शनिवार, 16 जनवरी 2016

फसल बीमा योजना से कितनी मिलेगी राहत ? [दैनिक जागरण राष्ट्रीय, दबंग दुनिया और पंजाब केसरी में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

दैनिक जागरण 
विगत दो वर्षों से लगातार व्यापक स्तर पर सूखा झेलने के कारण आत्महत्या को विवश हो रहे देश के किसानों को राहत देने के उद्देश्य केंद्र सरकार द्वारा नई फसल बीमा योजना का आगाज किया गया है। सरकार का कहना है कि ये योजना पहले से मौजूद फसल बीमा योजनाओं की अन्तर्निहित खामियों को सुधारकर तथा कुछ नए और किसानों को अधिकाधिक जोखिम सुरक्षा देने वाले प्रावधानों को शामिल करके तैयार की गई है। इस सन्दर्भ में इस योजना के कुछ मुख्य प्रावधानों पर गौर करें तो जहाँ पहले की फसल बीमा योजनाओं में प्रीमियम की दर अधिकतम १५ प्रतिशत तक थी, वहीँ इस योजना में वो अधिकतम पांच प्रतिशत कर दी गई है। रबी के अनाज एवं तिलहनी फसलों के लिए १.५  प्रतिशत प्रीमियम जबकि खरीफ के अनाज तथा तिलहनों के लिए दो प्रतिशत प्रीमियम देना होगा। उद्यानिकी और कपास की फसल के लिए दोनों सत्रों में पांच प्रतिशत तक प्रीमियम तय किया गया है। यह व्यवस्था भी की गई है कि नुकसान के संभावित दावे का २५ प्रतिशत तत्काल किसान के खाते में पहुँच जाए। इसके अलावा इस नई फसल बीमा योजना में आपदा की परिभाषा को और विस्तार दिया गया है, जिससे फसल को नुकसान पहुंचाने वाली अधिकाधिक आपदाजन्य स्थितियों में किसानों को सुरक्षा मिल सके। कुल मिलाकर यह योजना देखने में तो काफी बेहतर लगती है और अगर इसका क्रियान्वयन भी ठीक ढंग से होता है तो निस्संदेह यह किसानों की मुश्किलातों को कम करने में सहायक होगी। लेकिन बावजूद इसके एक सवाल यह उठता है कि क्या इस योजना से देश के किसानों की समस्याओं का सम्यक समाधान होगा और उनकी दशा में सुधार आएगा ? विचार करें तो इस सवाल का जवाब नकारात्मक ही प्रतीत होता है क्योंकि देश में किसानों की बिगड़ती दशा के लिए सिर्फ प्राकृतिक या अन्य कुछ आपदाएं ही जिम्मेदार हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ये आपदाएं तो किसानों की अनेक समस्याओं के समुच्चय का एक अवयव मात्र हैं।  
पंजाब केसरी 
यह जानने के लिए आज किसी शोध की जरूरत नहीं कि किसान आत्महत्या की त्रासदी काफी हद तक खेती की समस्याओं व हमारे किसानों की दुर्दशा से सम्बद्ध है। अगर भारत के किसानों की समस्याओं पर नज़र डालें तो उनकी एक लम्बी फेहरिस्त सामने आती है। चूंकि, भारत में खेती का उद्देश्य व्यावसायिक नहीं, जीविकोपार्जन का रहा है। इस नाते किसान की स्थिति तो हमेशा से दयनीय ही रहती आई है। तिसपर यहाँ खेती लगभग भाग्य भरोसे ही होती है कि अगर सही समय पर आवश्यकतानुरूप वर्षा हो गई, तब तो ठीक, वर्ना फसल बेकार। आज पेड़-पौधों में कमी के कारण वर्षा का संतुलन बिगड़ रहा है और इसका बड़ा खामियाजा हमारे किसानों को उठाना पड़ रहा है। हाल के कुछ वर्षों में तो कोई ऐसा साल नहीं गया, जिसमे कि देश में कुछ इलाके पूरी तरह से तो कुछ आंशिक तौर पर सूखे की चपेट में न आएं हों। हालांकि उपकरणों की सहायता से सिंचाई करने की तकनीक अब हमारे पास है। लेकिन, एक तो यह सिंचाई काफी महँगी होती है, उसपर इस सिंचाई से फसल को बहुत लाभ मिलने की भी गुंजाइश नहीं होती। क्योंकि एक तरफ आप सिंचाई करिए, दूसरी तरफ धूप सब सुखा देती है। सूखे की समस्या के अलावा कुछ हद तक जानकारी व जागरूकता का अभाव भी हमारे किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। हालांकि किसानों में जानकारी बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा किसान कॉल सेंटर जैसी व्यवस्था की गई है, मगर जमीनी स्तर पर यह व्यवस्था किसानों को बहुत लाभ दे पाई हो, ऐसा नहीं कह सकते। ये तो किसानों की कुछ प्रमुख समस्याओं की बात हुई, इसके अलावा और भी अनेकों छोटी-बड़ी समस्याओं से संघर्ष करते हुए हमारे किसान खेती करते हैं।  ऐसे किसान जिनकी पूरी आर्थिक निर्भरता केवल खेती पर ही होती है, खेती के लिए बैंक अथवा साहूकार आदि से कर्ज लेते हैं, लेकिन मौसमी मार के चलते अगर फसल ख़राब हुई तो फिर उनके पास कर्ज से बचने के लिए आत्महत्या के सिवाय शायद और कोई रास्ता नहीं रह जाता। इसके अतिरिक्त किसानों के पास खेती योग्य भूमि का अभाव होता जाना भी उनकी मुश्किलें बढ़ाने वाला है। एक आंकड़े की मानें तो आज देश के ९० फीसदी किसानों के पास खेती योग्य भूमि २ हेक्टेयर से भी कम है और इनमे से ५२ फीसदी किसान परिवार भारी कर्ज में डूबे हुए हैं।
दबंग दुनिया 
  इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय होगा कि विगत वर्ष भारतीय ख़ुफ़िया ब्यूरों (आईबी) द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को देश के किसानों की समस्याओं व उनकी दुर्दशा से सम्बंधित एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट सौंपते हुए सरकार को  इस विषय में चेताया गया था। आम तौर पर सरकार से देश की सुरक्षा से जुड़ी अत्यंत संवेदनशील सूचनाएं साझा करने वाली आईबी ने किसानों की समस्याओं जैसे मसले पर सरकार को ख़ुफ़िया रिपोर्ट दी इसीसे समझा जा सकता है कि यह मसाला कितना गंभीर था। रिपोर्ट में कहा गया था कि महाराष्ट्र, केरल, पंजाब आदि राज्यों में तो किसानों की आत्महत्याओं का बाहुल्य है ही, यूपी और गुजरात जैसे राज्यों में भी अब इस तरह के मामले ठीकठाक संख्या में सामने आने लगे हैं। इस  रिपोर्ट में सरकार द्वारा किसान आत्महत्या को रोकने के लिए किए जाने वाले ऋण माफ़ी, बिजली बिल माफ़ी समेत राहत पैकेज आदि उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया था  कि ये उपाय किसानों को फौरी राहत देते हैं न कि उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान करते हैं। परिणामतः किसानों की समस्याएँ बनी रहती हैं जो देर-सबेर उन्हें आत्महत्या को मजबूर करती हैं। आईबी की यह रिपोर्ट आने के बाद से अबतक देश में किसान आत्महत्या के मामलों में भारी इजाफा देखने को मिला है, जिससे स्पष्ट होता है कि इस रिपोर्ट में काफी हद तक सच्चाई थी लेकिन सरकार ने शायद इसे गंम्भीरता से नहीं लिया और किसानों की समस्याओं के स्थायी समाधान की दिशा में कुछ ठोस कदम नहीं उठाए।

  अब मौजूदा फसल बीमा योजना पर आएं तो ये भी एक फौरी राहत की ही योजना है। इससे किसानों को उनकी मुश्किलों से कुछ राहत ज़रूर मिल जाया करेगी, लेकिन उनकी दशा में कोई सुधार होगा या देश की कृषि को इससे कोई लाभ होगा, ऐसा कहना कठिन है। बात यह है कि यदि फसल होगी तो ही उसका बीमा होगा, लेकिन यहाँ तो हालात इतने ख़राब हैं कि देश के ज्यादातर किसान ठीक ढंग से फसल उगाने की स्थिति में ही  नहीं हैं, फिर सस्ता ही सही बीमा कैसे कराएंगे ? 

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