गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

आर्थिक विकास के लिए बैंकों की मजबूती जरूरी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
वर्तमान समय में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के सतत विकास के लिए वहाँ के बैंकों का सुदृढ़ रहना आवश्यक है। मगर, भारतीय बैंकों की स्थिति पहले से ही बहुत बेहतर नहीं है, उसपर अब पीएनबी से सम्बंधित बैंकिंग इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला सामने आ जाना परेशानी बढ़ाने वाली ही बात है। बैंकों द्वारा दिए जाने वाले गारंटी पत्रों (एलओयू) के फर्जीवाड़े पर आधारित इस घोटाले की जद में इलाहाबाद बैंक, यूनियन बैंक, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया आदि कई भारतीय बैंक आए हैं। 


ये ठीक है कि इन सभी बैंकों से कर्ज पीएनबी की गारंटी पर लिया गया है और इस आधार पर वे सारी जिम्मेदारी पीएनबी पर डालकर अपने हाथ खड़े कर रहे हैं, मगर किसी भी स्थिति में यह तथ्य तो नहीं बदलने वाला कि पैसा भारतीय बैंकों का ही लुटा है। अतः पहली जरूरत तो यह है कि इस कठिन समय में भारतीय बैंक एकदूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बजाय इसे भारतीय बैंकिंग प्रणाली के संकट के रूप में स्वीकारते हुए जिम्मेदार रुख अपनाएं। सरकार को भी इस मामले को बैंकों की आपसी लड़ाई में न बदलने देने के लिए आवश्यक हस्तक्षेप करना चाहिए।  घोटाले का मुख्य आरोपी नीरव मोदी तो विदेश भाग चुका है, मगर संतोषजनक बात यह है कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उसकी ५१०० करोड़ की संपत्ति जब्त कर ली गयी है। २०० के आसपास मुखौटा कंपनियों का पर्दाफाश किया जा चुका है तथा बड़े स्तर पर छापेमारी जारी है। 

स्पष्ट है कि सरकारी एजेंसियां इस मामले में सक्रियतापूर्वक कार्यवाही में जुटी हैं, मगर निस्संदेह ये देर से दिखाई जा रही सक्रियता है। अगर यह सक्रियता समय पर दिखाई गयी होती तो शायद मुख्य आरोपी बचकर निकल नहीं पाया होता। अब विदेश से नीरव मोदी को लाए जाने के जितने भी दावे किए जाएं, मगर देश की प्रत्यर्पण प्रणाली के ढुलमुलपने का इतिहास जानने वालों के लिए ऐसे दावों पर विश्वास करने का कोई विशेष आधार नहीं है। निस्संदेह इस फर्जीवाड़े के लिए सरकार नहीं, बैंक ही दोषी हैं, मगर इसकी जवाबदेही सरकार पर ही रहेगी और इसके हानि-लाभ भी उसे ही उठाने पड़ेंगे। वैसे, सरकार की चुनौती सिर्फ इतने तक ही नहीं है, इस घोटाले से भारतीय बैंकिंग प्रणाली पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे, उनसे उसे बचाना भी सरकार का ही दायित्व है। कारण कि बैंकों का सुदृढ़ रहना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है।   

गौर करें तो इस वक़्त भारतीय बैंक बढ़ते एनपीए की समस्या से सबसे ज्यादा परेशान हैं। एनपीए की मार से सबसे ज्यादा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हलकान हैं। वैश्विक रेटिंग एजेंसी केयर रेटिंग्स की एक रिपोर्ट की मानें तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से आठ बैंक ऐसे हैं, जिनका एनपीए अनुपात २२ प्रतिशत से भी अधिक है। मोटे तौर पर समझें तो भारतीय बैंकों का लगभग दस प्रतिशत कर्ज एनपीए की श्रेणी में जा चुका है, जिसमें कि साल दर साल वृद्धि ही हो रही है। केयर रेटिंग्स की ही रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ते एनपीए के मामले में भारत विश्व के शीर्ष पांच देशों में पाँचवे स्थान पर और ब्रिक्स देशों में पहले स्थान पर है। उल्लेखनीय होगा कि भारत के विकट प्रतिद्वद्वी चीन में एनपीए का यह आंकड़ा दो प्रतिशत से भी कम है। अमेरिका की भी यही स्थिति है। रूस का भी एनपीए भारत से कुछ कम है। हालांकि ग्रीस, इटली, पुर्तगाल और आयरलैंड जैसे देश भी हैं, जिनका एनपीए भारत से कहीं अधिक है, मगर इससे भारत की स्थिति अच्छी नहीं हो जाती। इन आंकड़ों के आलोक में यह तथ्य स्वतः सिद्ध है कि भारतीय बैंक एनपीए के रूप में एक सुरसामुखी समस्या से जूझ रहे हैं, जिसके निवारण के लिए यदि शीघ्र कोई ठोस उपाय नहीं किया गया तो ये भारतीय बैंकों सहित उनसे जुड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था को भी लील जाएगी। सरकार ने सरकारी बैंकों के लिए 2 लाख 11 हजार करोड़ के एक विशेष राहत पैकेज का ऐलान कर इसका उपाय करने का एक प्रयास किया भी है, जिससे उम्मीद जगती है कि शायद बैंकों की सेहत में सुधार आए। यह रकम सरकार द्वारा बैंकों को अगले दो साल में दी जाएगी, जिसमें से १ लाख ३५ हजार करोड़ पुनर्पूंजीकरण के एक बांड के माध्यम से दिए जाएंगे तथा शेष ७६ हजार करोड़ का प्रबंध बाजार आदि के द्वारा किया जाएगा। हालांकि अब इस घोटाले के सामने आने के बाद क्या बाजार बैंकों पर विश्वास करने को आसानी से तैयार होगा, ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है।

इस घोटाले के बाद बैंकों के लिए विश्वसनीयता का संकट तो उत्पन्न हो ही गया है। आम लोगों में बैंकों के प्रति विश्वसनीयता का संकट पैदा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। दरअसल ये आशंकाएं इसलिए इतनी प्रबल हैं क्योंकि आए दिन होने वाले छोटे-बड़े साइबर अटैकों, सामान्य फर्जीवाड़ों सहित बैंकों द्वारा बात-बेबात लगाए जाने वाले करों से आम आदमी के मन में बैंकों के प्रति पहले से ही काफी असुरक्षा और खीझ का भाव भरा हुआ है। साथ ही, बड़े पूंजीपतियों का कर्ज न वसूल पाने और आम लोगों से कर्ज वसूली के लिए हाथ धोकर पीछे पड़ जाने की बैंकों की पुरानी प्रवृत्ति भी सामान्य जन में उनकी साख को काफी ख़राब कर चुकी है। ध्यान रहे कि देश का आम आदमी किसी भी मामले के तकनीकी पक्षों में अधिक नहीं उलझता, उसका एक सीधा-सादा और जमीनी आकलन होता है, जिसके आधार पर वो अपनी राय बनाता है और इस मामले में आम जन की राय बैंकों के विरुद्ध बनने की पूरी संभावना है।
उपर्युक्त सभी बातों का निष्कर्ष यह है कि भारतीय बैंकों को चुनौतीपूर्ण हालातों से उबारने के लिए सरकार निस्संदेह प्रयत्न कर रही है, मगर वर्तमान घोटाले के सामने आने से स्थिति और कठिन हो गयी है। अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए भारतीय बैंकों का मजबूत रहना जरूरी है, अतः जल्द से जल्द बैंकों को इस चुनौतीपूर्ण दौर से बाहर लाना होगा। ये दायित्व सरकार और बैंक दोनों का है।

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