सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

अध्यादेश वापसी के बहाने नई राजनीति [आईनेक्स्ट इंदौर और डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत

आईनेक्स्ट
डीएनए
जैसा कि पूरी उम्मीद थी कि दागी नेताओं को बचाने वाले अध्यादेश पर राहुल गाँधी के खुले विरोध के बाद सरकार द्वारा इसे वापस ले लिया जाएगा, बिलकुल वैसा ही हुआ ! बेशक ये बहुत अच्छी बात है कि इस अध्यादेश की वापसी के बाद अब दागी नेताओं के बचने का रास्ता बंद हो गया, पर बात यहीं खत्म नही होती ! यहाँ कुछ बातो पर विचार करना आवश्यक होगा ! सबसे पहले तो ये समझना होगा कि सरकार ने ये अध्यादेश वापस जरूर ले लिया है, पर जब और जिस स्थिति में ये फैसला किया गया है, वो सरकार की नीयत को संदेह के घेरे में लाता है ! इसी  संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि जिस कांग्रेस कोर ग्रुप द्वारा २१ सितम्बर को इस अध्यादेश को मंजूरी दी गई थी, उसीके द्वारा इसे वापस लेने का निर्णय भी लिया गया है ! साथ ही ये भी कि जिन राहुल गाँधी ने इस अध्यादेश को फाड़कर फेंकने की बात कही है, वो भी इसपर चर्चा के दौरान मौजूद रहे थे ! इन सब बातो को देखते हुए अब सवाल ये उठता है कि क्या सरकार उसवक्त अंधी और बहरी हो रही थी जब जनता और विपक्ष के विरोध के बावजूद भी वो दागियों को बचाने वाले संशोधन विधेयक पर अध्यादेश ले आयी ? तिसपर जो कांग्रेसी नेता आज इस अध्यादेश को गलत ठहरा रहे हैं, क्या वो उस कैबिनेट में मौजूद नही थे जिसके द्वारा इस अध्यादेश को मंजूरी दी गई ? और तो और, क्या सरकार को इस अध्यादेश के बकवासपने का तब अंदाज़ा नही था जब इसे राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा गया ? सरकार के पास तो इन सवालों के जवाब के रूप में हजारों कुतर्क हैं, पर थोड़ा विचार करते ही सारी असलियत हमारे सामने आ जाती है ! बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि सरकार की ये अध्यादेश वापसी पूरी तरह से अवसरवादी राजनीति से प्रेरित है जिसके तहत सरकार का उद्देश्य लोकसभ चुनाव में राजनीतिक लाभ लेने का है ! यहाँ समझना होगा कि तबतक सरकार ये अध्यादेश आगे बढ़ाती रही जबतक इसपर जनता और विपक्ष का विरोध था, पर जब स्वयं राष्ट्रपति ने भी इसके प्रावधानों पर संदेह जताया तब सरकार के लिए मुश्किल हो गई ! तब सरकार की स्थिति ऐसी हो गई कि उसके लिए इस अध्यादेश को न उगलते बनता न निगलते ! ऐसे में कांग्रेस द्वारा राहुल गाँधी के द्वारा इस अध्यादेश का खुला विरोध करवाके वो चाल चली गई जिससे कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ! मतलब कि सरकार को अध्यादेश वापसी का आधार भी मिल जाए औए विपक्ष को इसका श्रेय भी न मिल सके ! साथ ही राहुल गाँधी को जनता के सामने सरकार से अलग जनता के लिए लड़ने वाले एक जननेता के रूप में प्रस्तुत भी किया जा सके ! पर दुर्भाग्य कि अपने राजनीतिक लाभ के इस अन्धोत्साह में शायद सरकार ये भूल गई कि वो एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत जनता द्वारा चुनकर सत्ता में आयी है और उसपर किसी व्यक्ति विशेष की नही समूचे राष्ट्र की भावनाओं का ख्याल रखने का दायित्व है ! ये कितना अजीब है कि जनता और विपक्ष के विरोध के बावजूद भी एक अध्यादेश राष्ट्रपति के पास स्वीकृति तक के लिए चला जाता है और तभी अचानक सरकार का एक नेता उस अध्यादेश को बकवास करार दे देता है और फिर तो सारी कहानी ही बदल जाती है ! ये देखते हुए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि इस सरकार के लिए किसी जनभावना का कोई महत्व नही है, ये पूरी तरह से वन मैन आर्मी सरकार हो गई है ! कुल मिलाकर इस अध्यादेश के लाए जाने, राहुल गाँधी द्वारा इसका विरोध करने तथा इसे वापस लिए जाने तक के सम्पूर्ण घटनाक्रम को देखने पर जो एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है वो ये कि हमारी सरकार इस कदर व्यक्ति केंद्रित हो गई है कि उसे इसका तनिक भी भान नही हो रहा कि वो कुछ लोगों की संतुष्टि मात्र के लिए लगातार लोकतंत्र का मज़ाक उड़ा रही है ! लोकतंत्र का इससे बड़ा अपमान और क्या होगा कि राहुल गाँधी जिन्हें सरकार में कोई पद तक प्राप्त नही है, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट के निर्णय को बकवास कह देते हैं और प्रधानमंत्री उनकी बात को स्वीकारने के सिवाय कुछ नही कर पाते ! ये देखते हुए एक सीधा-सा सवाल उठता है कि सरकार मनमोहन सिंह चला रहे हैं या राहुल गाँधी ?
  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तो हमेशा से ही कमजोर प्रधानमंत्री होने जैसी टिप्पणियां जनता समेत विपक्षी नेताओं द्वारा भी की जाती रही हैं ! कहा जाता रहा है कि बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का हर निर्णय सोनिया-राहुल का होता है ! विचार करने पर ये बातें लगभग सही ही प्रतीत होती हैं ! कारण कि मनमोहन सिंह के दो बार के प्रधानमंत्री काल में एक भी निर्णय ऐसा नही दिखता जो उनकी अपनी इच्छाशक्ति व सूझबूझ को दर्शाता हो ! बल्कि उलट उनके बयानों में सोनिया-राहुल के लिए जो समर्पण दिखाता है उससे यही स्पष्ट होता है कि वो स्वयं भी खुद को प्रधानमंत्री नही मानते बल्कि इसे सोनिया गाँधी की मेहरबानी ही समझते हैं ! अभी हाल ही में आया उनका ये बयान कि मुझे राहुल के नेतृत्व में कार्य करके खुशी होगी, उनकी कमजोर सोच और राजनीतिक सूझबूझ के अभाव को दर्शाने वाला होने के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए अपमानकारी भी है ! प्रधानमंत्री की इस कमजोर मानसिकता के कारण ही आज उनकी स्थिति ये है कि उनका इस्तेमाल बलि के बकरे की तरह किया जा रहा है ! जब कोई गलत कार्य होता है तो उसकी जवाबदेही प्रधानमंत्री पर आती है जबकि सभी अच्छे कार्यों का सारा सेहरा कांग्रेसी युवराज के सिर बंधता है ! यही कारण है कि व्यक्तिगत रूप से स्वच्छ चरित्र होते हुए भी वो दूसरों के दागों को ढो रहे हैं ! दागियों पर  अध्यादेश मामले में भी यही हुआ है ! पर दुर्भाग्य कि हमारे प्रधानमंत्री इन बातों को जानने और समझने की बजाय मौन रूप से इन्हें स्वीकारते जा रहे हैं ! अब उनको ये कौन समझाए कि वो एक लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए उनपर उछलने वाले कीचड़ से सिर्फ वो नही हमारा लोकतंत्र भी दागदार हो रहा है ! अतः ये समय मौन रहने तथा किसीके इशारों पर चलने का नही बल्कि स्वयं की सूझबूझ से स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय लेने का है !

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