मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

पीढ़ियों का टकराव (दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

  • पीयूष द्विवेदी भारत
बीते दिनों देश की राजधानी दिल्ली के एक युवक अंकित सक्सेना की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गयी, क्योंकि वो अपने पड़ोस में रहने वाली एक मुस्लिम लड़की से प्रेम करता था। इससे गुस्साए लड़की के परिजनों ने अंकित की निर्ममतापूर्वक गला रेतकर हत्या कर डाली।  इसके बाद से ही ये मुद्दा सोशल मीडिया पर जोर पकड़ लिया और लोग हत्यारों पर कार्यवाही को लेकर आक्रोशित प्रतिक्रियाएं प्रकट करने लगे। पुलिस ने लड़की के आरोपी परिजनों को गिरफ्तार कर जाँच शुरू कर दी है। खैर, सोशल मीडिया पर लोगों के आक्रोश का मुख्य लक्ष्य वे राजनेता और बुद्धिजीवी भी थे, जो किसी मुस्लिम व्यक्ति की हत्या पर देश में असहिष्णुता का वितंडा खड़ा कर देते हैं, मगर इस मामले पर मौन साधे बैठे रहे। ऐसे चयनित विरोध के खिलाड़ियों को सोशल मीडिया पर खूब लक्ष्य किया गया और लोगों ने ऐसे लोगों से अनेक तीखे प्रश्न पूछे जिनका शायद ही उनके पास कोई उत्तर हो। निस्संदेह यह सब एक सामाजिक समस्या से प्रेरित एक हत्या का राजनीतिकरण किया जाना ही है, मगर इसके लिए मुख्य दोषी सोशल मीडिया पर आक्रोश प्रकट कर रहे लोग नहीं, चयनित विरोध और चुप्पी का खेल खेलने वाले राजनेता और बुद्धिजीवी हैं।

बहरहाल, एक सभ्य समाज के नाते यह आवश्यक है कि इस हत्याकाण्ड के राजनीतिकरण से इतर हम इसमें निहित सामाजिक समस्या के कारणों और निवारणों पर बात करें। लड़की के परिजनों ने लड़के को इसलिए मार दिया क्योंकि वो एक हिन्दू होकर एक मुस्लिम लड़की से प्रेम करता था। पूरी संभावना है कि अगर अंकित मुसलमान होता और किसी हिन्दू लड़की से प्रेम करता तो हिन्दू समाज के लोगों की ओर से भी वही प्रतिक्रिया हो सकती थी, जो अभी लड़की के परिजनों की तरफ से हुई है। कट्टरता और अपनी जाति का एक मिथ्याभिमान दोनों तरफ के लोगों में है; ये अलग बात है कि शिक्षित और सुसंस्कृत होने के कारण हिन्दुओं में कम है, तो शिक्षा से वंचित मुस्लिम समुदाय में अधिक है। मगर मूल समस्या सामाजिक व्यवस्थाओं से सम्बंधित है। विचार करें तो धर्म, जाति और वर्ग पर आधारित विवाह की जो सामाजिक व्यवस्था बनी हुई है, वो इस समस्या का एक मूलभूत और प्रमुख कारक है।


आज के इस आधुनिक हो रहे भारतीय समाज में भी विवाह को लेकर जाति-धर्म को आधार मानने की दुर्भाग्यपूर्ण विसंगति व्यापक रूप से मौजूद है। गाँव-शहर कोई भी क्षेत्र हो तथा शिक्षित-अशिक्षित कोई भी वर्ग हो, सर्वत्र यह विसंगति निरपवाद रूप से दिखाई देती है। शिक्षित, आधुनिक और संभ्रांत कहे जाने वाले परिवार भी प्रायः विवाह के प्रश्न पर अपनी ही जाति का परिवार खोजते मिल जाएंगे। ऐसा भी नहीं कि यह समस्या केवल सवर्ण और उच्च कहे जाने वाले तबके में ही है, आप किसी कथित निम्न जाति के व्यक्ति से पूछिए तो वो भी विवाह के लिए अपनी ही जाति का परिवार ढूंढ़ता मिल जाएगा।

यह सही है कि जाति व्यवस्था के चंगुल से देश धीरे-धीरे काफी हद तक मुक्त हुआ है और हो रहा है। परन्तु विवाह के प्रश्न पर देश की बहुसंख्य आबादी अब भी जाति को ही प्राथमिक आधार मानकर चलती है। हिन्दू हो या मुसलमान, हर धर्म में यह समस्या मौजूद है। हिन्दुओं में जाति है, तो मुसलमानों में ऊँच-नीच की भावना से भरे अलग-अलग फिरके मिल जाते हैं। अब जहाँ एक ही धर्म में विवाह के प्रश्न पर ऐसा जातीय विभाजन मौजूद है, वहाँ अगर कोई अंकित किसी शहजादी (लड़की का नाम) से प्रेम करने के कारण मज़हबी कट्टरपंथियों के निशाने पर जाता है, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर आधुनिक और शिक्षित हो रहे भारत की सोच में से ये  जाति व्यवस्था पूरी तरह से क्यों नहीं मिट पा रही ? क्यों शिक्षित लोग भी विवाह के प्रश्न पर अब भी जाति और मज़हब को प्रमुख आधार मानकर चलते हैं ? इस संदर्भ में पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक राकेश ठाकुर बताते हैं, व्यक्ति को अपना जीवनसाथी चुनने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। पहले लोग इन निर्णयों के लिए परिवार पर निर्भर होते थे, चूंकि कृषि प्रधान समाज में आर्थिक रूप से उनकी आत्मनिर्भरता परिवार पर ही होती थी। मगर समय के साथ जैसे-जैसे नयी पीढ़ी में आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ रही है, वो ऐसे निर्णय स्वयं लेने लगी है। ये एक पीढ़ीगत परिवर्तन हो रहा है, और जब भी कोई परिवर्तन होता है, तो समस्याएँ आती ही हैं। पीढ़ियों का ये सामाजिक टकराव भी उसी प्रकार की एक समस्या है। कुल मिलाकर बात यही है कि भारतीय समाज बदल रहा है और इस बदलाव के साथ ही ये समस्या भी पूर्णतः समाप्त भले हो, मगर कम से कमतर होती जाएगी। इस बात से हम उक्त समस्या के कारणों का कुछ-कुछ अनुमान जरूर लगा सकते हैं। समझा जा सकता है कि नयी पीढ़ी में बदलाव की छटपटाहट है, मगर पिछली पीढ़ी अब भी अपनी पुरानी व्यवस्थाओं को ही ढोने में लगी है, जिस कारण दोनों में टकराव उत्पन्न हो रहा है। ऐसे ही टकराव का उग्र और हिंसक रूप अंकित जैसे मामलों में देखने को मिल जाता है।

इस समस्या के एक और पहलू जिसमें इसके समाधान का भी सूत्र छिपा है, पर ध्यान देना होगा कि इसमें शिक्षित-अशिक्षित से अधिक महत्वपूर्ण बात सामाजिक अवस्थिति और आर्थिक आत्मनिर्भरता (सोशल स्टेटस) की है। गौर करें तो संबंधों में जाति-धर्म के विभाजन की यह समस्या विशेष रूप से मध्यम और निम्न वर्ग में है, उच्चवर्गीय समाज में इसकी उपस्थिति के बराबर ही दिखती है। इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए वर्ष 2015 की आईएएस टीना डाबी और उसी वर्ष दूसरा स्थान पाने वाले अतहर आमिर की शादी का उदाहरण उल्लेखनीय होगा। ये दोनों लोग आईएएस में प्रथम और द्वितीय स्थान प्राप्त किए और फिर शादी का भी ऐलान कर दिए। परिवार को आपत्ति हुई और ही समाज को। परन्तु, अगर यही आईएएस की बजाय कोई साधारण लोग होते तो क्या इतनी आसानी से इस चीज को हजम कर लिया जाता ? मगर, इस मामले में लड़का-लड़की दोनों सक्षम और आत्मनिर्भर थे, इसलिए चाहकर भी कोई आपत्ति नहीं कर सकता था और आपत्तियां होने से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे और भी अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। सिनेमा, क्रिकेट और उद्योग जगत के लोगों में विवाह के लिए जाति और धर्म का विभाजन कम ही देखने को मिलता है। यहाँ बस सामाजिक अवस्थिति महत्वपूर्ण होती है। अगर लड़का-लड़की या उनके परिवारों की सामाजिक अवस्थिति (सोशल स्टेटस) कमोबेश एक जैसी हुई तो सम्बन्ध स्थापित होने में जाति-धर्म जैसी बातों का कोई महत्व नहीं रहता। कहने का आशय यह है कि जहाँ भी लड़का-लड़की खुद सक्षम यानी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, वहाँ उनके संबंधों को चाहे-अनचाहे परिवार और समाज को स्वीकृति देनी ही पड़ती है। मध्यम और निम्नवर्गीय समाज में भी छिटपुट ऐसे मामले में मिल जाएंगे जहाँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़का-लड़की जाति-धर्म को अनदेखा कर विवाह कर लेते हैं। इसलिए इस समस्या का समाधान शिक्षा के साथ-साथ युवाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता में निहित है। लड़कों में तो आर्थिक आत्मनिर्भरता की स्थिति मौजूद है, मगर शिक्षा के अभाव और तमाम सामाजिक बंदिशों के कारण इस मामले लड़कियों की स्थिति अभी बहुत बेहतर नहीं हो पाई है। हालांकि अब धीरे-धीरे लड़कियों में भी आर्थिक आत्मनिर्भरता का विकास हो रहा है और जैसे-जैसे ये विकास तीव्र होता जाएगा, वे भी अपनी पसंद-नापसंद की मुखर अभिव्यक्ति करने लगेंगी। जब लड़का-लड़की दोनों ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगे तो कोई भी जाति-धर्म का सामाजिक बंधन जीवनसाथी चुनने के उनके अधिकार के बीच नहीं सकेगा। यही वो समय होगा कि सामाजिक खाँचों में सिकुड़ी मानवता खुलकर सांस ले सकेगी। अंत में, रही बात अंकित की हत्या जैसे मामलों की तो ये देश की क़ानून और न्याय व्यवस्था का दायित्व है कि वो इस तरह के मामलों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कदम उठाए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें