सोमवार, 25 जनवरी 2016

साढ़े छः दशकों में क्या खोया, क्या पाया [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

राष्ट्रीय सहारा 
आज हमे गणतंत्र  हुए साढ़े छः दशक से अधिक का समय बीत चुका  हैं  ऐसे में एक स्वतंत्र गणराज्य के गणतंत्रता  दिवस के अवसर पर यह जरूरी है कि उसके आजाद एवं लोकतांत्रिक इतिहास की उपलब्धियों और विफलताओं का मूल्यांकन किया जायआजादी के बाद दर्जनों पंचवर्षीय योजनाओं के साथ बढ़ते हुए अगर हमने बहुत कुछ पाया है तो कई मोर्चों पर हम बुरी तरह असफल भी रहे  हैइसी संदर्भ में अगर हम आजादी के इन साढ़ें छः दशकों में भारत की सफलताओं-विफलताओं के इतिहास पर एक  नजर डालें तो थोड़े असंतुलन के साथ ये दोनों ही चीजें हमें कहीं ना कहीं देखने को मिलती हैंकुछ प्रमुख सफलताओं से बात शुरू करें तो आजादी के बाद हमारी सबसे बड़ी सफलता यही रही कि हमने अविलम्ब एक मजबूत और आदर्श लोकतंत्र की स्थापना की तथा अपने संविधान को भी बड़ी शीघ्रता से आत्मसात कर लियाइस विषय में कहा जा सकता है कि भारतीय जनमानस अपने संविधान से जितना शीघ्र जुड़ा, उतना गहरा और जल्दी में हुआ जुडाव  बहुत कम देशों में देखने को मिला हैउदाहरण के तौर पर ऐसे देशों की कोई कमी नहीं है जहाँ अकसर एक नया संविधान बनता और जनता द्वारा खारिज होता हैहमारी दूसरी महत्वपूर्ण सफलता है कि आजादी के बाद चार-चार युद्धों तथा तमाम अन्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को झेलने के बावजूद हमने सिर्फ उनसे अपनी मातृभूमि को सुरक्षित रखा, बल्कि कभी तेज तो कभी धीमी गति से ही सही निरंतर प्रगतिशील भी रहेइसके लिए पहला श्रेय जाता है देश की ढाल बनकर सीमा पर खड़े हमारे उन बहादुर जवानों को जिनके भरोसे देश दुश्मनों के हर षडयंत्र से निर्भय होकर प्रगति की ओर उन्मुख रहता हैआजादी के बाद की एक और बड़ी उपलब्धि पर नजर डालें तो विश्व समुदाय में पूर्व की अपेक्षा आज हर क्षेत्र में भारत ने अपनी एक विशेष साख कायम की हैफिर चाहें वो आर्थिक क्षेत्र हो या सामाजिक, कला हो या विज्ञान, खेल-कूद हो या शिक्षा-दीक्षा, इन सब में तथा और भी बहुत सारे क्षेत्रों में अब समूची दुनिया में भारत का झंडा लहराने लगा हैस्थिति ये है कि जिन मुल्कों के भरोसे कभी भारत की अर्थव्यवस्था चलती थी, आज वो मुल्क भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए इच्छुक हैंकुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि आज भारत भले ही विकसित राष्ट्र हो, पर वो  एक सक्षम और समर्थ राष्ट्र अवश्य बन चुका है   
दैनिक जागरण 
  हालाकि उपलब्धियों के फेहरिश्त की गुमान में हम अपनी तमाम खामियों से मुह नहीं मोड़ सकतेउन तमाम प्रमुख बिंदुओं जिनपर आजादी के बाद से ही भारत काफी हद तक विफल रहा है, पर भी विचार करना जरूरी हैवर्तमान में अगर देखा जाय तो भारत भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, स्वास्थ्य सहित कई आंतरिक समस्याओं का समाधान खोज पाने में अभी तक नाकाम रहा है  आंकड़ों की माने तो भ्रष्टाचार के मामले में भारत धीरे-धीरे दुनिया के महाभ्रष्ट देशों की सूची में शुमार होने की तरफ बढ़ रहा हैआजादी के बाद से ही भारत में भ्रष्टाचार की समस्या बहुत छोटे रूप में धीरे-धीरे पनपने लगी थी जो कि आज अपने चरम तक पहुँच चुकी हैभारत की विफलता के कई अन्य  बिंदु भी इस भ्रष्टाचार से ही जुड़े हुए हैं  भ्रष्टाचार ही वो  कारण है जिससे कि आज भारतीय राजनीति का नैतिक अवमूल्यन अपने चरम पर पहुँच चुका हैआज भ्रष्टाचार के कीचड़ में लगभग पूरा राजनीतिक महकमा आकंठ डूब चुका हैऐसे नेता गिने-चुने हैं जिनपर भ्रष्टाचार का कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष आरोप होअपने भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए सियासी  आकाओं द्वारा हर स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के कारण आज लोक और तंत्र के बीच अविश्वास की एक गहरी खाई सी बन गई हैलोक और तंत्र के बीच की इस खाई ने यह भय पैदा कर दिया है कि कहीं जनता और सत्ता के बीच संघर्ष की स्थिति जायजनता के बीच से लगातार सत्ता-विरोधी आवाजें उठने लगी हैंइस संदर्भ में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि भ्रष्टाचार का ये रोग सबसे अधिक उन्हीको लगा है जिनके ऊपर इसके निदान का दायित्व है । हालांकि विगत लोकसभा चुनाव में जिस तरह से भारतीय जनमानस ने अपना भरोसा नरेंद्र मोदी पर दिखाया और उनके शासन के लगभग दो वर्षों में कमोबेश वो भरोसा कायम भी रखा है, उससे कहीं न कहीं आशा जगती है कि बेहतर नेतृत्व मिले तो लोक और तंत्र के बीच का अविश्वास मिट सकता है । वैसे  आतंरिक सुरक्षा के मसले पर भी भारत काफी हद तक विफल ही नज़र आता  हैइस स्तर पर भारत की विफलता का सर्वश्रेष्ठ परिचायक भारतीय सुरक्षा व्यवस्था के लिए सिरदर्द बन चुके नक्सली हैंइससे कत्तई इंकार नही किया जा सकता कि नक्सलियों के उदय के शुरुआती दौर में तत्कालीन सरकारों  द्वारा उनके प्रति उदारवादी रुख अपनाने के कारण ही आज वो इतने ताकतवर हो चुके हैं कि हमारे विशेष पुलिस बलों के लिए भी उन्हें रोकना आसान नही पड़ रहा हैइन सबके बाद जिस बिंदु पर हम सर्वाधिक विफल हुए हैं वो है सांस्कृतिक संरक्षणप्रगतिशीलता के अन्धोत्साह के कारण युवाओं में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति बढ़ते झुकाव तथा संप्रेषण के तमाम तकनीकी माध्यमो के द्वारा गलत तत्वों से जुड़ाव के कारण आज भारतीय संस्कृति पतन की ओर अग्रसर हैआलम ये है कि रिश्तों की मर्यादाओं पर मानसिक विकृति हावी हो रही है जोकि निश्चित ही बड़ी चिंता का विषय है । इसका उदाहरण अभी हाल ही में पोर्न बैन पर देश के लोगों द्वारा जताए गए विरोध में देखा जा सकता है । इस विषय में समझ आने वाली बात ये है कि जिस भारतीय संस्कृति की समूचे विश्व में सराहना होती है, उसे अपने ही लोग कैसे और क्यों भूलते जा रहे हैं ?
  बहरहाल, उपर्युक्त सभी सफलताओं-विफलताओं के बावजूद संतोष की बात ये है कि जैसे-तैसे ही सही, हमने अपनी आजादी को सिर्फ सुरक्षित रखा है बल्कि अपने लोकतंत्र को स्थिर रखते हुए विश्व बिरादरी में ससम्मान प्रतिष्ठित भी हुए हैंहाँ, अब जरूरत इस बात की है कि हमारे सियासी हुक्मरान हमारी आजादी गणतंत्र के इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए अपने चरित्र को भी उस दौर के नेताओं सा बनाने का प्रयास करेंअगर वो उस दौर के नेताओं का आंशिक चरित्र भी अपने में ला पाते हैं, तो तय मानिए कि देश अब की तुलना में दुगनी-तिगुनी रफ़्तार से प्रगतिशीलता को प्राप्त होगासाथ ही, सही मायने में यही हमारे उन वीर सपूतों, जिनके कारण आज ये आजादी और लोकतंत्र है, के लिए सच्ची श्रद्धांजली भी होगी

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