रविवार, 17 जनवरी 2016

गांधीजी के सपना टूटत, जाता अन्हार में देशवा [भोजपुरी ई-पत्रिका आखर में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 
    आखर 

कबो रहे जे सोन चिरइया,
उहाँ न बा अब सोना चाँदी !
बहत रहे जहँ नदी दूध के,
उहाँ भूखि से  मरे  अबादी !
चोर पहुँचि गइलन सन सत्ता, धरि नेता जईसन भेषवा !
गाँधीजी  के  सपना  टूटत, जाता  अन्हार  में  देसवा !

ढाई सदी रहे  गोरन  के,
फेर जाके  आईल खादी !
लाख पूत आ सेनुर कीमत,
बड़ महंग बा  ई आजादी !
बाकिर  कीमत  आजादी  के, नहीं समझे देस नरेसवा !
गाँधीजी  के  सपना  टूटत, जाता  अन्हार  में  देसवा !

भ्रष्टतंत्र के  दीमक  लागल !
खोखल हो गईल इमान सब !
पईसा  की रँगन में रँगि के,
बा बदल  गईल  इंसान सब !
प्रेम, त्याग, सुख कमे लऊके,  बस लऊके  कलह  कलेशवा !
गाँधीजी  के  सपना  टूटत,  जाता   अन्हार   में   देसवा !

अनगिनत समस्या बादो भी,
बा झिलमिल आस के दीयना !
युवा  खून,  ई  देश   बचाई,
बा  ई  बिस्वास  के  दीयना !
युवा  बनी  जनता  के  सेवक,  न  नेता जईसन बलेशवा !
गाँधीजी  के  सपना  पूजी,  उबरी   अन्हार   से   देसवा !

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