शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

निरर्थक विमर्शों का ठिकाना बनता सोशल मीडिया (अमर उजाला कॉम्पैक्ट और राज एक्सप्रेस में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत
वर्तमान समय तकनीक का है और सोशल मीडिया सम्प्रेषण तथा संचार का एक समुन्नत तकनीकी माध्यम है। सोशल मीडिया आज एक ऐसी शक्ति के रूप में मौजूद है, जिसके द्वारा पलक झपकते ही मात्र एक क्लिक के द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को लाखों-करोड़ों लोगों तक न केवल पहुँचा सकता है, बल्कि तमाम प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त कर सकता है। सम्प्रेषण और संचार की इस सहजता ने स्वाभाविक रूप से व्यक्ति में अभिव्यक्ति की भावना को प्रबल किया है। अब लोग फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम आदि इन विविध तकनीकी संचार माध्यमों के द्वारा अपने विचारों और भावों को खुलकर अभिव्यक्त करने लगे हैं। निस्संदेह यह एक अच्छी बात है और इसे सोशल मीडिया के एक सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा जा सकता है। परन्तु, जैसा कि कहा जाता है, हर अच्छी चीज की कुछ बुराइयाँ भी होती हैं। अतः सोशल मीडिया पर अक्सर अभिव्यक्ति के अतिरेक में तमाम ऐसे निरर्थक विमर्श और वितंडे खड़े किए जाने लगे हैं, जो न केवल उसके वातावरण को खराब कर लोगों के मन में कुवृत्तियां जगाने वाले होते हैं, बल्कि कई बार तो राष्ट्र और समाज को क्षति पहुँचाने वाले भी हो जाते हैं।


इस सम्बन्ध में अगर कुछ मामलों पर दृष्टि डालें तो सबसे ताजा मामला फिल्म ‘पैडमैन’ का उल्लेखनीय होगा। बीते दिनों अभिनेता अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ का प्रचार करते हुए ट्विटर पर सेनिटरी नैपकिन के साथ अपनी फोटो साझा करते हुए कई और नामचीन लोगों को ऐसा करने के लिए चुनौती दी। इसके बाद तो ऐसा करने का सोशल मीडिया पर सिलसिला ही चल पड़ा। औरतों ने इसे ‘नारी मुक्ति’ का विमर्श बना दिया और देखते-देखते ट्विटर-फेसबुक सेनिटरी नैपकिन लिए हुए पुरुषों-महिलाओं की तस्वीरों से पट गए। इनमें महिला-पुरुष तथा ख़ास-आम सब तरह के लोग शामिल थे। हर कोई अपनी तस्वीर डालने तथा अक्षय की ही तर्ज पर अपने मित्रों को ऐसा करने की चुनौती देने लगा। कुछ लोगों ने इस प्रवृत्ति का विरोध भी किया, तो तमाम लोग इस भेड़चाल का हिस्सा बनते हुए भी नजर आए। कुल मिलाकर सोशल मीडिया पर सेनिटरी नैपकिन से सम्बंधित एक निरर्थक और अनुत्पादक विमर्श खड़ा हो गया। विमर्श के प्रश्न कुछ यूँ थे कि महिलाओं में माहवारी की प्राकृतिक प्रक्रिया के प्रति घृणित दृष्टि क्यों रखी जाती है, इसे छुपाया क्यों जाता है, सेनिटरी नैपकिन को छुपाकर क्यों खरीदा जाता है, पुरुष महिलाओं की इस समस्या को क्यों नहीं समझते आदि इत्यादि।

इस संदर्भ में गौर करें तो माहवारी में महिलाओं से निकसित रक्त, बिलकुल वैसा ही अपशिष्ट उत्सर्जन होता है, जैसा कि मल-मूत्र का उत्सर्जन होता है। ऐसे में, सैनिटरी नैपकिन के विमर्शकारों को बताना चाहिए कि क्या वे मल-मूत्र के लिए ढोल पीटकर जाते हैं। क्या पुरुष को महिलाओं के समक्ष और महिलाओं को पुरुषों के समक्ष अपने इस तरह के नित्यकर्म के लिए उद्घोषणा करके जाना चाहिए। गौर करें तो व्यक्ति यथासंभव प्रयास करता है कि नित्यकर्म से सम्बंधित इन क्रियाओं को किसी की जानकारी में आए बिना कर ले। बस यही स्थिति माहवारी को लेकर भी है। 


चूंकि, पुरुषों के साथ यह प्राकृतिक प्रक्रिया घटित नहीं होती, इसलिए महिलाएं उन्हें इस विषय में जानकारी नहीं होने देने का ही प्रयत्न करती हैं। ये उनकी निजता होती है, जिसका पुरुष भी सम्मान करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे पुरुषों को भी कुछ ऐसी एकदम अन्तरंग या निजी बीमारियाँ व परेशानियाँ होती हैं, जिन्हें वे महिलाओं से साझा नहीं करते वरन चुपचाप स्वयं ही उनका उपचार करा लेते हैं। यहाँ महिलाओं को भी प्रायः पुरुष की परेशानी का ज्ञान हो ही जाता है, पर बहुत आवश्यक न होने तक वे उनकी निजता का सम्मान करते हुए उसमे अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करतीं। हाँ, माहवारी के  सम्बन्ध में इतना अवश्य सही है कि अशिक्षित और ग्रामीण लोगों में इसे लेकर कुछ छुआछूत जैसी भावना रही है, मगर जैसे-जैसे लोग शिक्षित और जागरूक हो रहे हैं, इसका भी निर्मूलन होता जा रहा है। मगर, ऐसे विषय पर सोशल मीडिया पर विमर्श खड़ा कर देना, पूरी तरह से समझ से परे है।    

इस पूरे विमर्श से अगर किसीको कोई लाभ हुआ है, तो वो मात्र अक्षय कुमार और उनकी फिल्म को हुआ है। इन विमर्शकारों ने अक्षय की फिल्म ‘पैडमैन’ का मुफ्त में जमकर प्रचार कर दिया। इसी तरह बीते दिनों ‘पद्मावत’ फिल्म को लेकर भी स्थिति देखने को मिली। जमीन पर करणी सेना फिल्म को लेकर जितना शोर-शराबा मचा रही थी, उससे कम शोर सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर नहीं था। इस पूरे विमर्श का परिणाम क्या निकला कि आखिर फिल्म प्रसारित होकर न केवल सफल रही, बल्कि जिस करणी सेना का पक्ष लेकर सोशल मीडिया के तमाम धुरंधर फिल्म का विरोध कर रहे थे, उस करणी सेना ने फिल्म को बेहतरीन करार दे दिया। निष्कर्ष यह कि जिस फिल्म का विरोध कर लोगों ने उसका भरपूर नकारात्मक प्रचार करने का ही काम किया।

कहने का आशय सिर्फ इतना है कि सोशल मीडिया धीरे-धीरे ऐसे ही कुछ फिजूल विमर्शों का ठिकाना बनता जा रहा है। कभी ये विमर्श सामाजिक होते हैं, कभी राजनीतिक तो कभी किसी अन्य विषय पर केन्द्रित होते हैं। किसी राजनेता ने कोई बयान दिया नहीं कि सोशल मीडिया के विमर्शकारों में उसपर प्रतिक्रिया देने की होड़ मच जाती है। अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने एक साक्षात्कार में रोजगार पर बोलते हुए पकौड़े वालों का जिक्र क्या किया गया कि सोशल मीडिया पर ‘पकौड़ा पॉलिटिक्स’ का विषय चल पड़ा। ऐसा नहीं कह रहे कि इन विषयों पर बात नहीं होनी चाहिए, मगर किसी विषय की गंभीरता और बारीकी को समझे बिना सिर्फ अभिव्यक्ति के नाम पर उसपर कुछ भी कह देना न केवल उस विषय के साथ अन्याय करना हुआ, बल्कि ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं को भी धोखा देता है।

विचार करें तो दरअसल जब अभिव्यक्ति का अतिरेक होने लगता है, तो उसके आवेग में व्यक्ति की विवेकशक्ति बह जाती है। त्वरित प्रतिक्रिया देने और उसपर लोगों की राय पाने का आकर्षण जब व्यक्ति में अभिव्यक्ति का अतिरेक उत्पन्न कर देता है, तो वहीं से उपर्युक्त प्रकार के निरर्थक विमर्शों का जन्म होता है। सोशल मीडिया सम्प्रेषण का जितना सहज माध्यम है, उसकी संवेदनशीलता भी उतनी ही है। वहाँ अभिव्यक्त कोई भी अनुचित और गैरजिम्मेदाराना विचार किसी बड़े सामाजिक उत्पात और विद्वेष का कारण बन सकता है। अतः आवश्यक है कि इसके प्रति लोग अपनी जिम्मेदारी को समझें तथा सोशल मीडिया के एक जिम्मेदार सदस्य की तरह सोच-समझकर स्वयं को अभिव्यक्त करें। ये न केवल उनके लिए बल्कि समग्र समाज के लिए हितकारी और आवश्यक है।

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