- पीयूष द्विवेदी भारत
देश में विषम लिंगानुपात की समस्या और इसपर चर्चा दोनों ही बेहद पुरानी है, मगर वर्तमान समय में जब शिक्षित हो रहे भारतीय समाज में लड़का-लड़की के बीच भेदभाव नहीं करने को लेकर सरकार से लेकर समाज तक की तरफ से प्रयास हो रहे हैं और माना जा रहा है कि स्थिति सुधर रही है, ऐसे समय में इससे सम्बंधित नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट हमें पुनः सोचने पर विवश करती है। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसी पहलों के द्वारा बेटियों को एक गरिमामय जीवन देने की कोशिशों में जुटी केंद्र सरकार के लिए भी नीति आयोग की रिपोर्ट आईने की तरह है। ‘हेल्दी स्टेटस एंड प्रोग्रेसिव इंडिया’ नामक अपनी इस रिपोर्ट में नीति आयोग ने देश के इक्कीस राज्यों की लिंगानुपात सम्बन्धी स्थिति स्पष्ट की है, जिनमें से सत्रह राज्यों में जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी है। गुजरात इसमें शीर्ष पर है, जहाँ जन्म के समय लिंगानुपात में ५३ अंक की भारी गिरावट सामने आई है। इसके बाद क्रमशः हरियाणा में ३५, राजस्थान में ३२, उत्तराखंड में २७, महाराष्ट्र में १८, हिमाचल में १४, छत्तीसगढ़ में १२ और कर्नाटक में ११ अंकों की गिरावट का आंकड़ा नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में प्रस्तुत किया है। संतोषजनक बात यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति में सुधार आया है। परन्तु, शेष राज्यों में विषम लिंगानुपात की यह स्थिति आधुनिकता और प्रगतिशीलता का दम भरने वाले भारतीय समाज के समक्ष यह गंभीर प्रश्न खड़ा करती है कि क्या आधुनिक होने का समस्त प्रदर्शन सिर्फ भौतिक धरातल पर ही है, लोग मानसिक तौर पर अब भी लड़का-लड़की में भेदभाव की मध्यकालीन सोच से ही ग्रस्त हैं ?
नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में केवल समस्या पर ही बात नहीं की है, समाधान बताने का भी प्रयास किया है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिंग परीक्षण और चयन सम्बन्धी क़ानून को सख्ती से लागू किए जाने की बात कही है। समझ सकते हैं कि नीति आयोग ने क़ानून को सख्ती से लागू करने की बात कहकर समाधान बताने का सिर्फ कोरम ही पूरा किया है, क्योंकि चाहें जितना सख्ती दिखा लिया जाए यह समस्या केवल क़ानून से समाप्त नहीं हो सकती। अब प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण लोगों के जीवन से जुड़ी इतनी निजी समस्या है कि क़ानून के दरवाजे तक यह कम ही स्थितियों में पहुँचती है। प्रायः पति-पत्नी परस्पर सहमति और इतने गुपचुप ढंग से ये करवाते हैं कि कितने बार परिवार के लोगों तक को भनक नहीं लगती। ऐसा करने वाले डॉक्टरों का भी अभाव नहीं है। गली-गली में छोटे-बड़े क्लिनिक खोलकर बैठे ऐसे बहुतायत डॉक्टर मिल जाएंगे, जिन्हें ये परीक्षण करने में कोई समस्या नहीं होती। ऐसी स्थिति में क़ानून के लिए इस आपराधिक समस्या पर नियंत्रण स्थापित करना कितना कठिन है, ये आसानी से समझ सकते हैं।
इसी संदर्भ में अगर सम्बंधित क़ानून पर भी एक दृष्टि डाल लें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर अंकुश लगाने के लिए सन १९९४ में 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम' नामक क़ानून बनाया गया, जिसके तहत प्रसव पूर्व लिंग परिक्षण को अपराध की श्रेणी में रखते हुए सजा का प्रावधान भी किया गया। इस क़ानून के तहत लिंग परिक्षण व गर्भपात आदि में सहयोग करने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है तथा ऐसा करने पर ३ से ५ साल तक कारावास व अधिकतम १ लाख रुपये जुर्माने की सजा का भी प्रावधान किया गया है। लेकिन इस क़ानून के लागूं होने के तकरीबन २० वर्ष बाद आज कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या पर कोई विशेष अंकुश लग पाया हो,
ऐसा नहीं कह सकते। आंकड़ों पर गौर करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार देश में छः साल तक की आबादी में १००० लड़कों पर महज ९१४ लड़कियां ही पाई गईं। ये आंकड़े सिर्फ छः साल तक के बच्चों के हैं। बच्चों में ये लैंगिक असमानता कहीं ना कहीं दिखाती है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या किस तरह से चल रही है। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े भी इसीकी पुष्टि करते हैं। अब यह तो स्पष्ट है कि क़ानून इस समस्या पर लगाम लगाने में बहुत कारगर नहीं सिद्ध हो रहा है, ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस समस्या का और क्या समाधान हो सकता है ?
अगर विचार करें तो कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या की इस विसंगति के मूल में हमारी तमाम सामाजिक रूढ़ियाँ मौजूद हैं। आज के इस आधुनिक व प्रगतिशील दौर में लड़कियां न केवल लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, बल्कि कई मायनों में लड़कों से आगे भी हैं। इसमे भी संदेह नहीं कि लड़कियों के इस उत्थान से समाज में उनके प्रति व्याप्त सोच में में काफी बदलाव भी आया है। लेकिन, बावजूद इन सबके आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति अपनी सोच को पूरी तरह से बदल नहीं पाया है। यह सही है कि इसमें अधिकांश ग्रामीण व अशिक्षित लोग ही हैं, लेकिन शहरी व शिक्षित लोग भी इससे एकदम अछूते नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो कम से कम दहेज जैसी रूढ़ीवादी प्रथा की चपेट में तो भारतीय समाज के शिक्षित-अशिक्षित दोनों तबके बराबर ही हैं। कन्या भ्रूण परिक्षण व हत्या के लिए दहेज की ये रूढ़िवादी प्रथा एक बहुत बड़ा कारण है। इसी प्रकार और भी तमाम ऐसी सामाजिक प्रथाएँ, कायदे और बंदिशे हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराई को उपजाने में खाद-पानी का काम कर रही हैं। इन बातों को देखते हुए कह सकते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या आपराधिक प्रवृत्ति से अधिक कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के प्रश्रय से उत्पन्न हुई एक बुराई है। अतः यह भी स्पष्ट है कि इसका समाधान भी सिर्फ क़ानून के जरिए नहीं किया जा सकता। इस बुराई के समूल खात्मे के लिए आवश्यक है कि इसको लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास किया जाए। केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वो इस संबंध में शहर से गाँव तक सब जगह जागरूकता कार्यक्रम चलाएँ जिनके जरिए लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाए कि दुनिया में आने से पहले ही एक जान को नष्ट करके वो न सिर्फ अपराध कर रहे हैं, बल्कि देश के भविष्य को भी संकट में डाल रहे हैं। उन्हें लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं जैसी बातों से भी अवगत कराना चाहिए। इन सबके अलावा दहेज आदि सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करने की दिशा में भी कानूनी स्तर से लेकर जागरूकता लाने के स्तर तक ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। मौजूदा सरकार की तरफ से कुछ प्रयास हो भी रहे हैं, मगर उन्हें और गति देने की आवश्यकता है ताकि उनका कुछ असर भी दिखाई दे क्योंकि नीति आयोग की उक्त रिपोर्ट उन प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर चुकी है। अगर सरकार और समाज दोनों अपने दायित्वों को समझ लें तो निश्चित ही देश की बेटियों को न सिर्फ बचाया जा सकता है, बल्कि एक सम्मानित व स्वतंत्र जीवन भी दिया जा सकता है।
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