बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

लापरवाही का शिकार होती प्राथमिक शिक्षा [डीएनए में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

डीएनए 
किसी भी राष्ट्र का सतत प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी है ! इसमे कोई दोराय नही कि जिस राष्ट्र के नागरिक अधिकाधिक संख्या में सुशिक्षित होंगे, वो राष्ट्र प्रगति के नित नए कीर्तिमान गढ़ेगा ! सुशिक्षित नागरिक तैयार करने के लिए आवश्यक होता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए ! क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नीव होती है और अगर वो मजबूत होगी तभी आगे चलके उसपर ज्ञान की दमदार ईमारत खड़ी हो सकेगी ! कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा के बगैर किसी भी राष्ट्र के लिए सुशिक्षित और चरित्रवान नागरिक तैयार करना किसी भी लिहाज से व्यावहारिक नही है ! इस बात को अगर भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं ! इसमे कोई दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद आज देश के लगभग एक तिहाई बच्चे स्कूली अनुभवों से वंचित हैं ! अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि सरकार द्वारा तमाम प्रयास किए जाने के बाद भी भारत की प्राथमिक शिक्षा की ये दुर्दशा हो रही है ? इस सवाल का जवाब सिर्फ यही है कि सरकार की अधिकाधिक योजनाओं की ही तरह शिक्षा संबंधी योजनाएं भी बस कागज़ तक सिमटकर रह गई हैं, यथार्थ के धरातल पर उनका कोई अस्तित्व नही है ! क्योंकि, सरकार योजनाएं बनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है और उसे इससे कोई मतलब नही रह जाता कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन कैसे हो रहा है ? इसलिए सरकार की बेहतरीन योजनाएं भी सम्बंधित अधिकारियों व मंत्रियों के बीच धन उगाही का एक माध्यम मात्र बनकर रह जाती हैं और जनता तक उनका लाभ नही पहुँच पाता ! यहाँ भी यही स्थिति है ! नजीर के तौर पर देखें तो सरकार द्वारा अधिकाधिक बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए सन २००९ में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक क़ानून लागू किया गया ! जिसके तहत ६ से १४ साल तक के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है ! इस क़ानून के तहत निजी स्कूलों को भी अपने यहाँ ६ से १४ साल तक के कमजोर और गरीब तबकों के २५ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया ! पर आज इस क़ानून के लागू होने के लगभग ४ साल बाद अगर हम इसके क्रियान्वयन पर एक नजर डाले तो देखते हैं हैं कि इसके नियमों का कोई समुचित क्रियान्वयन अबतक  कहीं नही हुआ है ! साफ़ है कि ये क़ानून  भी सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है और सरकार इस तरफ से आँख-कान बंद किए ‘शिक्षा का अधिकार’ क़ानून को अपनी उपलब्धियों में शामिल किए घूम रही है ! उसे कहाँ परवाह कि राष्ट्र के सुखद और मजबूत भविष्य की द्योतक हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था गर्त में जा रही है !

  उपर्युक्त बाते तो सरकार की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन आदि की थी ! अब अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है ! साधारण शब्दों में कहें तो हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता ! आशय ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का बोझ डाला जा रहा है ! ये समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है ! अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम अधिकृत किया गया है वो किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही है ! कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है ! उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की अवस्था ‘दिस’, ‘दैट’ आदि की स्पेलिंग याद करने की है, उनके लिए ‘दिस’, ‘दैट’ का प्रयोग सिखाने वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है ! कहना गलत नही होगा कि ये पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है ! ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि ये मानिए कि ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे ! बच्चे इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम के दबाव से पढेंगे न कि अपनी इच्छा से और ध्यान रहे कि शिक्षा दबाव से नही, इच्छा से आती है ! जाहिर है कि ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना ! चूंकि, बच्चों के पाठ्यक्रम की ये किताबें अभिभावकों को स्कूल से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे स्कूलों और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा ! इन सब बातो को देखते हुए देश के नौनिहालों के भविष्य के लिए ये आवश्यक है कि सरकार इस संबंध में स्वतः संज्ञान ले तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करे ! साथ ही बच्चों के लिए एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाए जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी हो ! अगर ये किया जाता है, तो ही हम सही मायने में अपने देश के लिए सही नागरिक तैयार कर पाएंगे ! लिहाजा विश्वविद्यालयों और आईआईटी आदि की संख्या बढ़ाने से पहले सरकार को इन बातों पर ध्यान देना होगा, क्योंकि ये बातें भारत की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी हैं और अगर यहीं खामी रही तो आप लाख विश्वविद्यालय स्थापित कर लें, उनका कोई अर्थ नही होगा !

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