रविवार, 19 मार्च 2017

पुस्तक समीक्षा : कुछ पूछती कुछ बताती कविताएँ [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश के नवीन कविता-संग्रह ‘वहाँ पानी नहीं है’ की कविताएँ विषयों की विविधता और उन विषयों के प्रति एक सीमा तक नवीन दृष्टि का समावेश किये हुए हैं। संग्रह की कविताओं में प्रेम व प्रकृति से लेकर समाज और राजनीति तक  के विषयों को छूने का सार्थक प्रयास किया गया है। इन विषयों पर केन्द्रित ये कविताएँ कभी प्रश्न पूछने लगती हैं, तो कभी कुछ बताने का प्रयास करती नज़र आती हैं।
 
दैनिक जागरण
संग्रह की पहली कविता ‘माँ के पंख नहीं होते’ में कवि ने स्त्री के माँ रूप की एक नवीन व साहसिक व्याख्या करने का प्रयास किया है। प्रायः माँ और बच्चों पर केन्द्रित कविताओं में वात्सल्य और स्नेह का भाव ही दिखाई देता रहा है, परन्तु यहाँ माँ बनने के बाद स्त्री के जीवन में आने वाले कुछ कारुणिक परिवर्तनों की ओर कवि द्वारा ध्यान आकर्षित किया गया है। ‘माँ के पंख नहीं होते/कुतर देते हैं उन्हें/ होते ही पैदा/ खुद उसी के बच्चे’ कविता की इन पंक्तियों में स्पष्ट हो जाता है कि माँ बनने के बाद एक स्त्री की बाध्यताएं व विवशताएँ किस प्रकार से बढ़ जाती हैं और उसमें अपनी आकांक्षाओं की उड़ान भरने की सामर्थ्य नहीं रह जाती। माँ के रूप की इस आधुनिक व्याख्या पर अभी काफी कम बात हुई है। संग्रह की एक और कविता ‘तू तो है न मेरे पास’ में भी इस प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। पुस्तक की शीर्षक कविता ‘वहाँ पानी नहीं है’ में पानी के रूप में गहरी बिम्बात्मकता का समायोजन करने का प्रयत्न किया गया है। पानी के अभाव में सूखे के संकट से ग्रस्त खेती से शुरू करते हुए कवि अचानक ही कविता में भी आनंद और उल्लास रुपी पानी के अभाव में उत्पन्न नीरसता को रेखांकित कर जाता है। संग्रह की एक और कविता ‘लोकतंत्र के लोकतंत्र में’ में ऊपर से सुन्दर और सार्थक दिखता लोकतंत्र गलत व्यक्तियों के हाथों में पड़ने पर कैसे विकृत हो जाता है, इसकी काव्याभिव्यक्ति का प्रयास नज़र आता है। ‘कितना डरावना भी दिख सकता है/ जरूरत पड़ने पर सांसद/ और कितनी भली, अपनी सी/ दिखती है संसद, हमेशा’ कविता की इन पंक्तियों में योग्य व्यवस्था भी अयोग्य संचालकों के हाथों में पड़कर कैसे बिगड़ जाती है, इसको स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कह सकते हैं कि प्रस्तुत कविता में सुंदर दिखते लोकतंत्र की विकृतियों को शब्द दिया गया है। कवि ने प्रेम के श्रृंगार पक्षों पर भी गहरी बिम्बात्मकता के साथ बात की है। साथ ही, अन्य विविध प्रकार के विषयों पर भी अनेक रचनाएं इस संग्रह में मौजूद हैं।

भाषा की बात करें तो वो सीधी-सादी खड़ीबोली है। तत्सम-तद्भव दोनों तरह की हिंदी शब्दावली का प्रयोग हुआ। उर्दू, फारसी, आदि भाषाओँ के शब्दों का पूरा प्रयोग हुआ है, परन्तु अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग नहीं दिखाई देता। शिल्प की दृष्टि ये कविताएँ छंदमुक्त और अतुकांत हैं। अलंकारों में भावालंकारों का प्रयोग हुआ है; शब्दालंकारों के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया है। यथास्थान नवीन बिम्ब-रचना अवश्य दिखाई देती है। कुलमिलाकर ये कविताएँ अपने कथ्य की नवीनता के साथ एक सीमा तक ध्यान आकर्षित करती हैं।

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