे रहे हैं कि बीएचयू में लड़कियों पर आरएसएस की
विचारधारा थोपी जा रही है। खैर, अभी ये बीएचयू पर वामपंथी कुदृष्टि के पड़ने का
प्रारंभिक चरण है; लेकिन अगर अभी इसपर सचेत नहीं हुआ गया तो कब ये विचारधारा उस
ज्ञान के मंदिर को प्रदूषित करने वहाँ पहुँच जाएगी, पता भी नहीं चलेगा।
दरअसल आज़ादी के बाद लगभग सात दशकों तक कांग्रेसी
हुकूमत की छत्रछाया में परिपोषित हुए ये वामपंथी २०१४ में सत्ता-परिवर्तन के बाद
से ही बिलबिलाए हुए हैं। अबतक अधिकांश शिक्षण संस्थानों पर इनका जो एकछत्र
साम्राज्य रहता आया था, वो अब समाप्त होने लगा है। अन्य विचारधाराओं को भी जगह
मिलने लगी है। यह प्रमुख कारण है कि देश के शिक्षण संस्थानों की प्रतिष्ठा को नष्ट
करने के कुप्रयास में लगे हैं। इनके इन कुत्सित प्रयासों के प्रति पूरी तरह से
सावधानी दिखाने की आवश्यकता है।
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