शनिवार, 17 मार्च 2018

उपचुनाव परिणामों के सन्देश [अमर उजाला कॉम्पैक्ट में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
आखिरकार यूपी-बिहार दोनों राज्यों के लोकसभा और विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम गए। देश भर में अपने विजय-रथ को लेकर घूम रही सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव परिणाम अत्यंत आघातकारी सिद्ध हुए। यूपी की गोरखपुर और फूलपुर दोनों लोकसभा सीटों पर मायावती द्वारा समर्थित सपा उम्मीदवारों की जीत हुई तो बिहार में भी भबुआ विधानसभा सीट के अलावा भाजपा के हाथ कुछ नहीं लगा। सब सीटों पर राजद ने बाजी मार ली। यूपी की पराजय भाजपा के लिए केवल भीषण आघातकारी है, बल्कि एक हद तक अप्रत्याशित भी है। चूंकि, यहाँ प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीटों पर उपचुनाव थे। गोरखपुर सीट, जहाँ से योगी लगातार पांच बार से सांसद रहे थे और जो उनका गढ़ कही जाती थी, पर पराजय मिलने की तो भाजपा ने कल्पना भी नहीं की होगी। मगर, पराजय हुई और थोड़े-बहुत नहीं, पूरे २१००० मतों से सपा के प्रवीण निषाद ने भाजपा के उपेन्द्र दत्त शुक्ल को हार का स्वाद चखाया। फूलपुर सीट पर तो पराजय का अंतर और अधिक रहा, जहाँ सपा के नागेन्द्र सिंह पटेल ने भाजपा के कौशलेन्द्र सिंह पटेल को ५९६१३ मतों से पराजित किया। इन पराजयों की टीस से उबरना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।


वैसे देखा जाए तो इन उपचुनाव परिणामों में विजेता और पराजित दोनों ही पक्षों के लिए  गहरे सन्देश छिपे हैं। हार-जीत के अलावा जनता ने दोनों पक्षों को कुछ कुछ नसीहत भी देने का काम किया है। पराजित पक्ष यानी भाजपा की बात करें तो ये नतीजे योगी आदित्यनाथ की सरकार के एक साल के कार्यकाल पर गहरे प्रश्न खड़े करते हैं। दरअसल योगी सरकार ने अपने एक वर्ष के दौरान जिन योजनाओं और नीतियों को लागू करने की कोशिश की है, उनका कोई विशेष लाभ तो आम जन तक नहीं पहुँचा है, बल्कि सरकार की कई नीतियों ने लोगों की परेशानी बढ़ाई ही है। जैसे कि अवैध खनन पर लगाम लगाने के लिए सरकार द्वारा लाई गयी नई खनन नीति एक बड़ा मुद्दा है, जिसे लेकर इस सरकार से लोगों में नाराजगी है। दरअसल नयी खनन नीति में अवैध खनन पर रोकथाम के लिए प्रावधानों की सख्ती तो लाई गयी, मगर उसको ठीक ढंग से लागू करने में सरकारी तंत्र विफल रहा है। स्थिति यह है कि अपने निर्माण कार्यों के लिए आम लोगों का रेत आदि प्राप्त करना मुश्किल हो गया है। ऐसे ही छुट्टे पशुओं, भ्रष्ट नौकरशाही जैसी कई समस्याएँ हैं, जो इस सरकार के प्रति लोगों में नाराजगी का भाव पैदा कर रही थीं।  विचार करें तो इस सरकार की सबसे बड़ी कमी यह है कि ये एक साल के समय में भी नौकरशाही पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकी है। इस कारण इसकी ज्यादातर नीतियों में पलीता लग रहा है। ये बात योगी सरकार जितनी जल्दी समझ ले, उतना ही बेहतर है।

सरकार से इतर संगठन के स्तर पर भाजपा की पराजय का मुख्य कारण जीत के प्रति  अति-आत्मविश्वास होना प्रतीत होता है। ये अति-आत्मविश्वास ही था कि सपा-बसपा के गठबंधन को भाजपा ने हल्के में लिया और उससे मुकाबले के लिए किसी प्रकार का राजनीतिक समीकरण साधने की जरूरत नहीं समझी। शीर्ष नेतृत्व इन चुनावों से दूरी बनाए रखा जैसे कि यहाँ जीत तय हो। इसके अलावा दलीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा को भी इस हार के लिए एक अहम वजह माना जा रहा है। कुल मिलाकर भाजपा के लिए इस पराजय का सबक यह है कि भविष्य में सरकार और संगठन दोनों स्तरों पर अति-आत्मविश्वास से बचते हुए कार्य करे।

अब विजेता पक्ष यानी सपा-बसपा गठजोड़ की बात करें तो निश्चित तौर पर इस विजय ने विपक्ष को भाजपा से मुकाबले का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक मंत्र दे दिया है। अब देखने वाली बात यह होगी कि एकजुटता के इस मंत्र को लेकर विपक्षी खेमा कितना आगे बढ़ पाता है। क्या इसी रणनीति के तहत लोकसभा में भी राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन खड़ा होगा ? ये बड़ा सवाल है। चूंकि, विपक्षी एकता का इतिहास बड़े मुकाबलों के समय में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ने का ही रहा है। मोटे तौर पर कहें तो इस उपचुनाव ने विपक्ष को रणनीति देने का काम किया है, अब लोकसभा चुनाव तक इस रणनीति के साथ अगर बड़े पैमाने पर कोई विपक्षी एका राष्ट्रीय पटल पर आकार ले सका तो भाजपा के लिए लड़ाई आसान नहीं रह जाएगी।

स्पष्ट है कि इस उपचुनाव में पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए जनता के सन्देश छिपे हैं, अब जो इन संदेशों को समझकर उनके हिसाब से कार्य करेगा, भविष्य के मुकाबलों में विजेता का ताज उसीके सिर पर होगा।

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