- पीयूष द्विवेदी भारत
गौतम
राजऋषि के नए कहानी-संग्रह ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ की कहानियाँ ऊपर-ऊपर
देखने-सुनने में तो सिर्फ सरहद पर खड़े सैनिकों की कहानियाँ लग सकती हैं, लेकिन जब
इनमें गहरे उतरते हैं, तो पता चलता है कि ये सिर्फ सरहदी पहरेदारों की नहीं, वहाँ की
आबोहवा से लेकर आम-ओ-ख़ास तक की कहानियाँ हैं। यह कहें तो बहुत गलत नहीं होगा कि इन
कहानियों में अपने सभी किरदारों को समेटे सरहद खुद ही एक वृहद् किन्तु अव्यक्त
किरदार की तरह पल-पल मौजूद है। इस संग्रह में कुल २१ कहानियाँ हैं, जिनमें
जज्बात के अलग-अलग रंगों से आप रूबरू होते जाते हैं। कभी आप मुस्कुरा उठते हैं, कभी
खीझ उठते हैं, तो कभी एक अनजान-सी उदासी आपके दिल-दिमाग पर हावी हो जाती है। ये
कहानियाँ सरहद पर खड़े सैनिकों के प्रत्यक्ष संघर्षों से लेकर उनके आंतरिक जीवन में
मचे अनदेखे-अनसुने संघर्षों तक को स्वर देती हैं। साथ ही साथ, कुछ कहानियाँ ऐसी भी
हैं, जिनमें सरहदी इलाकों में रहने वाले आम आदमी के संकटों और संघर्षों को भी कहने
की कोशिश की गयी है।
जब एक सैनिक शहीद होता है, तो देश चार दिन उसकी शहादत पर
गर्वित होता है और शहीदों में उसका नाम दर्ज हो जाता है, लेकिन उस एक जवान की
शहादत के साथ और भी कई शहादतें होती हैं, जिन्हें सिवाय उसके अपनों के और कोई नहीं
जान पाता। संग्रह की कहानी ‘दूसरी शहादत’
इसी तरह की एक त्रासदी को बयान करती है। अपनी प्रेमिका एनी को छोड़ कारगिल में गए
डेविड की शहादत के बाद जब एनी के कर्नल पिता को पता चलता है कि वो डेविड के बच्चे
की माँ बनने वाली है, तो फिर बड़े-बड़े दुश्मनों से भी नहीं डरने वाले कर्नल साहब एनी
के लाख विरोध के बावजूद समाज से डरकर बच्चा गिरवा देते हैं। इसके बाद अक्सर एनी के
मन में प्रश्न उठता है, “तमाम चैनलों पर उसे (डेविड को) पूजा गया मुल्क का हीरो
बनाकर और उसकी शहादत को तो बाकायदा सम्मानित किया गया उस चमचमाते मैडल से खुद
राष्ट्रपति के हाथों मरणोपरांत, लेकिन नन्हे डेविड की शहादत...? वो तो अनकही,
अनलिखी ही रह गई!” सार स्पष्ट है कि एक डेविड के साथ एनी और नन्हा डेविड दोनों
ही शहीद हो जाते हैं, मगर इनकी शहादत का सम्मान तो दूर, उसको कोई जान तक नहीं पाता।
कौन जानता है कि आए दिन अखबारों में आने वाली सैनिकों की शहादतों की खबरों के पीछे
ऐसी जाने कितनी शहादतें होती होंगी। इस कहानी को पढ़ते हुए पाठक में उल्लास, विषाद
और गर्व के तमाम जज्बात आते-जाते रहते
हैं, और ये सब मिलकर इसे इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी बना देते हैं।
संग्रह में सिर्फ सरहद के पहरेदारों की कहानियाँ ही नहीं
हैं, सरहद पार के कुचक्रों में फँसे वहाँ के आम लोगों की संघर्ष और कष्ट कथाएँ भी
हैं। संग्रह की कहानी ‘चिलब्लेंस’ ऐसी ही एक कहानी है। अपने रसोइये माजिद से
घुल-मिल चुका मेजर नीलाभ वर्मा एक रोज जब उसके साथ उसके गाँव दर्दपुरा पहुँचता है,
तो उसकी नजर माजिद के पिता के हाथ की कटी उँगलियों पर पड़ती है। जब वो इसका कारण
पूछता है तो सब लोग हँस पड़ते हैं और बताते हैं कि माजिद ने ही अपने पिता की
उँगलियाँ काटी हैं। उन लोगों का ये ह्रदय विदारक बात हँसकर बताना मेजर सहित पाठकों
को भी चौंकाता है। यहाँ से कौतूहलपूर्ण ढंग से कहानी आगे बढ़ती है और थोड़ी ही देर
में जब इस बात का रहस्य खुलता है, तो पाठक हतप्रभ हुए बिना नहीं रह पाता। ये तथ्य
हमें हिलाकर रख देता है कि गाँव में चिकित्सक न होने के कारण उँगलियों के असह्य
दर्द की अवस्था में माजिद का पिता कैसे अपने बेटे से अपनी उँगलियाँ कटवाता जाता है।
यह एक दर्दपुरा का दर्द है, ऐसे जाने कितने दर्दपुरा ‘धरती का स्वर्ग’ कही जाने
वाली घाटी के आगोश में अपने भीतर अपार कष्ट और संघर्ष छुपाए नारकीय जीवन गुजार रहे
हैं।
वैसे, इन कहानियों में सिर्फ पीड़ा, संघर्ष और त्रासदी ही
नहीं है; मोहब्बतों और मुस्कुराहटों के रंग भी जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। सरहद के
पहरेदारों की मोहब्बतों के यूँ तो इसमें कई किस्से हैं, पर ‘गेट द गर्ल’ नामक
कहानी विशेष रूप से उल्लेखनीय होगी। इस कहानी में हम देखते हैं कि बड़ी-बड़ी
मुश्किलों को मजबूती से झेल जाने वाला लेफ्टिनेंट पंकज कैसे इश्क में अनायास
हथियार डाल देता है। मगर, जब दूसरे तरफ से उसको स्वीकृति नहीं मिल पाती तो
लेफ्टिनेंट साहब की अधूरी प्रेम कहानी को पूरा करने में जिस तरह से कमांडिंग ऑफिसर
से लेकर पूरी बटालियन जुटकर आखिर उन्हें स्वीकृति दिलाकर ही मानती है, तो हम समझ
सकते हैं कि ऊपर से फौलाद नज़र आने वाले फौजियों
के अंदर एक कोमल कोना भी होता है, जहां केवल और केवल मोहब्बत बसती है।
इक तो सजन मेरे पास नहीं रे, हेडलाइन, बर्थ नंबर तीन,
गर्लफ्रेंड्स आदि इस संग्रह की अलग-अलग रंगों से सराबोर कुछ और बेहतरीन कहानियाँ
हैं। इस संग्रह की कहानियों की एक ख़ास बात यह है कि इन्हें पढ़ते हुए ये नहीं कहा
जा सकता कि इनका अंत कब हो जाएगा। चलते-चलते अचानक ही ये खत्म हो जाती हैं। कुछ
कहानियों में ये बात खटकती भी है, मगर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि जब कोई
कथानक सोच-सोचकर गढ़ा जाता है, तो उसका एक मनमाफिक अंत भी निर्धारित किया जाता है।
लेकिन, ये कहानियाँ गढ़ी गयी तो लगती ही नहीं, इनके विषय में तो ऐसा लगता है, जैसे
कि लेखक ने जो देखा और जिया, बस उसीको शब्द प्रदान कर दिए। हालांकि बेहतर होता कि
वे ऐसे विषयों को कहानी में बाँधने की बजाय डायरी विधा में रचते, कहानी उसी विषय
पर रची जानी चाहिए जिसमें वाकई में कोई कहानी हो। खैर, इन कहानियों को लिखने में
लेखक गौतम राजऋषि, जो खुद एक फौजी हैं, को शायद ही कथानक के स्तर पर किसी विशेष कठिनाई
का सामना करना पड़ा हो। कहानियां तो उनके सामने रही होंगी जिसे उन्होंने बस शब्द
प्रदान कर दिए।
भाषा उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों के खुले प्रयोग से
भरी हिंदी है, जिसको हिंदी का साधारण ज्ञान रखने पाठक भी सहज ही पढ़ और समझ सकता है।
कुल मिलाकर सरहद के विविध रंगों भरा ये कहानी-संग्रह हर प्रकार से प्रभावित करता
है।
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